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बस्तर वासियों! हम एक हैं:कनक तिवारी

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Tribals of Chhattisgarh.Image:visitcg.in
Positive India:Kanak Tiwari:
आदिवासी शोषण, कुपोषण, प्रदूषण से जूझ रहे हैं। पुलिस के कुछ अधिकारी आदिवासी की गाय, बकरी, मुर्गी और मां, बहन, बेटी को शोषण और हविश का शिकार बनाने में मशगूल रहे। गैर आदिवासी आबादी इतनी तेजी से बढ़ी कि कुछ विधानसभा क्षेत्रों को अनारक्षित करने की मांग उठने लगी। आरक्षण की नीति से लाभ उठाकर जो मलाईदार आदिवासी नेता सपरिवार पनपे, वे उद्योगपतियों और ठेकेदारों के दरबारी बनकर कोर्निश बजाते रहे। नौकरशाही भारत में व्यवस्था की स्थायी दलाली का हमनाम बनती गई है। राज्य के निजी क्षेत्र के अधिकांश बड़े बड़े कारखाने उन भूमियों पर काबिज हैं जिन्हें या तो कानूनन खरीदा नहीं जा सकता था अथवा उनका नियमों के अनुसार व्यपवर्तन नहीं कराया गया है। सरकार फिर भी खामोश है। राज्य के आर्थिक स्त्रोतों पर कुछ बाहरी राजनीतिक परिवारों का खुले आम कब्जा है। आदिवासियों के लिए पर्याप्त नौकरियों की गारंटी तक नहीं है। नए राज्य का निर्माण का वार्षिक उल्लास पर्व अवसाद पर्व की तरह याद किया जाता रहा। छत्तीसगढ़ के निवासियों की उम्मीदें कांच के बर्तनों की तरह न केवल टूट गई हैं, बल्कि कांच के टुकड़े उन्हें गड़ रहे हैं।
पर्यटन के नाम पर छत्तीसगढ़ के स्वर्ग रहे बस्तर में अफसरों और मंत्रियों की धींगा मस्ती होती है। स्थानीय कलाकारों को बरायनाम फीस और मंत्रियों के संस्कृति उन्नायक रिश्तेदार सरकारी अनुदान प्राप्त कर घपले कर गए। छत्तीसगढ़ में वैमनस्य और हिंसक तनाव का सामाजिक लक्षण नहीं रहा है। संकुल प्रदेशों के लोग यहां आकर बस गए हैं।ये लोग उद्योग, व्यापार, सरकारी नौकरियों और राजनीति में छा गए हैं। अद्भुत आदिवासी संस्कृति का बस्तर जैसा इलाका उनके हत्थे चढ़ गया है। छत्तीसगढ़ सरकार घटिया बौद्धिक प्रकाशन करती रहती है। छत्तीसगढ़ दुनिया को आदिवासियों का प्रदेश लगता है। प्राण केन्द्र बस्तर,जशपुर और सरगुजा हैं। बस्तर सभ्य दुनिया के लिए अबूझमाड़, चित्रकोट जलप्रपात, कुटुमसर गुफाओं, घोटुल, करमा नृत्य और कच्ची शराब पीकर उन्मत्त होते आदिवासी जीवन के लिए प्रचारित किया जाता है। कमोबेश सरगुजा भी। बस्तर के पूर्व शासक आंध्रप्रदेश से ही आए थे। सरगुजा पर मगध संस्कृति का असर है। आदिवासियों के जिस्म में पेट भी है-यह बात शायद सत्ताधीश जानबूझकर भूलते हैं। आदिवासी प्रकृति से सीधे संपर्क में रहने के कारण शहरी जुमले में अधनंगे रहते हैं। लेकिन जीवन की कला होती है। शहरी सभ्यता उन अधनंगे शरीरों में वासना और कामुकता ढूंढ़कर विश्व बाजार में फोटो,फिल्मों और नुमाइशों में बेचती रहती है। घोटुल जैसी प्रथा की कल्पना तो फ्रायड ने भी नहीं की होगी। महान मानवीय गरिमा की कुंठारहित परंपरा को हरम की शकल में देखा जाने लगा।

