Positive India:Kanak Tiwari:अब एक रवैया आम हो गया है। हिन्दुस्तान का हर बेपढ़ा लिखा लेकिन खुद को आलिम फ़ाज़िल समझता नौजवान या बूढ़ा सियासतदां होने के भरम में जी रहा है। न वह दिमागी वर्जिश करता है और न ही देश की परंपराओं, सामाजिक संरचना, संस्कृति के बदलते आयाम और भविष्य की चुनौतियों को बूझने की उसमें जरा भी ताब है। वह सिरफुड़ौव्वल की भाषा में सड़क से लेकर संसद तक अनावश्यक राष्ट्रीय बहसें छेड़ता रहता है। उस बहस से उपजती सामाजिक हिंसा और नफरत के दलदल के कारण वह अपनी पीठ ठोंकता अपने सयाने होने का स्वघोषित विचारक बन जाता है। संविधान के बहुत से विद्यार्थियों, वकीलों और जजों ने भी आईन की एक एक इबारत को समझने के लिए संविधान सभा की बेहद जरूरी, गंभीर, तार्किक और तीन बरस तक चली करीब तीन सौ चुनिंदा सदस्यों की बहस और उसके पीछे से झांकती उनकी अध्ययनप्रियता का थोड़ा भी अहसास नहीं किया होगा। आईन का एक एक अनुच्छेद हमारे पुरखों ने एक ऐतिहासिक बुर्ज या बुत की तरह तामीर किया।
उसको समझना भी आज की युवा पीढ़ी के लिए कहां नसीब है। उसे तो उसके मां, बाप, गुरुजन, काॅरपोरेट के सेठिए और अधकचरे राजनीतिज्ञ किसी निजी कंपनी में पैकेज डील लेकर उसे जिंदगी का उत्कर्ष सिखा रहे हैं। कोई समुद्र की गहराइयों की तरह हुए आईन की असेंबली के बहस मुबाहिसे में डूबने की कोशिश करे। पाएगा किसी देश की जिंदगी में एक एक अक्षर, अल्पविराम, अर्धविराम या किसी अनकहे शब्द का भी कितना तात्विक अर्थ होता है। इसीलिए भारत का संविधान दुनिया का सबसे व्यापक, वाचाल और चिन्तन करता हुआ संविधान है। उसे केवल स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों ने नहीं लिखा। राजेरजवाड़ों के दीवानबहादुर, खान बहादुर, तालिम हासिल वकील और न्यायशास्त्री तथा उद्योग व्यापार की दुनिया के उस वक्त के बड़े किरदार संविधान सभा में आए। लगा जैसे देश के चुनिंदा लोग अपने भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक राष्ट्रीय वसीयत का सरंजाम कर रहे हों।
इस सिलसिले में अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 को देखने पर ऐसा लगा। मानो उसमें संविधान के तीसरे अध्याय में गरीबों, मजलूमों, अल्पसंख्यकों, वंचितों और जातीय विग्रहों के अभागे शिकारों की फिक्रमंद दास्तां करने का जज्बा उगा होगा। उन्होंने कोशिश की। एक छोटी सी फिल्म में पूरे संविधान की वेदना और दुषचिंताओं का व्यापक फलक संगतराश बनकर उभारा नहीं जा सकता। उस पीड़ा को भारत के भविष्य की पीढ़ियों के लिए महाकाव्य की तरह हमारे पुरखों ने संविधान की एक एक इबारत में लिखा था। फिल्म के किरदार एक गहरा रूमानी जज्बाई अहसास तो करा देते हैं। उसमें भी वह आदत है जिसे किताबों, पढ़ने लिखने, गोष्ठियों में जाने, सार्थक बहसें करने और संसद में रहकर भी अमर्यादित आचरण करने, अपराधी तक बनने और व्हाट्एप, फेसबुक और ट्विटर की जिंदगी में जज्ब हो जाने का शौक चर्राया है। वे फिल्म देखकर भी उस मर्म को पकड़ने की कोशिश कहां करते हैं जिसके लिए आजादी की लड़ाई का तेज संघर्ष कम से कम तीस पैंतीस साल तो चला ही।
संविधान एक बुलंद इंसानी इबारत है। उसकी एक एक ईंट बहुत सोच समझकर करीने से जोड़ी गई है। संविधान निर्माता जानते थे यह केवल तर्कमहल नहीं है। उसे वे हिन्दुस्तान की सभी जनभाषाओं की किताबों रामायण, कुरान शरीफ, बाइबिल, गीता, गुरुग्रंथ साहब वगैरह के अगले संस्करण के रूप में चिंतन के उर्वर इलाके में उगाकर आश्वस्त थे कि एक दिन वह वटवृक्ष बनेगा। उसके नीचे हिंदुस्तान के लोग अपनी रवायत, तालीम, संस्कृति, सियासत, दार्शनिकता और भाईचारे को लेकर दुनिया के सामने एक नया उदाहरण पेश करेंगे। ऐसा नहीं है कि उन्होंने केवल शब्दों का खेल किया। किसी जौहरी के कारीगर को ध्यान से देखें। तब समझ आता है कि तराश तराशकर एक हीरे की अंगूठी बनाने में, या बड़े फलक पर देखें, तो एक ही चट्टान से छेनी हथौड़ी से तराश तराशकर एलोरा की गुफाएं बनाने का काम, यदि ईश्वर है तो वे उसकी रचनाशक्ति को भी चुनौती देते हैं। यही संविधान के सबसे नाजुक इलाके को लेकर भी हुआ। भाग तीन में मूल अधिकारों का ब्यौरा आर्टिकल 12 से 35 तक समाया हुआ है। आर्टिकल 15 उनमें से छिटका हुआ शाश्वत ऐलान नहीं है। वह बाकी अनुच्छेदों से हमजोली की तरह गलबहियां करता है। पूरा पाठ पढ़ने से भारतीय विचारकों के जेहन में भविष्य का सपना साकार होने आया होगा। उसका एक सिरा आर्टिकल 15 में भी है।
