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जाति और भारत की अर्थव्यवस्था

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
अंग्रेज़ों के आगमन से पूर्व संसार की अर्थव्यवस्था मे भारत का योगदान लगभग 23% था और यह लगातार 1700 वर्षों तक विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनी रही । जब अंग्रेज़ वापस गये तो विश्व में भारतीय अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग ३% बचा था ।

भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान यहाँ की जाति व्यवस्था का था । कोई भी नगर और ग्राम ऐसा नहीं था तो आत्मनिर्भर न हो ।
अरबी शब्दकोश मे हिन्दी शब्द का अर्थ होता है हिन्द की बनी हुई इस्पात की तलवार । क़ुतुब मीनार के प्रांगण में लगा हुआ लौह स्तंभ हमारी उन्नत सभ्यता का गौरवपूर्ण प्रतीक है । हमारे जुलाहे जो ढाका की विश्वप्रसिद्ध मलमल बुनते थे जिसके बारे में कहा जाता है कि उसका थान अंगूठी में से निकल जाता था ।

विभिन्न क्षेत्रों में कला और हुनर का जो विकास हुआ वह पीढ़ी दर पीढ़ी संजो कर जातियों ने अपने पास रखा । हुनर आदमी के रोज़गार की गारंटी होता है । भारत में एक भी ऐसी जाति नहीं थी जो किसी उत्पादक रोज़गार से संबद्ध न हो । ब्राह्मणों के जिम्मे समाज के सदियों से अर्जित ज्ञान को संजो कर रखने और नई पीढ़ी को सुरक्षित सौंपने का कार्य था तो क्षत्रिय के जिम्मे समाज की रक्षा का कार्य था ।

यह जातियाँ किसी ने बनाई हों ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है वर्ण व्यवस्था का उल्लेख अवश्य है किंतु जाति व्यवस्था एक तरह से डारविन के विकासवाद का अनुसरण करती दिखती है । चंद्रगुप्त मौर्य के विषय में इतिहासकारों का मत है कि वह वृषल अर्थात् शूद्र थे । शिवाजी और मराठा समुदाय भी समाज के निम्नवर्ग से ही आते थे लेकिन इन्होंने अपने कौशल के बल पर अपने लिये समाज में उच्च वर्ग हासिल किया । हज़ारों वर्षों के इतिहास में समाज की आवश्यकता के अनुरूप समाज जातियों का सृजन करता रहा ।

एक समय था जब लिपि का आविष्कार भी नहीं हुआ था और श्रुतियों का युग था तब कायस्थ नहीं थे । कायस्थ कलम दवात की पूजा करने वाली जाति है जो लिखने के आविष्कार के साथ ही समाज में उत्पन्न हुई । शिल्पकारों ने बड़े बड़े विशाल मंदिरों और भवनों का सृजन किया । राजस्थान में एक जाति जलधर होती है जो कूप बावड़ी और जलाशय बनाने में कुशल होती है ।

यह कोई लोकापवाद नहीं है कि अंग्रेज़ों ने बंगाल के जुलाहों के अंगूठे कटवा दिये , भारत में उत्पादित वस्तुओं पर इतना अधिक कर लगा दिये गये कि निर्यात असंभव हो गया । ज़मींदारी प्रथा ने कृषक को दरिद्र बना दिया । लॉर्ड कॉर्नवालिस के समय जमींदारों पर कर की दर अनुमानित उत्पादन पर ८०% तक थी जो मुगल काल से चार गुना अधिक थी । कृषक के पास एक धोती और खुरपी के सिवा कोई पूँजी शेष नहीं रह गई थी ।
आज भी भारत एक कृषि प्रधान देश है । कृषि विफल हो जाने भर से सारी अर्थव्यवस्था फेल हो जाती है । कम्पनी राज में जब हमारा अन्नदाता दरिद्र हो गया तो अन्य जातियों की दुर्दशा की कल्पना ही की जा सकती है। न शिल्पकारों के लिये काम रह गया न मोचियों के लिये न बुनकरों के लिये ।

चंपारन आंदोलन निलहे किसानों की पीड़ा की अभिव्यक्ति थी जिसे गाँधी ने एक देशव्यापी आंदोलन का रूप दे दिया । चरखा आर्थिक स्वालंबन का प्रतीक बन गया ! अंग्रेजी राज ने भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर दिया । आज आप प्रधानमंत्री की डिग्री से उसकी योग्यता नापते हैं मगर भारत के महान स्मारकों चाहे वह ताजमहल हो, खजुराहो हो या एलोरा का कैलाश मंदिर इनका निर्माण बिना डिग्री धारक इंजीनियरों ने ही किया था । और निर्माण की यह कला पुश्त दर पुश्त संरक्षित चली आ रही थी ।

आज भारत की कभी अति समृद्ध जातियाँ सुनार, लुहार, खटिक, हलवाई आदि अगर पिछड़ गई हैं तो यह परतंत्रता का दोष है । अहीर जैसी पशुपालन पर आधारित जाति भी पिछड़ी हो गई यह भारत का दुर्भाग्य ही है ।

जातियों ने देश का बहुत सदियों तक साथ निभाया , अब इनके विदा होने का समय आ गया है ।

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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