असदुद्दीन ओवैसी ने संसद में ‘जय फिलिस्तीन’ ही क्यों कहा ? जय पीकेआई’ क्यों नहीं कहा ?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
असदुद्दीन ओवैसी ने संसद में ‘जय फिलिस्तीन’ कहा, यह बड़ा मसला नहीं है। बड़ा मसला यह है कि उन्होंने ‘जय फिलिस्तीन’ ही क्यों कहा, मिसाल के तौर पर, ‘जय पीकेआई’ क्यों नहीं कहा?
आप सोचेंगे यह ‘पीकेआई’ (इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी) क्या बला है? मैं बतलाता हूँ।
इंडोनेशिया न केवल दुनिया का सबसे बड़ा मुसलमान आबादी वाला मुल्क है, बल्कि 20वीं सदी का सबसे बड़ा मुस्लिमों का क़त्लेआम (जेनोसाइड) भी इंडोनेशिया में ही हुआ था। कम से कम 10 लाख मुस्लमाँ! ज़्यादा से ज़्यादा 20 या 30 लाख भी हो सकते हैं। यानी एक पूरी आबादी का सफ़ाया कर दिया गया था।
ये आबादी किन लोगों की थी? और सफ़ाया क्यों किया गया था?
शायद आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1950-60 के दशक में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी इंडोनेशिया में थी- सोवियत रूस और चीन के बाद! 1955 के चुनाव में पीकेआई (पार्ताइ कोमिनस इंदोनेशिया) के पास 20 लाख सदस्य थे और उन्होंने चुनाव में 16 प्रतिशत वोट जीते थे। कम्युनिस्ट-मुसलमानों की इस पूरी आबादी का सफ़ाया 1965–66 में सुहार्तो के निर्देश और अमरीका की शह पर इंडोनेशियाई फ़ौज ने कर दिया था। यानी पूरी की पूरी पार्टी का ही नामों-निशान मिटा दिया गया। आज इस पार्टी का वहाँ पर कोई नामलेवा भी नहीं है, जो कभी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी थी!
क्या कारण है कि ओवैसी सरीखे मुसलमानों के नेता ‘जय फिलिस्तीन’ तो कहते हैं, लेकिन कभी इंडोनेशियाई कम्युनिस्ट-मुसलमानों की शहादत को भूलकर भी याद नहीं करते?
इसका कारण यह है कि वो लोग मुसलमानों को एक ‘एथनिक-कम्युनिटी’ के परिप्रेक्ष्य में देखना पसंद करते हैं, एक ‘आइडियोलॉजी’ के परिप्रेक्ष्य में नहीं।
फिलिस्तीन उन्हें यह अवसर मुहैया कराता है कि वे यहूदियों के साथ नस्ली-मज़हबी टकराव में मुसलमानों को एक ख़ास तरह से ‘ब्रैकेट’ कर सकें। इंडोनेशिया उन्हें यह अवसर मुहैया नहीं कराता, क्योंकि वो 20 लाख इंडोनेशियाई-कम्युनिस्ट एथीस्ट थे, मज़हब में यक़ीन नहीं रखते थे।
लड़ाई आदमी की मौत पर नहीं है- आदमी की मौत तो पूरी दुनिया में हो रही है- शिनशियाँग में चाइना भी उइघर मुसलमानों का जीना मुहाल किए हुए है- लड़ाई नैरेटिव पर है। और फ़र्ज़ी वामपंथी समुदाय (जिसका क्लासिकल मार्क्सवाद से न लेना है न देना) और मुसलमानों के नेता मुसलमानों को एक ख़ास नज़र से देखना-दिखाना पसंद करते हैं।
यही कारण है कि वो मुसलमानों में तरक़्क़ीपसंद ख़यालात को हवा नहीं देना चाहते, उलटे उनके बुर्क़ा, हिज़ाब, शरीयत, बकरीद को क़ायम रखना चाहते हैं। उन्हें बढ़ावा देते हैं, सपोर्ट-सिस्टम मुहैया कराते हैं। क्योंकि मुसलमान अगर तरक़्क़ीपसंद होगा (इंडोनेशिया के कम्युनिस्टों की तरह) तो एक कम्युनिटी के रूप में अपनी आइडेंटिटी से बाहर निकलेगा और यह बात उनके नैरेटिव के पक्ष में नहीं है।
लेफ़्ट-लिबरल्स की पूरी लड़ाई मुसलमान को और ज़्यादा मुसलमान बनाए रखने, पिछड़ा और दकियानूसी बनाए रखने के लिए है और यहीं से ‘जय फिलिस्तीन’ के नारे लामबंदी की मंशा से बुलंद होते हैं, जबकि इंडोनेशिया या चाइना का भूलकर भी नाम तक नहीं लिया जाता। या वो कभी भी प्रो. एजाज़ अहमद जैसे कम्युनिस्ट-नास्तिक काफिर का नाम नहीं लेते, जिन्होंने वो मशहूर किताब लिखी है- ‘साइंटिफिक डेवपलमेंट इन इस्लामिक सिविलाइज़ेशन।’ उन्हें इस्लाम को साइंस नहीं मज़हबी फ़साद की ओर ले जाने में ज़्यादह दिलचस्पी है।
Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)