Positive India:रायपुर:
भारतीय सिनेमा के निर्देशन क्षेत्र में कदम रखने वाली महिलायें यक़ीनन अलग ही मिज़ाज ,सशक्त और किसी भी विषय पर गहराई से उतरने वाली होंगी। ना जाने उन्हें इस पुरुषसत्ता में अतिक्रमण करने पर कितनी जिल्लतों का सामना करना पड़ता होगा। आज महिलायें इस क्षेत्र में पूरे आत्मविश्वास और दम के साथ उतरी हैं,लीक से अलग हटकर ,पूरे पुरुष समाज को चुनौती दे रही हैं। पुरषों को निर्देशन मै कड़ी चुनौती देती महिलाएं ऐसे ज्वलंत विषयों को उजागर कर पीछे छोड रही है
मीरा नायर की”सलाम बाम्बे” की तरह कोठों मे पलती मासूम बच्चियों का बचपन किस तरह कली के विकसित होने से पहले फूल बनाने की कोशीश की जाती है या दीपा मेहता की
“फ़ायर” में समलैंगिक संबंधों की भयावहता को उजागर करती हुई फिल्में इसका उदाहरण हैं।“वाटर” में बनारस की असहाय विधवाओं के दमन और प्रतिकार के विषय परदे में पेश करने पर दीपा मेहता को कितने विरोधों का सामना करना पड़ा था।
कल्पना लाज़मी की रुदाली में अशरीरी नायिका,डिंपल कापड़िया की आत्मा स्वयं अपनी व्यथा सुनाती है। कल्पना की ही फिल्म “दरमियाँ” तीसरे जेंडर की दुखद कथा है। जावेद अख़्तर की बेटी एवं फरहान अख़्तर की बहन जोया को अपनी पहली फिल्म बनाने में कितनी परेशानी उठाना पड़ी,शायद सात,आठ साल लग गये उबरने में।”लक बाई चांस,जिंदगी ना मिलेगी दोबारा,दिल धड़कने दो जोकि हाई सोसायटी का खोखलापन दिखाती है।उनकी नई फिल्म“गली बॉय” मैंने देखी नहीं है पर रिपोर्ट काफ़ी अच्छी आ रही है।गौरी शिंदे की“इंग्लिश विंगलिश”में टाइप्ड नितांत ही घरेलु महिला को अपने ही पति और बेटी से बात बात पर अंग्रेज़ी ना जानने की वजह से बार बार अपमानित होना पड़ता है।उसकी मनो व्यथा को एक महिला निर्देशिका ही सफलता पूर्वक परदे पर उतार सकती है। इसी कड़ी मे मेघना गुलज़ार की”राज़ी” बेहतरीन फिल्म बनी ।कहने का तात्पर्य यह है कि फिल्मनिर्देशन के क्षेत्र में महिलाएं अपना उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं,जो सराहनीय है।
लेखिका :नीलिमा मिश्रा
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