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भारत में सार्वजनिक-विमर्श स्पष्टतया हिन्दुत्व और ग़ैर-हिन्दुत्व खेमों में क्यों बट चुका है?

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संघर्ष भारत में आज लगभग हर लोकप्रिय-विमर्श के पीछे हहराता हुआ चल रहा है। यह घोर द्वैतमूलक है और विचार-प्रक्रियाओं का तीखा ध्रुवीकरण करने वाला है। विषय चाहे खेल का हो, संस्कृति का हो, राजनीति का हो या विदेश-सम्बंध का- अगर गहराई में उत्खनन करेंगे तो उसके पीछे आपको यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संघर्ष ही मिलेगा।

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देश का सार्वजनिक-विमर्श आज स्पष्टतया दो खेमों में बँट चुका है- हिन्दुत्व और ग़ैर-हिन्दुत्व। आप कहेंगे, हिन्दुत्व का प्रश्न सांस्कृतिक है या हद से हद राजनैतिक है। इसका खेल या विज्ञान या सिनेमा जैसे ग़ैर-राजनैतिक विमर्श से क्या लेना-देना। जी नहीं, बहुत गहरा लेना-देना है।

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दुनिया का हर देश ओलिम्पिक में अपने दल को इस उम्मीद से भेजता है कि वह अधिक से अधिक पदक जीतेगा। पदक खिलाड़ियों द्वारा अपने योगक्षेम से अर्जित किए जाते हैं, किन्तु उससे उसके देश के सभी जन गर्व महसूस करते हैं। किन्तु भारत के परिप्रेक्ष्य में यह केवल यहीं तक सीमित नहीं है। भारत में इसके साथ राजनैतिक परिप्रेक्ष्य भी नत्थी हो जाता है और राजनैतिक रूप से घोर-ध्रुवीकृत लोकवृत्त उस पर अपने परिप्रेक्ष्य से टिप्पणी करता है।

महिला पहलवान ने फ़ाइनल में जगह बनाकर पदक पक्का किया, इसमें केवल राष्ट्रीय गौरव की ख़ुशी ही निहित नहीं थी। महिला पहलवान ने मोदी की पार्टी के एक नेता के विरुद्ध आन्दोलन किया था और उसकी जीत परोक्ष रूप से मोदी की पार्टी की हार है- ख़ुशी इस बात की भी थी। मोदी की पार्टी इतनी बुरी क्यों है? क्योंकि वह हिन्दुत्व की राजनीति करती है।

जो हिन्दुत्व की राजनीति का विरोध करते हैं- मुख्यत: दलित, अल्पसंख्यक, नारीवादियाँ, अनार्य- वे महिला पहलवान की जीत के बहाने हिन्दुत्व की प्रतीकात्मक हार से अधिक प्रसन्न थे।

जो हिन्दुत्व की राजनीति का समर्थन करते हैं- मुख्यत: उत्तर-भारतीय सवर्ण और मध्यवर्गीय जन- वो थोड़ी दुविधा की स्थिति में थे। वो इस बात से तो हर्षित थे कि भारत की झोली में पदक आएगा और यह उनके लिए राष्ट्रीय गौरव का विषय होगा (क्योंकि हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद में चोली-दामन का साथ है), लेकिन वो इस बात से बेचैन भी थे कि पहलवान की जीत का जश्न हिन्दुत्व-विरोधियों के द्वारा ज़ोर-शोर से मनाया जाएगा और इस बहाने से उनके प्रिय नेता का उपहास किया जाएगा। कहा जाएगा और कहा जा ही रहा था कि पदक जीतने पर नेता किस मुँह से फ़ोन करके बधाई देगा?

कहना न होगा कि जब पहलवान को फ़ाइनल मुक़ाबले के लिए अमान्य घोषित किया गया तो हिन्दुत्व का समर्थन करने वाले एक बड़े वर्ग ने मन ही मन राहत की साँस ली, यह जानते हुए कि उनके देश से एक पदक जीतने का मौक़ा छिन गया है।

इसीलिए मैंने इसे सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक संघर्ष कहा है, क्योंकि यह सीधा-सरल नहीं है। यह अब बहुत जटिल हो गया है और घात-प्रतिघात से भरा है। किन्तु यहाँ पर प्रश्न यह है कि इस संघर्ष का आधार-बिंदु हिन्दुत्व ही क्यों है? लड़ाई हिन्दुत्व और ग़ैर-हिन्दुत्व ताक़तों के बीच क्यों चल रही है?

आप कहेंगे, क्योंकि हिन्दुत्व एक बहुत ही रिग्रेसिव विचारधारा है। किन्तु रिग्रेसिव विचारधारा तो इस्लाम भी है। वैसी स्थिति में टकराव का रेफ़रेंस-पॉइंट प्रो-इस्लाम बनाम एंटी-इस्लाम क्यों नहीं है (जो कि वास्तव में वह है, किन्तु वह मुख्यधारा द्वारा स्वीकृत नहीं है। मुख्यधारा एंटी-हिन्दुत्व के फेर में प्रो-इस्लाम हो चुकी है और इस बात की शायद उसे अभी पूरी तरह से ख़बर नहीं है और अगर ख़बर हो भी तो वो इस पर विचार नहीं करना चाहेगी)।

तो निष्कर्ष यह है कि ऊपर से जितने भी विमर्श आपको सोशल-मीडिया पर दिखलाई देते हों, चाहे उनका सम्बंध वीगनवाद से हो, फिल्म से हो, खेल से हो, राजनीति से हो, संस्कृति से हो, विदेश में होने वाली घटनाओं से हो- उनके प्रति चर्चाओं का अलाइनमेंट मुख्यतया दो ही खेमों में होगा- हिन्दुत्व विरोधी (और इसलिए इस्लाम-समर्थक) और हिन्दुत्व-समर्थक (और इसलिए इस्लाम-विरोधी)! कुछ बहुत अल्पसंख्यक ऐसे भी हैं, जो हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों के ही समान रूप से विरोधी होंगे। किन्तु वे खोजे से नहीं मिलेंगे।

प्रश्न यही है कि अगर वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद, पितृसत्ता, मनुवाद के कारण हिन्दुत्व एक रिग्रेसिव विचारधारा है और उस विचारधारा का पोषण करने वाली राजनैतिक पार्टी त्याज्य है और उसकी किसी भी तरह की हार ग़ैर-हिन्दुत्व वालों की मनोवैज्ञानिक जीत है तो लोकतंत्र, समावेश, विचारों की आज़ादी, सहिष्णुता, स्त्री-स्वतंत्रता, ​वैज्ञानिक-विचारधारा का विरोधी इस्लाम रिग्रेसिव होने के कारण उतना ही त्याज्य क्यों नहीं है और इस्लाम का तुष्टीकरण करने वाली राजनीति को हिन्दुत्व का तुष्टीकरण करने वाली राजनीति की तरह घृणित क्यों नहीं समझा जाता?

समाज में चाहे जो विमर्श चल रहा हो, उसके भीतर झाँककर देखें तो आपको अपने-अपने खेमों की सरहदें खींचे बैठे लोगों की यही वैचारिक-बेईमान नज़र आएगी।

Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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