
छावा: चालीस दिनों तक तड़पाने के बाद शम्भू जी और कवि कलस के शरीर को टुकड़ों में काटा गया…
-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
छावा के बहाने…
पहले ही बता दूं, मैंने फिल्म नहीं देखी। यह भी तय है कि आगे भी नहीं देखूंगा। मेरा दोष है कि न अत्यधिक करुण कहानियां पढ़ पाता हूँ, न वैसी फिल्में देख पाता हूँ। सहन नहीं होता, रो पड़ता हूँ… अब ऐसा ही है, तो है… इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, सम्भूजी और कवि कलस के साथ हुई क्रूरता विद्यार्थी जीवन से याद है। मैं क्या, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति यदि पढ़ ले तो जीवन भर भूल नहीं पायेगा। मैं जानता हूँ कि फिल्म का आधा हिस्सा शौर्य का होगा और आधा हिस्सा मुगलिया पाशविकता से भरा होगा… नहीं देख पाऊंगा।
इतिहास की किताबें बताती हैं कि चालीस दिनों तक तड़पाने के बाद शम्भू जी और कवि कलस के शरीर को टुकड़ों में काटा गया… बाद में कुछ ग्रामीणों ने उन टुकड़ों को बटोर कर अंतिम संस्कार किया था। यह इतना विभत्स था कि पढ़ सुन कर मनुष्य की आत्मा कांप उठे।
कुछ मित्रों के रिव्यू पढ़ने और फेसबुक पर फ़िल्म के एक दो क्लिप देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि फिल्म में मुगलिया क्रूरता दिखाने में कंजूसी की गयी है। लगे हाथ सेक्युलरिज्म का तड़का लगाने का भी प्रयास हुआ है। सिनेमा जगत की अपनी मजबूरियां हैं। फिर भी, नई पीढ़ी के लिए यह एक आवश्यक फिल्म है। प्रयास हल्का है, पर आंख खोलने के लिए काफी है।
सत्य से मुँह छुपाने और सद्भाव के शाब्दिक जाल में फंसा कर गुलामी की ओर ढकेलने का षड्यंत्र रचने वाले धूर्तों का मायाजाल तोड़ने का माध्यम ये कहानियां ही हैं। यह पुस्तकों पर उतरे, पर्दे पर उतरे या बैठकी में कही सुनी जाय, पर चर्चा होती रहनी चाहिये। इन कथाओं पर समय की धूल नहीं पड़नी चाहिये।
मैं सोचता हूँ, जिन कहानियों को पढ़ते सुनते हम कॉंप उठते हैं, उसे एक लम्बे कालखंड तक पुरुखों ने भोगा है। सिकन्दर से अब्दाली तक हर बार क्रूरता की नई परिभाषाएं देखी लोगों ने, छील दिए गए चमड़े के ऊपर नमक का लेप स्वीकार किया, रस्सियों में बंध कर पशुवत जीवन स्वीकार किया, पर स्वाभिमान त्यागना स्वीकार नहीं किया। हजार बार जीवन त्यागा, पर धर्म नहीं त्यागा… छावा की कहानी उन लाखों करोड़ों गुमनाम स्वाभिमानी योद्धाओं की प्रतिनिधि कहानी भर है। ऐसी हर कहानी, हर बार अपने पुरुखों के प्रति कृतज्ञता से भर देती है…
ऐसी फिल्में जब आएं तो देखिये, अपने बच्चों को दिखाइए। सिनेमा इंडस्ट्री पर भरोसा न हो, तब भी… फिल्म देखना पसंद न हो, तब भी… औषधि के रूप में मधुमक्खियों की उल्टी भी खाई जाती है…
साभार:सर्वेश कुमार तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार ।