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चित्तौड़ संसार में क्षत्रिय स्वाभिमान का आदर्श बना हुआ है

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
क्या है पूर्णाहुति?
मध्यकाल में लम्बे समय तक क्षत्रिय शौर्य परम्परा का ध्वजवाहक रहा मेवाड़! शत्रुरक्त से बार बार धरती माता के चरण पखारने वाले योद्धाओं की धरा… अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अग्निस्नान का साहस कर लेने वाली देवियों का आंगन… चित्तौड़ संसार में क्षत्रिय स्वाभिमान का आदर्श बन कर खड़ा रहा।

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उसी चित्तौड़ को जीतने निकला था मुगल बादशाह अकबर! सवा लाख की सेना लेकर! तब दुर्ग में बस आठ हजार राजपूत सैनिक और तीन हजार भील लड़ाके थे। मदमाते बादशाह को लगता था, जैसे चुटकियों में जीत लेगा…

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पर क्या यह इतना सहज था? ना! चित्तौड़ पराजित हो कर भी कभी पराजित नहीं हो सकता था। क्यों? बताएंगे।
उनके दरवाजे पर घेरा डाल कर बैठा सुल्तान तबतक उन्हें छू न सका, जबतक वे स्वयं नहीं चाहे। उन्होंने यज्ञ की तिथि स्वयं तय की, उन्होंने स्वयं दी आहुति। पूर्णाहुति!
संसार ने उस दिन देखी थी भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की झांकी! इतिहास उस युवक के अमर प्रेम का साक्षी हुआ, जिसने युद्ध की आहट पाते ही कन्या के द्वार से अपनी बारात वापस लौटा ली थी। समय उन दो योद्धाओं के आगे बार बार नतमस्तक होता रहा, जिन्होंने दूसरे पर आई विपत्ति स्वयं अपने कंधे पर उठाई और अमर हो गए।

और हाँ ! कुछ और भी था, जिसपर मन भर लिखने के बाद भी बार बार लगा कि मैं अपनी भावनाओं का हजारवाँ हिस्सा भी नहीं लिख सका। और अंततः एक लेखक के रूप में अपनी पराजय स्वीकार करते हुए मैंने माना, कि मुख में तुलसी और गंगाजल लेकर अग्निकुंड में उतर जाने वाली देवियों के आगे केवल नतमस्तक हुआ जा सकता है, उनपर लिखा नहीं जा सकता।

पूर्णाहुति अपने योद्धा पूर्वजों के प्रति मेरी श्रद्धा है। मेरा प्रणाम, मेरा समर्पण, मेरी निष्ठा… संसार को नहीं, स्वयं को दिया गया एक भरोसा कि वे सदैव मेरे लिए देवतुल्य ही रहेंगे।

मैं यह नहीं कह रहा कि आप इस पुस्तक को पढ़ें ही। यह मैं अपनी किसी पुस्तक के लिए नहीं कहता। मैं बस यह कहता हूँ कि आप उस घटना को जानिये। किसी अन्य पुस्तक से हो सके तो वही सही… लोक में बिखरी कथाओं से हो सके तो वही सही… बस जानिये, कि अपने इतिहास को याद रखना भी धर्म है।

संसार मे सर्वाधिक वाह्य आक्रमण झेलने के बाद भी यह सभ्यता पुष्पित पल्लवित हो रही है तो इसके पीछे क्या कारण है? वे कौन से मूल्य हैं, जिनका बचना हमारे बचने के लिए आवश्यक है? मुझे मेरी बुद्धि से जो समझ आया वह मैंने लिखा, आपकी बुद्धि कुछ अलग कहे तो भी कोई दिक्कत नहीं। आवश्यक यह है कि हम और आप इस दिशा में बुद्धि लगाएं।
बस इतना ही… शेष सब जय जय। लेखक का काम लिखने के साथ ही समाप्त हो जाना चाहिये न?

साभार:सर्वेश तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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