www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

अरुंधति के जले गीतांजलि को भी फूंक-फूंक कर पीजिये!

-पंकज कुमार झा की कलम से-

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India:Pankaj kumar Jha:
फ़ेसबुक से विराम के कारण इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर लिखना छूट गया था। गीतांजलि श्री का कथित उपन्यास जब बुकर के लिए नामित हुआ, तभी से स्वाभाविक ही राजकमल ने इसे जोड़-शोर के साथ बेचना शुरू कर दिया था। अपने पास कुछ प्रकाशनों के अपडेट आते रहते हैं मेल पर, आपके पास भी आते ही होंगे। झट से मैंने ऑर्डर की प्रक्रिया शुरू की। पढ़ना तो चाहिए। पहली बार ‘हिन्दी को’ बुकर के सम्मान की सम्भावना जो बलवती हुई थी। है कि नहीं?

पेमेंट वाले बटन को प्रेस करने जा ही रहा था कि अरुंधति रॉय का दानवीय चेहरा कौंध गया मानस पटल पर। तुरंत सिग्नल काम करने लगा कि अरे, एक और दुश्मन तैयार करने की साज़िश रची जा रही होगी। रायपुर में बैठकर आप रॉय का दंश बेहतर समझ सकते हैं। कैसे बुकर मिल जाने मात्र से पगलायी कोई औरत देश में तूफ़ान मचा सकती है, यह बस्तर-बारामूला, दंतेवाड़ा-हांदेवाड़ा के लोगों से बेहतर कौन जान सकता है भला? फ़ौरन से पेश्तर cancel बटन पर हाथ गया और इस तरह हमने साहित्य जेहाद का जकाती होने से खुद को बचा लिया था।

आप अरुंधति की कथित रचनाओं पर गौर कीजिए। दुर्भाग्य से मैं भी उसे ख़रीद कर लाया था पढ़ने के लिये। इतनी ‘महान’ लेखनी थी कि सर दुखने लगा। आदत है किसी भी किताब को प्रारम्भ करने के बाद अंत तक पहुंचने की, तो पढ़ तो लिया ही, लेकिन अपनी विवशता पर खुद ही मुट्ठी भींच रहा था कि उसे हम पढ़ क्यों रहे हैं। लेकिन क्योंकि वह ज़ाहिर नक्सल समर्थक है, उसे कश्मीर की कथित आज़ादी चाहिए, तो वह हो ही जाएगी विश्व की सबसे बड़ी लेखिका। बना ही दिया जायेगा ऐसे किसी को भी सिमोन की नानी।

बाद में तो क्योंकि मुझे नक्सलियों को समझना था तो पढ़ा ही लगभग सारा लिखा रॉय का। हर बार सर पटका। फिर भी पढ़ा क्योंकि वह काम भी था अपना। एक बार तो रंगे हाथ पकड़ लिया था अरु.. को नक्सलियों की प्रेस रिलीज़ को जस का तस अपना बना कर छापते हुए! एक भी मौलिक कुछ आपने पढ़ा हो अरुंधति का तो बताइयेगा। गॉड ऑफ़… तो क्या है, वह तो कांगरेड के अलावा और कोई समझ भी नहीं सकता। शेष रचनायें उसके लेखों का संग्रह है जिसे प्रेस विज्ञप्तियों को कंपाइल कर लिखा गया है।बहरहाल।

जब भी ऐसे किसी मामूली चीज़ों को देवता बनाया जा रहा हो, तो सावधान हो जाया कीजिए। जब भी किसी भारतीय को बुकर जैसा कुछ मिले तो समझ ज़ाया कीजिए कि या तो उसने भारतीयता के विरुद्ध कुछ लिखा होगा या उसमें सम्भावना होगी बौद्धिक ओसामा होने की। जब भी किसी को पुलिट्जर जैसा कोई सुगबुगाहट दिखे तो समझ लीजिए, दुश्मनों ने एक और रब्बीश तलाश लिया है। जब भी विश्व या ब्रम्हाण्ड को भारत में कोई ‘सुंदरी’ मिल जाय, समझ लीजिए बंटी परचून की दुकान पर कोई नया फ़ेयर एंड लवली पहुंचने वाला है। आदि इत्यादि….

