Positive India:Diwakar Muktibodh:
लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में सात मई को छत्तीसगढ़ के सात निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान के साथ ही राज्य की सभी 11 सीटों पर प्रत्याशियों का भाग्य इवीएम मशीनों में कैद हो चुका है. अब नतीजों की प्रतीक्षा है जो चार जून को मतगणना के साथ ही सामने आ जाएंगे. इन 11 सीटों में से जिन पांच पर परिणाम जानने की बेताबी है वे हैं- राजनांदगांव, महासमुंद, कांकेर, कोरबा तथा जांजगीर-चांपा. ये सभी हाई-प्रोफाइल सीटें हैं फिर भी राजनांदगांव, महासमुंद व कोरबा के मामले में जिज्ञासा चरम पर है. वजह है पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राजनांदगांव से, पूर्व गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू ने महासमुंद से तथा वर्तमान सांसद ज्योत्स्ना महंत ने कोरबा से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा है. बाकी दो,कांकेर व जांजगीर-चांपा इसलिए चर्चा में हैं क्योंकि यहां पिछले चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा है.
कांकेर से कांग्रेस के बीरेश ठाकुर 2019 का लोकसभा चुनाव महज 6914 वोटों से हार गए थे. इस बार भी कांग्रेस ने उन्हीं पर भरोसा जताया है. जांजगीर-चांपा क्षेत्र कांग्रेस प्रत्याशी व पूर्व मंत्री शिव कुमार डहरिया से कहीं अधिक इस वजह से चर्चा में हैं क्योंकि 2023 के विधानसभा चुनाव में इस संसदीय सीट की सभी आठ सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. अब लोकसभा चुनाव परिणामों से पता चल जाएगा कि कांग्रेस के इन विधायकों ने अपने प्रत्याशी को जीत दिलाने और पार्टी के प्रति मतदाताओं का विश्वास पुनः अर्जित करने के लिए प्रतिबद्धता के साथ काम किया अथवा नहीं .
इन पांच के अलावा शेष छह सीटें- दुर्ग,बिलासपुर,रायगढ़,सरगुजा,बस्तर व रायपुर के बारे में यह मानकर चला जा रहा है कि इनमें भाजपा का वर्चस्व कायम रहेगा हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में वह बस्तर सीट हार गई थी. वर्तमान में 11 में से 9 सीटें भाजपा के पास है.
दरअसल वर्ष 2000 में नये बने पृथक छत्तीसगढ़ में अब तक हुए चारों आम चुनावों में भाजपा का दबदबा रहा है . और अब, जब भाजपा ने देशभर में 370 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है तो उसे छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीटें चाहिए. किंतु कांग्रेस ने तमाम दिक्कतों के बावजूद हाई-प्रोफाइल सीटों पर उसकी जिस तरह घेरेबंदी की थी,उसे देखते हुए यह सोचना कठिन है कि भाजपा का संकल्प पूरा हो पाएगा.अलबत्ता कांग्रेस यदि अपनी दोनों सीटें बचा पाई अथवा नयी सीटें हासिल कर पाई तो यह उसकी उपलब्धि होगी.
