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किसिम-किसिम की महिलाएं और किसिम-किसिम के उन के किस्से

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
अस्सी के दशक में दिल्ली के मोहन सिंह प्लेस वाले काफी हाऊस में एक किस्सा खूब चला था। किस्सा यह था कि तब के साप्ताहिक हिंदुस्तान और वीकएंड के संपादक मनोहर श्याम जोशी ने हिंदुस्तान टाइम्स की स्पेशल करस्पांडेंट उमा वासुदेव से हमबिस्तरी के बाद बहुत प्रफुल्लित हो कर , सीना चौड़ा कर बताया कि आज मेरी सेंचुरी कंप्लीट हो गई , तुम्हारा क्या स्कोर है ? उमा वासुदेव चुप रहीं। लेकिन जोशी जी लगातार उमा वासुदेव से यह सवाल दुहराते रहे, ‘ तुम्हारा क्या स्कोर है ?’ और जब बहुत हो गया तो अंततः उमा वासुदेव धीरे से बोलीं , ‘ हम ने अपनी सेंचुरी के बाद गिनती बंद कर दी।’ जोशी जी अपना मुंह लिए रह गए। कहां खुद को चैम्पियन मान रहे थे , रनर अप बन कर रह गए।

जाने इस किस्से में कितना गप्प था , कितना सच। लेकिन मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास कुरु कुरु स्वाहा और कसप की चर्चा के साथ ही इस चर्चा का मजा भी एक ख़ास पॉकेट में ख़ूब लिया गया । इतना कि काफी हाऊस के बाथरूम की दीवार पर इस संवाद को क्रमशः पॉकेट स्केच के रूप में भी किसी ने बना दिया था। ठीक वैसे ही जैसे किसी समय इंदिरा गांधी और सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति ब्रेजनेव का पॉकेट स्केच क्रमशः संवाद के साथ इसी बाथरूम की दीवार पर किसी ने बनाया था। जिस का पहला संवाद था , पूरा इंडिया सोवियत संघ के हाथ में और आख़िरी संवाद था , पूरा सोवियत संघ इंडिया में। इसी तरह का संवाद मनोहरश्याम जोशी और उमा वासुदेव के लिए भी गढ़े गए थे। बहरहाल मनोहरश्याम जोशी बाद के दिनों में ज्ञानी जैल सिंह पर लिखे एक सटायर पीस पर विवाद के चलते साप्ताहिक हिंदुस्तान छोड़ गए। जल्दी ही दूरदर्शन के धारावाहिक हम लोग , बुनियाद , कक्का जी कहिन , मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसे धारावाहिकों के स्टार लेखक बन कर उभरे। उन के और भी स्त्री प्रसंग आए-गए।

इसी हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की पत्रिका कादम्बिनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी के स्त्री प्रसंग से ज्यादा कादम्बिनी में छपने के लिए स्त्री होना ज्यादा ज़रूरी के चर्चे हवा में बहते रहते। इतना कि तमाम पुरुष रचनाकारों ने महिला बन कर कादम्बिनी को रचना भेजी और वह रचनाएं छपीं। बहुत सी ऐसी पुरुष लेखिकाओं को चिट्ठी लिख कर वह मिलने को भी बुलाते रहे और फजीहत उठाते रहे। इतना कि बीमार शहर जैसे उन के कई उपन्यासों , कहानियों की उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी उन की इस बीमारी की।

उन दिनों क्षणिकाएं लिखने वाली सरोजनी प्रीतम उन की प्रिय लेखिका बन कर उभरीं थीं। कादम्बिनी में राजेंद्र अवस्थी का कालम काल चिंतन जितना लोकप्रिय था , उस से भी ज़्यादा उन का महिला प्रेम हिंदी लोक में लोकप्रिय था। किसिम-किसिम की महिलाएं और किसिम-किसिम के उन के किस्से भरे पड़े हैं लोगों की जुबान पर। पर दोनों के बीच फर्क यह था कि मनोहर श्याम जोशी जो भी कुछ करते थे डंके की चोट पर करते थे। वहीँ राजेंद्र अवस्थी शरीफ बन कर। छुपछुपा कर। पर इश्क और मुश्क छुपाए छुपता कहां है भला। फिर किसी संपादक की ऐसी कहानी । नमक-मिर्च लगा कर , तिल का ताड़ बना कर सब से पहले उन के सहयोगी लोग ही परोस देते हैं । फिर तो जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा की तरह कथा पुष्पित और पल्लवित होती रहती है ।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार है)

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