कोई इस बात पर कोरा घमंड नहीं करे जैसा देश को पीछे ले जाने वाले लोग जनता को गुमराह करने के लिए करते रहते हैं। बेहद चलताऊ किस्म के सूत्र गढ़े गए हैं। उनके पीछे अनुसंधान, अध्यवसाय, अध्ययन वगैरह तो नहीं ही है। एक तरह की कूढ़मगज जिद है। यह साधारणीकरण करना कि भारत दुनिया का सबसे महान देश रहा है। केवल भारत में आध्यात्मिकता है। बाकी तो भौतिकवादी हैं। भारतीय जनता और मतदाता अपने कर्तव्यों को खूब समझते हैं। भारतीय समाज में अद्भुत एकता और शक्ति है। हमारी संस्कृति हमारे धर्म से उपजी है। हम याने वे लोग वे लोग जो इस धरती में इतिहास के पहले से रहे हैं। जो बाहरी मुल्कों से आए, वे आज भी हमारे मेहमान हैं, या अन्याक्रांति किए हुए लोग हैं। इक्कीसवीं शताब्दी में कोई देश इस तरह नहीं रह सकता। उसे वक्त की जरूरतों, नई चुनौतियों, वैश्विक समझ और इतिहास की गुत्थियों और उनमें छुपाकर बांधे गए पाखंड की पोटलियों को खोलकर पढ़ना होगा।
इसमें कहां शक है कि हिन्दुस्तान एक महान देश रहा है। लेकिन किस तरह? 11 सितंबर 1893 को बीसवीं सदी के सबसे बड़े सांस्कृतिक, अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म के नहीं भारत के प्रतिनिधि विवेकानन्द ने कहा था। केवल भारत है जहां संसार की सभी सभ्यताएं और धर्म पनाह लेकर आश्वस्त हैं कि भारत के लोगों का चरित्र समावेशी है। मौजूदा हिन्दुस्तान में कल्पना की जा रही है कि वह एक एकल संस्कृति या एक धर्म का देश या राष्ट्र हो सकता है। अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद जातिवाद आज भी जहर है। वह भारतीय समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। एक धर्म में चार वर्ण होंगे। उन्हें अज्ञात लोगों ने लिखकर ईश्वर का वचन बना दिया होगा जिन्हें शूद्र कहते हैं। वे अनुसूचित जाति, जनजाति और अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोग ऐसे इतिहास को रद्द क्यों नहीं करना चाहेंगे। यह भी आर्टिकल 15 के पीछे कराहता हुआ सामाजिक अफसोस है। उसे एक विकार की तरह भारत की संविधान सभा ने आर्टिकल 15 को गढ़ते समय सोचा था। उस पर तकरीर की थी। उसे परत दर परत कमेटियों और समितियों में उस समय के सबसे बड़े विचारकों जवाहरलाल नेहरू, डाॅ.भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी सहित कई देशभक्त सदस्यों की धमनियों में उठ रहे रक्त के उबाल की भाषा में आईन की किताब में स्याही से लिखा गया था।
सवाल आज फन काढ़ रहा है कि आर्टिकल 15 ज्ञान और नीतिशास्त्र का एक मासूम कथावाचक है या उसकी नसीहतों से कोई व्यापक फेरबदलाव सामाजिक संरचना में हो चुका है? या कछुआ गति से होते जाने की संभावनाओं को उनमें देखा तो जा सकता है? बन गई होगी अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15। कह गए होंगे हमारे पूर्वज फक्कड़ कबीर की साधुता में कि इंसान से बड़ी कुदरत की कोई फितरत नहीं है। लेकिन धार्मिक कठमुल्लापन सभी कौमों और मजहबों में फन काढ़कर देश को बार बार खूरेंजी और जहर से भर तो रहा है। क्या करेगा बेचारा संविधान? या बेचारा आर्टिकल 15? इंसान के गोश्त से ज्यादा प्यारा यदि बीफ होने लगा। वंदेमातरम् जैसे पवित्र आह्वान से नफरत होने लगी। भारत पाक विभाजन के वक्त के नस्ल की हत्याएं, डकैती, बलात्कार जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति करने की कोशिश होने लगे। तो क्या संविधान बनाने की सारी बेचारगी पुरानी हवेली की तरह है। उसकी चूलें हिलाने की कोशिशें वे लोग कर रहे हैं जो खुद किसी दिन इतिहास के मलबे में, उसकी खंदकों में नामालूम और गुमनाम इकाइयों की तरह दफ्न होने को अपनी अज्ञानता में तैयारी कर रहे हैं।
साभार:कनक तिवारी (ये लेखक के अपने विचार हैं)