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तुर्रा यह कि आदिवासी को कंद मूल, फल, जड़ें, पत्ते, पशु पक्षी और कीड़े मकोड़े वगैरह खाने की आदतें हैं। उसे खाना पकाने की गैस की सब्सिडाइज्ड दरों पर क्या जरूरत है? आदिवासी बीमार पड़ने पर घरेलू इलाज कर लेते हैं। अस्पताल खोलने की क्या जरूरत है? आदिवासी अधनंगे रहने के आदी हैं। सब्सिडाइज्ड दरों पर कपड़े और कंबल देने की क्या जरूरत है? महुआ वगैरह से शराब बनाने की आदिवासियों की प्रथा की कमर तोड़ दी गई है। जंगलों से भोज्य पदार्थ बीनने पर पाबंदी होती है। वे निरक्षर हैं। हैरत है दूसरों द्वारा लिखे और उनके अंगूठे लगे शपथ पत्रों को अदालतें गीता और कुरान की तरह सच मानती हैं। सरकारी, दरबारी, सहकारी और व्यापारी मकान बन रहे हैं। आदिवासियों के घर टूट रहे हैं। गायब हो रहे हैं। हजारों विस्थापित आदिवासी युद्धबंदियों या शरणार्थियों की तरह बंधुआ मजदूरों के चेहरे लिए सलवा जुडूम के शिविरों में अभिशप्त भी हुए हैं। इतिहासकार इसको भी विकास की इक्कीसवीं सदी कह लेते हैं। मीडिया आजकल लिखता कम है बोलता ज्यादा है। वह कैमरे को कलम पर तरजीह देता है। आदिवासी अपनी बनावट में दब्बू, विनयशील और स्वाभिमानी होते हैं। सरकार की बस्तर वेबसाइट के अनुसार गोंड़ जाति को अधिक संतानोत्पत्ति करने वाला, भाई तथा बहन में शादी करने वाला और मुड़ियाओं को दवा के बदले महुआ की शराब पीने वाला चित्रित किया गया। अबूझमाड़ियों और बैगाओं को सफाई की आदतों के विरुद्ध प्रचारित किया जाता रहा है।

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विश्व की इस श्रेष्ठ आदिवासी संस्कृति पर केवल खलनायकों ने प्रहार नहीं किया। ग्रियर्सन, फादर वेरियर एल्विन, नरोन्हा और ब्रम्हदेव शर्मा जैसे शासक, विचारक और संस्कृतिकर्मी हुए उन्होंने बस्तर की संस्कृति को बचाने और अभिवृद्धि करने की पुरजोर कोशिषें की। नारायणपुर के रामकृष्ण मिशन का स्कूल संस्था नहीं, सांस्कृतिक घटना है। शानी, मेहरुन्निसा परवेज़, किरीट दोषी, लाला जगदलपुरी, सुंदरलाल त्रिपाठी, बसंत अवस्थी जैसे लेखक और पत्रकारों ने अपने सीमित साधनों के बावजूद बस्तर का बहुआयामी चित्रण किया। सभी विधायक और मंत्री संवेदनहीन नहीं होते। खलनायकी का इतना रिहर्सल हुआ है कि बस्तर के पीठ पर छुरा मारने का खुला विश्वविद्यालय कहा जा सकता है। प्रवीरचंद्र भंजदेव ने कुछ नहीं किया था कि पुलिसिया वध किया जाता। अरविंद नेताम ने छठी अनुसूची को लागू करने की मांग कर गुनाह नहीं किया था कि उन पर हमले किए जाते। ब्रम्हदेव शर्मा ने औद्योगीकरण के बरक्स आदिवासी अधिकारों की वकालत की थी। उन्हें जूतों की माला पहनाकर सरेआम निर्वस्त्र किया जाकर जगदलपुर की सड़कों पर घुमाने से औद्योगिक फासीवाद का खूंखार चेहरा आज भी टर्राता नज़र आता है।

नई राजधानी में चार पांच लाख रुपये एकड़ की दर से किसानों की फसली जमीन को जबरिया अधिग्रहण या खरीदी के जरिए ले लिया गया। उन्हें सौ गुना मुनाफा कमाने के लिए बिल्डरों को सौंप दिया गया ताकि वे भवनों, दूकानों और कार्यालयों के अतिरिक्त गोल्फ कोर्स भी बनाएं। राज्य की समझ है इस कारण भी छत्तीसगढ़ में तेजी से तथाकथित विकास हो रहा है। विकास वह ग्लेशियर है जिसका केवल दसवां हिस्सा जनता को दिखाई देता है। नौ हिस्से ठेकेदारों नौकरशाहों और राजनेताओं की तिकड़ी में फंसकर उनकी आंतों में बैठे रहते हैं।

साभार:कनक तिवारी(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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