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“बस्तर जल रहा है”-कनक तिवारी-भाग-3

लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट

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Positive India: By Kanak Tiwari:
इस मनोवैज्ञानिक ऐतिहासिक, भौगोलिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में बस्तर में नक्सलियों ने अपने पैर पसारे और अब सरकारों के पैर उखाड़ने का उनका दुस्साहस है। इसमें कहां शक है कि नक्सली हिंसा का विचार हर तरह से कुचल दिया जाना चाहिए। लेकिन हर तरह का अर्थ केवल गोला बारूद, सुरक्षा बल, सेना या ग्रीन हंट नहीं है। सरकारें अपनी नाकामी को छिपाने के लिए किसी नए भूत को पैदा नहीं करें तो अच्छा है। यह ज्यादा खतरनाक है कि बस्तर में आदिवासियों से सब कुछ छीन लेने के बाद अब उनके पैरों तले की जमीन खिसकाई जाती रही है। वहां टाटा और एस्सार सहित बड़े स्टील कारखाने आदिवासियों की जमीनें जबरिया छीनकर लगाए जा रहे थे। टाटा का दुस्साहस तो यहां तक था कि उसने राज्य शासन की पुनर्वास नीति के बरक्स अपनी पुनर्वास नीति जारी की है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट वह पुण्य स्थली है जहां टाटा और एस्सार द्वारा आदिवासियों की जमीनों को सरकारी मदद से हड़पने के कथित आरोप वाली जनहित याचिका की सुनवाई उस दिन हो गई जिस दिन हाईकोर्ट के सारे वकील हड़ताल पर थे। भले ही दूसरे मुकदमों की सुनवाई नहीं हुई थी। बस्तर में पुलिसिया एनकांटर और तरह तरह के जुल्मों को लेकर जितनी भी जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में लंबित हैं यदि उनका निराकरण जल्दी हो जाता तो न्यायपालिका को नक्सलवाद को हल करने के लिए बड़ा प्रतिभागी समझा जा सकता था। छत्तीसगढ़ में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अनिल अग्रवाल की स्टरलाइट कंपनी ने औने पौने में बाल्को कारखाना खरीदकर आरोपों के अनुसार सैकड़ों एकड़ सरकारी भूमि पर कब्जा कर हजारों पेड़ कटवा दिए हैं। सरकार विधानसभा में अभियुक्त भाव से यह स्वीकार कर चुकी है। कोरबा और रायगढ़ जिलों को राजनीतिक रसूखदारों के राजनीतिक वंशज प्रदूषण और नाजायज कब्जों के जरिए तबाह कर रहे हैं। सरकार है आदिवासियों से सुन रही है कि वे जी तो रहे हैं पर मनुष्य ही नहीं रहे। मुक्तिबोध ने अपनी भयानक कविता ‘अंधेरे में‘ जिस भयावहता का अंतिम ड्राफ्ट छत्तीसगढ़ में बैठकर तैयार किया था, वह छत्तीसगढ़ में ज्यादा सच हो रहा है।

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छत्तीसगढ़ में लगभग 40-50 वर्षों में पला बढ़ा नक्सली आंदोलन अब बौद्धिक-राजनीतिक कम लेकिन यौद्धिक तेवर का ज़्यादा दिखाई देता है। माओ और लेनिन ने यथासम्भव सुशिक्षित जनता की भागीदारी के बगैर जन आंदोलन का कभी समर्थन नहीं किया। माओ ने सदैव कहा कि जनता में क्रांति का आशय बुनियादी और अंतिम तौर पर जनता के राजनीतिक शिक्षण से है। ऐसा कोई आंदोलन नहीं हो सकता जिसमें जनता को गुलाम समझे जाने की परिकल्पना हो। इसी तरह भारतीय कम्युनिस्टों के एक शिष्ट मंडल से लेनिन ने साफ कहा था कि भारतीय स्वाधीनता के आंदोलन में कम्युनिस्टों को प्रतिभागिता करनी चाहिए और धीरे धीरे आंदोलन से बुर्जुआ नेतृत्व की छुट्टी करनी चाहिए भले ही उसका नेतृत्व गांधी जैसे कद्दावर नेता कर रहे हों। छत्तीसगढ़ का मौजूदा नक्सलवादी आंदोलन इस बात की परवाह क्या कर रहा है कि बस्तर के आदिवासियों को माओवादी आंदोलन की बौद्धिक संरचना, प्रासंगिकता और निर्विकल्पता को लेकर कोई राजनीतिक शिक्षण दिया जाए। मीडिया में नक्सलियों की ओर से भारतीय संवैधानिक गणराज्य की स्वीकृत प्रणाली के बदले चीन जैसे गणराज्य की कल्पना की पैरवी की जाती है। लेकिन क्या उसके लिए कोई जनतांत्रिक दस्तावेज, प्रदर्शनियां, विमर्श आयोजित किये जाते हैं? इतिहास को यह समझना ज़रूरी होगा कि महाराष्ट्र, आंध्र और ओडिसा जैसे प्रदेश भूगोल के उपनिवेश नहीं हैं। उनके पास सदियों पुरानी भाषाएं हैं जिन्होंने अपनी ज्यामिति की परिधि में मनुष्यता का संस्कार रचा। मातृभाषा स्कूली शिक्षण का परिणाम नहीं होती। इसलिए इन राज्यों के नक्सली नेतृत्व को माओवादी दर्शन को जनभाषा में परोसते हुए कोई सांस्कृतिक या रणनीतिक कठिनाई नहीं होती। इसके बरक्स छत्तीसगढ़ केवल एक स्थानीय भाषा, उपभाषा या बोली का एकल क्षेत्र नहीं रहा है। यह समझना ज़रूरी होगा कि गोंडी, हलबी, हल्बा, मुरिया, भटही, मारिया जैसी आदिवासी बोलियां हिन्दी के करीब ठहरती उस छत्तीसगढ़ी का अंतर्भूत अंश नहीं हैं जो इन निपट आदिवासी क्षेत्रों के बाहर लगभग कस्बाई हिस्सों की अभिव्यक्ति है। नक्सलियों ने आदिवासी बोलियों में उस विदेशी साहित्य का अनुवाद, प्रचार और शिक्षण क्या व्यापक तौर पर किया है जिससे लगभग निरक्षर आदिवासियों को उनकी मादरी जुबानों में माओवादी राजदर्शन की घुट्टी पिलाई जा सके? भारतीय संविधान में परिकल्पित लोकतंत्र हो या माओ के राजदर्शन के अनुसार स्थापित कथित कम्युनिस्ट जनवाद-उनके मूल में यही कशिश मुखर है कि शासन व्यवस्था को समर्थन देने वाले हर मतदाता को उसकी रूपरेखा की मोटी जानकारी ज़रूर हो। शिक्षा का एक फलितार्थ अक्षर ज्ञान भी तो होता है। लेकिन उसके मूल में संस्कृति से साहचर्य और तादात्म्य का ऐसा अंतर्निहित आग्रह है जिसके लिए औपचारिक अक्षर ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। नानी और दादी की कहानियां स्कूली समर्थन से नहीं उपजी हैं। नक्सलियों ने बस्तर के लाचार और निहत्थे आदिवासियों को भौतिक, सामरिक, रणनीतिक और बौद्धिक रूप से बंधक बनाकर रखा है अथवा अनुवाद के जरिए आदिवासी बोलियों के लिखित और वाचिक ज्ञानकोश को समृद्ध बनाया है-यह सवाल तो ठहरा हुआ है।
लेखक: कनक तिवारी
साभार:फेसबुक

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