लेकिन गांधी को राष्ट्रपिता का ख़िताब तो नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने ही दिया है
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
यह सही है कि गांधी और नेता जी सुभाष चंद्र बोस के बीच गहरे मतभेद थे। पर नेता जी गांधी का आदर भी बहुत करते थे। गांधी के तमाम निंदकों सहित कंगना रानावत जैसी अभिनेत्रियों को यह बात ज़रुर जान लेनी चाहिए कि गांधी को महात्मा का ख़िताब रवींद्रनाथ टैगोर ने दिया था पर गांधी को राष्ट्रपिता का ख़िताब नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने दिया था। रही बात आज़ादी की तो 1977 में जब इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को हटा कर जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो कहा गया था कि यह दूसरी आज़ादी है। इस दूसरी आज़ादी के नेतृत्व का श्रेय जय प्रकाश नारायण को दिया गया था। बल्कि 1978 में बाक़ायदा इस दूसरी आज़ादी की पहली वर्षगांठ भी मनाई गई थी। मुझे याद है उन दिनों मैं कविताएं बड़े-ज़ोर से लिखा करता था। तो पहली और संभवत: आख़िरी बार एक मशहूर फ़िल्मी गीत छुप-छुप खड़े हो ज़रुर कोई बात है की धुन पर एक पैरोडी गीत भी लिखा था :
दूसरी आज़ादी की ये पहली वर्षगांठ है
जी पहली वर्षगांठ है
हम भी मिले तुम भी मिले
फिर भी दिल में गांठ है
जी पहली वर्षगांठ है
आगे की पंक्तियां अभी याद नहीं आ रहीं। मित्रों के बीच और कवि सम्मेलनों में मैं इसे गा कर पढ़ता था। जनता पार्टी से जुड़े लोग नाराज भी होते थे। पर तब असहमति की गुंजाइश बहुत थी समाज में। आज की तरह इतनी नफ़रत और घृणा नहीं थी लोगों में। अलग बात है इस दूसरी आज़ादी की वर्षगांठ आगे और मनाने की नौबत ही नहीं आई। 1979 में ही जनता सरकार अपने ही झगड़ों में उलझ कर गिर गई। यह बात मैं ने पहले ही महसूस कर लिया था , तभी लिखा था : हम भी मिले तुम भी मिले / फिर भी दिल में गांठ है। तो अगर कंगना को पहले की आज़ादी से असंतोष था तो वह इस मई , 2014 में मोदी सरकार की आमद को तीसरी आज़ादी भी बता सकती थीं। तो शायद कोई बुरा नहीं मानता। न इतना बखेड़ा खड़ा होता।
सच तो यह है कि अगस्त 1947 में देश को सिर्फ़ राजनीतिक आज़ादी ही मिली। देश को आर्थिक और सामाजिक आज़ादी मिलनी अभी भी शेष है। देखें यह कब मिलती है। बाक़ी नसीरुद्दीन शाह , शाहरुख़ ख़ान , आमिर ख़ान जैसों चुके हुए अभिनेताओं की तरह कंगना रानावत को ख़बरों में बने रहने के लिए ऐसी बेहूदा और निरर्थक बयानबाजी से भरसक परहेज़ करना चाहिए। विवादित बयान देने की जगह अभिनय पर ही ध्यान देना चाहिए। फ़िल्मों से , अभिनय से जो ऊब गई हों तो शादी वादी कर के घर बसा लेना चाहिए। अच्छी भली अभिनेत्री हैं। अपनी पहचान और चर्चा का विषय फ़िल्मों में ही , अपने अभिनय में ही तलाश करना चाहिए। फ़ालतू की शोशेबाज़ी में कुछ नहीं रखा।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)