रायपुर लोकसभा क्षेत्र भी भाजपा का अभेद्य गढ़ है. इस बार भी उसके ध्वस्त होने की किंचित भी संभावना नहीं है. राज्य की राजधानी होने के नाते यह सीट भी हाई-प्रोफाइल है लेकिन अब यहां चर्चा इस सवाल पर है कि आठ बार के विधायक व वर्षों प्रदेश भाजपा सरकार में मंत्री रहे बृजमोहन अग्रवाल की राजनीति की दिशा क्या होगी? सांसद के रूप में निर्वाचित होने के बाद केन्द्र के नये मंत्रिमंडल में ,जो बहुत संभव है प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही गठित होगा, भाजपा के इस कद्दावर नेता को स्थान मिल पाएगा अथवा नहीं ? क्या मोदी 2003 की उस घटना को भूल जाएंगे जब राज्य विधान सभा के नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के लिए वे पर्यवेक्षक बनकर रायपुर आए थे. और तब उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था ? क्या वे भूल सकते हैं कि बृजमोहन के न चुने जाने पर उनके समर्थकों ने कितना उपद्रव किया था ? भाजपा कार्यालय के भीतर व बाहर तोडफोड की, हंगामा खड़ा किया, वाहन जला दिए तथा खुद मोदी को अपना बचाव करना पड़ा था. एक अनुशासित पार्टी की छवि इस अप्रत्याशित घटना से मलिन हुई थी. बीस वर्ष पूर्व की यह घटना बृजमोहन की राजनीति में एक ऐसे दाग की तरह है जिसे कम से कम मोदी जैसी प्रकृति के लोग कभी नहीं भूल सकते.
लिहाज़ा बृजमोहन को केन्द्रीय सरकार में स्थान मिलने की संभावना न्यूनतम है. कुछ कारण और भी हैं जो इस संभावना को पीछे ढकेलते हैं. मसलन केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार रही हो या मोदी की,सीटों के अनुपात के आधार पर छत्तीसगढ़ के इक्का-दुक्का सासंदों को प्रतिनिधित्व मिलता रहा. रमेश बैस पिछड़े वर्ग से थे तो सामान्य वर्ग से डाक्टर रमनसिंह तथा स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव को अटल सरकार में स्थान मिला था .
वर्तमान मुख्यमंत्री विष्णुदेव देव साय तथा रेणुका सिंह भी अलग-अलग कार्यकाल में केन्द्रीय मंत्रिमंडल में आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. चूंकि छत्तीसगढ़ की नयी सरकार में जाति व वर्ग का कोटा पूरा कर दिया गया है इसलिए अब संभव है केन्द्रीय सरकार में सामान्य वर्ग से किसी को मौका मिले चाहे वह महिला सांसद ही क्यों न हो. फिर भी बीती घटना को देखते हुए यह मानकर चलें कि बृजमोहन अग्रवाल के लिए अंगूर खट्टे ही रहेंगे. चार जून के बाद केन्द्र में नयी सरकार की स्थिति स्पष्ट होगी और तब यह चर्चा भी तेज हो जाएगी कि छत्तीसगढ़ से कौन? जवाब जो भी आएगा, इसके पूर्व इस सत्य को ध्यान में रखना होगा कि राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही दुश्मन.
यह तय है ,विष्णुदेव साय सरकार में वरिष्ठ मंत्री व रायपुर दक्षिण के विधायक बृजमोहन अग्रवाल का सांसद के रूप में प्रदेश की राजनीति में अब सीमित दखल रह पाएगा. हालांकि वे कहते रहे हैं कि भूमिका बदलने से उनके राजनीतिक कामकाज पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा तथा वे राज्य की जनता की सेवा वैसी ही करेंगे जैसे कि अब तक सरकार में मंत्री रहते हुए करते रहे हैं . पर यह खुद को दिलासा देने वाली बात है. हकीकत यह है कि नयों के लिए रास्ता साफ करने के लिए उन्हें फिलहाल प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया गया है. इस तथ्य को समझते हुए दिल से न तो वे खुश नज़र आते हैं और न ही उनके समर्थक. यह स्वाभाविक है. यहां लाख टके का सवाल है, प्रदेश सरकार में मंत्री पद छोड़कर कौन व्यक्ति सांसद बनना चाहेगा ? लेकिन पार्टी अनुशासन से बंधे बृजमोहन की यह मजबूरी है. बहरहाल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका क्या रहेगी, यह संगठन तय करेगा. संगठन का मतलब है – मोदी-शाह की जोड़ी और इस जोड़ी के तेवर कैसे हैं , यह बृजमोहन से अधिक कौन जान सकता है?
साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)