डेढ़ किलोमीटर का पोस्ट लिख लिया मैंने और किसी ने पूछा ही नहीं कि आपने पढ़ा है क्या समाधि-उमाधि? नहीं कॉमरेड, बिल्कुल नहीं पढ़ा। अरुंधति का जला हूं तो हर ‘बुकरैलों’ को फूक-फूक कर ही पियूँगा। वैसे, वामरेडों का यह आज़माया हुआ नुस्ख़ा है, हर आलोचना पर वे आपको थम्हा देंगे ये जुमला कि पढ़े हो क्या?

पहले हम जैसे लोग इस जाल में फँस जाते थे। बक़ायदा नींद हराम कर पढ़ लेते थे कूड़ा-कचरा। जब तक आप उस पर कुछ कहने लायक़ होते तब तक ‘रावण को राम सतावन’ टाइप वे कुछ और ले आते थे। आप झेलते रहिये। फिर भी कुपढ़ आप ही कहे जाते और वे बड़े पढ़ाकू जिन्होंने आपके साहित्य का ‘स‘ नहीं पढ़ा होता था।

एक बड़े पत्रकार-स्तंभकार को अनायास ही पूछ दिया था मैंने कि ये जो आलोचना कर रहे हैं आप, पढ़ा है आपने? आंखे चुराए विल्स फूकते साहित्य अकादमी के दालान पर कहा उन्होंने कि पढ़ा तो सच में नहीं है ये मैंने।

आप गौर कीजिएगा कभी, दुनिया की सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ‘मानस’ का ‘ढोल गवाँर…’ के अलावा और कोई चौपाई इन्हें उद्धृत करते आपने नहीं देखा होगा। ज़ाहिर है- पीढ़ियों से बस यही एक पंक्ति इनकी कुल जमा बौद्धिक विरासत है। तो क्या पढ़ना है, से अधिक चिंता आप इस बात की कीजिए कि क्या नहीं पढ़ना है। खैर।

तो ‘रेत-वेत’ भी पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर समाधि नाम से कोई पॉप्युलर टाइप की चीजें ही पढ़नी हो, तो ओशो का सम्भोग-समाधि जैसा कुछ पढ़ लीजिए। अपने जिन लोगों ने नया ‘बुकरैल’ पढ़ लिया, है, उनसे सहानुभूति जताते हुए उनके ही बुरे अनुभवों से लाभ उठाइए। वे आपको दयनीय होकर बतायेंगे कि यह कथित कहानी एक बूढ़ी विधवा भारतीय महिला के अपने बचपन के पाकिस्तानी मुस्लिम प्रेमी तक चले जाने और वहीं किसी रेत वाले क़ब्रिस्तान में ‘समाधि’ ले लेने की महानतम गाथा है। भाषा भी सुना है ऐसी है मानो विशुद्ध वनस्पति तेल में जलेबी छान दी गयी हो।

तो इतना ही पढ़ कर संतुष्ट हो जाइये। भारत में फ़ंड/पुरस्कार आदि देकर देश-काल-संस्कृति जैसे चीज़ों को नुक़सान पहुँचाने का कृत्य किया जाता रहेगा। तय आपको करना है कि इनके मंसूबों को आप कितनी तेजी से ध्वस्त कर पाते हैं। राम राम।

पुनश्च : अगर अभी पढ़ना हो तो Vivek Ranjan Agnihotri का ‘अर्बन नक्सल …’ पढ़िए। मेरे द्वारा सद्यः पठित यही पुस्तक है। प्रूफ़ आदि की अनेक ग़लतियों के बावजूद यह रचना आपको रुचेगा और पचेगा भी। शेष हरि इच्छा। शुभ शुभ।

साभार:पंकज कुमार झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave A Reply

Your email address will not be published.