Positive India:Kanak Tiwari:
वसीयतें दो तरह की होती हैं। एक तो वे जिनमें वसीयतकर्ता अपनी भौतिक संपत्ति को प्राप्तकर्ताओं के पक्ष में इच्छालेख द्वारा अंतरित करता है। वसीयत का एक चेहरा और होता है। दिवंगत हो चुकी पीढ़ी अपने उत्तराधिकारियों को जिम्मेदारियां, दायित्व और अधूरे कार्यों को पूरा करने की उम्मीदें भी वसीयतपत्र में लिख देती है। भारत के संविधान के भाग चार में निहित नीतिनिदेशक तत्वों का यही दूसरा विकल्प ज्यादा प्रासंगिक और अमल में लाने को लेकर पुरअसर हो सकता था। मशहूर फिल्म निर्माता श्याल बेनेगल ने ‘संविधान‘ नामक टेली सीरियल बनाया। उसमें संविधान सभा की कार्यवाहियों की एक यादध्यानी नस्ल की झलक दिखाई। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने अपनी ताजा फिल्म ‘आर्टिकल 15‘ में अद्भुत प्रयोग करते संविधान के मूल अधिकार का मौजूदा पीढ़ी द्वारा खुला उल्लंघन दिखाया जो भारत के नागरिकों को धर्म, वंश, मूल, जाति, यौन आदि सभी अधिकारों में बराबर घोषित करता है। संविधान के रचनाकारों के सामने कई मुश्किलें थीं।
यह तो जगजाहिर है आजा़द होते भारत में ऐसा कोई देशज या स्थानीय रोल माॅडल उपलब्ध नहीं था जिससे प्रेरणा लेकर पहली बार लिखे जा रहे संविधान की इबारतें सुस्थिर की जातीं। यही विकल्प था कि दुनिया के कई प्रौढ़ लोकतंत्रों और उनके संविधान भाष्यों से मुनासिब प्रावधान भारतीय संदर्भ में प्रेरणा की तरह लिए जाएं। संविधान निर्माता यूरो-अमेरिकी नस्ल का संविधान तो नहीं ही बना रहे थे। सभा में कई मैदानी स्वतंत्रता संग्राम सैनिक, बुद्धिजीवी, व्यापारी और राजे रजवाड़े आदि के हितों के प्रतिनिधि, प्रशासक और अन्य तरह के आर्थिक सामाजिक गूढ़ समस्याओं के विचारक भी थे। संविधान केवल राज्य प्रबंध की विवरणिका बनकर आने वाला नहीं था। उसमें हिन्दुस्तानियत की अनुगूंज गूंथते हुए भी भविष्य की समस्याओं के उचित निवारण के लिए आवश्यक प्रावधान करने ही थे। यदि किसी के घर में कई मौतें हो जाएं। साथ साथ विवाह, जन्मदिन आदि के मांगलिक कार्य भी करने हों। तो परिवार परिचितों, रिश्तेदारों बल्कि व्यापक कुनबे पर क्या गुजरेगी। यह एक मानसिक तनाव और ऊहापोह की स्थिति होती है।
भारत की संविधान सभा 9 दिसम्बर 1946 से 26 नवंबर 1949 तक बैठकें करती रही। उसके पहले से ही भारतीय आजादी का सपना साकार होना तय हो गया था। दुर्भाग्यग्यवश हिन्दू मुसलमान नफरत का घनत्व असहनशील होने से पाकिस्तान के बनने की संभावित स्थिति वक्त की दीवार पर लिखी जा चुकी थी। हजारों लाखों की संख्या में निर्दोषों का कत्लेआम, बलात्कार, लूट, चोरी, डकैती और हिन्दू मुसलमान आज़ादी का हिन्दुस्तान पाकिस्तान में अदलबदल जारी रहने के साथ साथ एक तरह का वीतराग लेकर संविधान सभा के सदस्य देश के आईन की कंटूर रेखाएं खींच रहे थे। ऐसी द्वैध दुर्घटना संभवतः दुनिया के इतिहास में अन्य किसी देश के संविधान को रचने के वक्त नहीं हुई होगी। यही अंततः भारत के विधायन रचने के नसीब का अनोखा आंतरिक दृश्य है। वहां से उपजी नफरत की आग अभी भी ठंडी नहीं हुई है। भले ही संविधान उस पर खुद को फायर ब्रिगेड समझता पानी की बौछारें मारता रहे।
