www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

राम जन्म भूमि के बाद सीजेआई रंजन गोगोई का आरटीआई पर एक और अहम फैसला

अब आरटीआई के दायरे में सुप्रीम कोर्ट भी

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India:नयी दिल्ली,13नवंबर(भाषा):
अपने रिटायरमेंट से पहले भारत के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने एक और अहम फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। यह फैसला है सुप्रीम कोर्ट को आरटीआई के दायरे में लाने का।

उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को अपनी एक महत्वपूर्ण व्यवस्था में कहा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के तहत सार्वजनिक प्राधिकार है।

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को सही ठहराते हुये इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय के सेक्रेटरी जनरल और शीर्ष अदालत के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी की तीन अपील खारिज कर दी।

आरटीआई कार्यकर्ताओं ने शीर्ष न्यायालय के इस फैसले की सराहना की और साथ ही कहा कि ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है।’’

उच्चतम न्यायालय की पीठ ने फैसला देते हुए आगाह किया कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता के मसले पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा।

पीठ ने स्पष्ट किया कि कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों के नामों की सिफारिशों की सिर्फ जानकारी दी जा सकती है और इसके कारणों की नहीं।

यह निर्णय सुनाने वाली संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूति संजीव खन्ना शामिल थे।

संविधान पीठ ने कहा कि कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिये की गयी सिफारिश में सिर्फ न्यायाधीशों के नामों की जानकारी दी जा सकती है लेकिन इसके कारणों की नहीं।

प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने एक फैसला लिखा जबकि न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने अलग निर्णय लिखे।

न्यायालय ने कहा कि निजता का अधिकार एक महत्वपूर्ण पहलू है और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय इसमें और पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा।

न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता को साथ-साथ चलना है।

न्यायमूर्ति रमण ने न्यायमूर्ति खन्ना से सहमति व्यक्त करते हुये कहा कि निजता के अधिकार और पारदर्शिता के अधिकार तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बीच संतुलन के फार्मूले को उल्लंघन से संरक्षण प्रदान करना चाहिए।

उच्च न्यायालय ने 10 जनवरी, 2010 को कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है और न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है।

88 पेज के इस फैसले को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्ण के लिये व्यक्तिगत रूप से एक झटका माना जा रहा है क्योंकि वह सूचना के अधिकार कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना की जानकारी देने के पक्ष में नहीं थे।

उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय की वह याचिका खारिज कर दी थी जिसमें दलील दी गयी थी कि प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित होगी।

यह फैसला सुनाने वाले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए पी शाह पहले ही सेवानिवृत्त हो गये थे जबकि इसके एक अन्य सदस्य न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन शीर्ष अदालत के न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त हुये हैं। इस समय इस पीठ के तीसरे सदस्य न्यायमूर्ति एस मुरलीधर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं।

प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आने का मुद्दा आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने उठाया था। केन्द्रीय सूचना आयोग ने अग्रवाल के आवेदन पर जब जनवरी 2008 में उच्चतम न्यायालय को अपेक्षित जानकारी उपलब्ध कराने का आदेश दिया तो इसके खिलाफ यह मामला उच्च न्यायालय पहुंचा था।

उच्चतम न्यायालय के फैसले की आरटीआई कार्यकर्ताओं ने सराहना की और साथ ही कहा कि ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है।’’ हालांकि, उन्होंने शीर्ष न्यायालय द्वारा इन शब्दों के इस्तेमाल को ‘‘अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण’’ और ‘‘चौंकानेवाला’’ बताया कि आरटीआई का इस्तेमाल निगरानी के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने भी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत किया है ।

उन्होंने कहा, ‘‘मैं उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत करता हूं। यह आरटीआई अधिनियम की जीत है।’’

गैर सरकारी संगठन राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल (सीएचआरआई) के सूचना पहुंच कार्यक्रम के प्रमुख वेंकटेश नायक ने कहा, ‘‘मैं (उच्चतम न्यायालय की) संविधान पीठ द्वारा कानून में स्थापित रूख दोहराये जाने के फैसले का स्वागत करता हूं कि भारत के प्रधान न्यायाधीश का पद सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत एक लोक प्राधिकार है।’’

आरटीआई का इस्तेमाल निगरानी के लिये नहीं किये जा सकने वाली उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी को नायक ने ‘‘बेहद दुर्भाग्यपूर्ण’’ करार दिया ।

उन्होंने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘यह विचार बेहद दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी है कि सूचना का अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल न्यायपालिका की निगरानी के लिए किया जा सकता है । ’’

आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडर (सेवानिवृत्त) लोकेश बत्रा ने कहा, ‘‘कानून से ऊपर कोई नहीं है, खासतौर से वे लोग जो सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं।’’

उन्होंने कहा कि इस फैसले से कई संभावनाएं खुली हैं और यहां तक कि विधि निर्माताओं (संसद और विधानसभा सदस्य) और अन्य को भी आरटीआई कानून के दायरे में होना चाहिए।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के राज्यसभा सदस्य मजीद मेमन ने कहा कि न्यायाधीश ‘‘दिव्यात्मा’’ नहीं हैं। उन्होंने ट्वीट किया, ‘‘न्यायाधीश ‘दिव्यात्मा’ नहीं हैं। वे भी हमारे बीच के इंसान ही हैं। उनमें भी कमियां हो सकती हैं। न्यायाधीशों को आरटीआई के दायरे में लाने का फैसला पारदर्शिता और न्याय प्रणाली में लोगों के भरोसे की दिशा में बहुत बड़ा कदम है।’’

पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने भी शीर्ष अदालत के इस निर्णय की सराहना की है ।

उन्होंने कहा, ‘‘शीर्ष अदालत का यह एक बेहतर निर्णय है । मुझे यही निर्णय आने की उम्मीद थी क्योंकि तार्किक रूप से कुछ और नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह फैसला आने में दस साल लग गए । मुख्य सूचना आयुक्त ने इसे बरकरार रखा था और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इसे बरकरार रखा था। अब उच्चतम न्यायालय ने भी इसे बरकरार रखा है । सभी लोक सेवक जिन्हें सरकार की तरफ से वेतन दिया जाता है वह लोकसेवक हैं, उनकी स्थिति क्या है, यह मायने नहीं रखता है । आपको अपने काम के लिए जिम्मेदार होने की जरूरत है । मैं प्रधान न्यायाधीश और अदालत को इस निर्णय के लिए बधाई देता हूं ।’’

Leave A Reply

Your email address will not be published.