द ला ई ला मा- कनक तिवारी की कलम से
यदि आपका मन स्थिर और शान्त है तो आप प्रत्येक वस्तु को उसके वास्तविक रूप में ही देखेंगे।
Positive India:By Kanak Tiwari:
तिब्बत के तकचे गाँव की गोशाला में 6 जुलाई, 1935 को जन्मे दलाई लामा को बोधिसत्व के अवतार की प्रतिष्ठा प्राप्त है। तिब्बत में दलाई लामा की परम्परा छह सौ वर्षों से अक्षुण्ण है। वे इस परंपरा में चौदहवें दलाई लामा है। उनके बचपन का नाम तेनजिन ग्यात्सो था। सात वर्ष की उम्र से ही वे हजारों प्रबुद्ध बौद्ध भिक्षुओं को प्रार्थना करवाने लगे थे। दया, धैर्य, शान्ति और अविचलता की सजीव प्रतिमा दलाई लामा तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु और अपदस्थ शासक हैं। 1950 में इस पर्वतीय राजतंत्र की नीरवता और शान्ति को पडोसी राष्ट्र चीन ने भंगं किया। दलाई लामा इसी नीरवता और शान्ति की वापसी के लिए रचनात्मक संघर्ष कर रहे हैं। दलाई लामा को उनकी शान्तिप्रियता और क्षमाशीलता के लिए विश्व के सर्वोच्च सम्मान नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पुरस्कार ग्रहण करते हुए उन्होंने कहा था कि मैं कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं हूँ एक सहज साधु हूँ। मुझे विश्वास है कि यह पुरस्कार करुणा, परोपकार, प्रेम और अहिंसा जैसे उन मूल्यों के लिए मान्यता देता है जो भारतीय-तिब्बतीय मनीषा और महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अनुरूप हैं और जिन्हें मैं आचरण में उतारने का प्रयत्न करता हूँ। जो उत्पीड़ित हैं और जो शान्ति और स्वाधीनता के लिये संघर्षरत हैं, उनकी ओर से यह पुरस्कार ग्रहण करता हूँ। मैं महात्मा गांधी के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए इसे स्वीकार करता हूँ जिनके जीवन से मैंने प्रेरणा ग्रहण की और जिन्होंने परिवर्तन के लिए अहिंसा की आधुनिक पारम्परिक क्रियाविधि की नींव डाली।
भगवान् बुद्ध और महात्मा गांधी भारतीय इतिहास के दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने हिंसा का विरोध किया। बुद्ध ने जहाँ युद्ध-विरोध किया, वहीं गांधी ने युद्धशोध किया। तिब्बत की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा और स्वाधीनता के लिए दलाई लामा ने करुणा और अहिंसा का मार्ग अपनाया है। अपने देश तिब्बत से निर्वासित इस सहज साधु की साधना स्थली अब भारत है। 1959 में तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद श्री दलाई लामा भारत के अतिथि बने। भारत ने सिर्फ उन्हीं को ही नहीं उनके देशवासियों को भी आश्रय दिया। उनकी शैक्षणिक और धर्म संस्थाओं को सहायता दी। तिब्बत की सांस्कृतिक अस्मिता को सुरक्षित रखने में पंडित जवाहर लाल नेहरू की सौहार्दपूर्ण नीति और सहानुभूति को हमेशा याद किया जायेगा।
हमारे देश के आधुनिक चिन्तक और कथाकार श्री निर्मल वर्मा तिब्बत की पीड़ा में सहभागी होकर कहते हैं कि चीन के आधिपत्य तले आज विकास के नाम पर जो कुछ भी दुर्गति तिब्बत में हो रही है उसका दुष्प्रभाव समूची हिमालय श्रृंखला में बसे प्रदेशों के पर्यावरण पर पड़ सकता है। तिब्बत और भारत जैसे परम्परा सम्पन्न देशों में पर्यावरण का गहरा रिश्ता उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता के साथ जुड़ा है। जंगल, पहाड़, नदी-नाले केवल भौगोलिक वस्तुएँ नहीं हैं। ये वे प्रतीक और रूपक हैं जिनके सहारे एक धर्म प्रधान संस्कृति अपने साहित्य के उपादान, अपनी आस्थाओं के आलोक दीप और अपनी मिथक कथाओं की प्राणवत्ता हासिल करती है। जब हम किसी जंगल को नष्ट करते हैं, किसी नदी को दूषित करते हैं तो उनके बीच साँस लेने वाली अनेक कथाएँ, प्रथाएँ, अनुष्ठान, स्मृतियाँ और स्वप्न अपने आप मुरझाने लगते हैं। यह बात तिब्बत जैसे देश पर और भी अधिक सचाई से लागू होती है, जिसके निवासियों ने हजारों वर्षों से अत्यंत परिष्कृत स्तर पर अपने ज्ञान-विज्ञान, चिकित्साशास्त्र और महायान बौद्ध दर्शन की रहस्य-गुत्थियों को अपनी संचित परम्पराओं में संयोजित किया है।
भारत के हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला नामक स्थान में निवास करते दलाई लामा ने अपने साठ वर्षों के निर्वासित जीवन में अविचल रहकर भारत और नेपाल में पुनर्वास बस्तियाँ बसाई हैं और अपने देश की कला, उसके शास्त्रों और आयुर्वेद पद्धति को जीवित रखने के लिए संस्थाएँ स्थापित की हैं। सरल और सौम्य दलाई लामा निर्वासित तिब्बतीजनों और चीनी शासन के अधीन रहने वाले लगभग साठ लाख तिब्बती नागरिकों को राजनीतिक सूत्र में पिरोने वाले सर्वमान्य आध्यात्मिक नेता हैं। वे तिब्बत की निर्वासित सरकार के अध्यक्ष और तत्व ज्ञान के आचार्य हैं। दलाई लामा कहते हैं कि यदि आपका मन स्थिर और शान्त है तो आप प्रत्येक वस्तु को उसके वास्तविक रूप में ही देखेंगे। उनके विचार से सभी राजनीतिज्ञों को इस प्रकार के धैर्य और संयम की आवश्यकता है। दया, निर्मलता और अन्तर्दृष्टि से परिपूर्ण दलाई लामा महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग के तेजस्वी साधक हैं, जहाँ न तो संसार से अनुराग है और न ही विराग है, जहाँ सच्चा धर्म दया ही है, सहज होना ही सिद्धि है।
साभार लेखक: कनक तिवारी-फेसबुक