अब्राहम लिंकन की यह उक्ति स्फुरण की तरह है कि लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए जनता की हुकूमत है। प्राकृतिक साधनों का उत्पादन जनता के लिए लाभदायक, महत्वपूर्ण अथवा आवश्यक होना ही है। निहित स्वार्थों, निजी इजारेदारों तथा खुद के लिए लाभ की आकांक्षा करने वालों की नजर या उनके नियंत्रण में कुदरती संसाधनों को इक्कीसवीं सदी में भी सौंप देना जनता के प्रति और देश के भावी हितों और आने वाली पीढ़ी के प्रति अन्याय हुआ। जो लोग जो निजी पूंजी बनाने और मुनाफा कमाने के मकसद से सिर से पैर तक लकदक हैं। संविधान के मकसद को समझ नहीं पाते हैं। कुदरत की देन या सम्पत्ति का मूल्य या महत्व किसी एकाधिकारवादी की हविश के आधार पर नहीं होना चाहिए। उनका वास्तविक उद्योग हर वक्त समाज के समावेशी उद्यमी चरित्र पर मूल्यांकित होता है। सामाजिक परिस्थितियों और समझ ने ही कुदरती संसाधनों से उत्पन्न वर्गीय हितों या इस प्रकार के उपलब्ध साधनों को मूल्यवान बनाया है।
खदानें और खनिज सम्पत्ति घटती रहती हैं। नष्ट होती रहती हैं। इनका दोहन या रक्षा करने के बदले इनकी बचत और किफायतसारी के जरिए जनता के उपयोग के लिए सुरक्षित रखने के स्थान पर इन्हें विशेषाधिकार देकर मुनाफाखोरों को और निजी एकाधिकारियों को सरकार द्वारा सौंप दिया गया है। इन पर शासन का सीधा नियन्त्रण भी नहीं है। वास्तव में इन सम्पत्तियों पर अब तो ऐसे कानूनों के जुमलों के जरिए कब्जा किया जाता है जो लगभग अपराधी नस्ल के हैं। ये निहित स्वार्थों के मालिक ज्यादा से ज्यादा मुनाफा ही तो कमाते हैं। कोई नहीं सोचता जब खदानें खत्म हो जायेंगी। जब सदियों से संचित सम्पत्तियां नष्ट हो जायेंगी। तब क्या होगा? यह संविधान सभा के संज्ञान में था कि बीसवीं सदी के चौथे पांचवें दशक तक कुदरती संसाधनों का पर्याप्त विकास अंगरेजी हुकूमत द्वारा नहीं किया गया था। बहुत कामचलाऊ विकास ही किया गया था। यह तो स्वाभाविक उम्मीद थी कि आगामी वर्षों में देश का, इसके प्रत्येक भाग में प्रत्येक उपलब्ध साधनों का विकास करने के हेतु एक अधिक प्रभावशाली, परिणामधर्मी और अधिक कारगर योजना बनाई जाए और उसे क्रियान्वित किया जाए। सपना था कि ऐसा हो पाए तो नवजीवन स्फुरित होगा।
संविधान के भाग 4 को राज्य की नीति के निदेशक तत्व का कोलाज़ बनाकर समझाया गया। कई मुद्दों के अतिरिक्त आईन के रचनाकारों ने यह भी हासिल किया। देश में खनिज, वन, जल और भूमि सहित कई प्राकृतिक संसाधन हैं। वे सदियों से व्यापक समाज की जरूरतों को आपसी समझ के तालमेल के आधार पर पूरा करते रहे हैं। दुनिया के अन्य मुल्कों के साथ कदमताल करने विज्ञान, इंजीनियरिंग, खनि कर्म, भूगर्भ विज्ञान, वन प्रबंधन की आधुनिक तकनीकों को भारत में लाए जाने की जरूरत महसूस की गई। इससे संपत्तियों और उनके मूल्यों में गुणात्मक विकास के जरिए देश में व्याप्त गरीबी, असमानता और ठप्प पड़ी या एकदम नई और उर्वर गतिविधियों को नया जीवन दिया जा सकेगा। लिहाज़ा उन्होंने समितियों, उपसमितियों का गठन करने के बाद अपने अधूरे वचनों को भविष्य का अपना सपना बनाया। ऐसी संभावनाओं को भविष्य की संसदों को वसीयत की तरह सौंपना मुनासिब समझा गया। संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक कई अनसुलझे सामाजिक सियासी प्रश्नों को भविष्य की स्लेट पर हल करने की उम्मीद में इबारत की तरह लिख दिया गया।
साभार:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)