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समीक्षा तो पहले आदिपुरुष की भर्त्सना पर होनी चाहिए।

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
समीक्षा तो पहले आदिपुरुष की भर्त्सना पर होनी चाहिए। और यह भर्त्सना इस अवस्था में पहुंच चुकी है कि राष्ट्रवादी तबका का जो हिस्सा फिल्म रिलीज से पहले तक फिल्म का खुला समर्थन कर रहा था, रिलीज के बाद अपनी गलती स्वीकार कर फिल्म की आलोचना दे रहा है। और जो राष्ट्रवाद विरोधी अथवा धर्म विरोधी तबका है उसे इन चीजों से कोई लेना-देना नहीं। क्योंकि वे मानते हैं फिल्म बनाने वाले भी उन्हीं के लोग हैं और दर्शक भी उन्हीं के हिस्से से।

फिल्म उद्योग के इतिहास में आदिपुरुष पहली ऐसी फिल्म है जो निर्माण से लेकर रिलीज के पश्चात तक अपने दर्शकों के साथ नेगोसिएट कर रही है। फिल्म की पहली रिलीज डेट पर रुक जाना, नई रिलीज डेट तय होना, इस दावे के साथ कि फिल्म में आमूलचूल परिवर्तन किए जाएंगे, रिलीज के बाद भी डायलॉग में सुधार के वादे फिल्म मेकर्स की तरफ से किए जा रहें, क्या कभी इतिहास में कोई फिल्म अपने दर्शकों के साथ इतने नेगोशिएशन से बनाई गई है?

तब एक बात बड़ी निष्ठा से स्वीकार करनी होगी कि भले फिल्ममेकर्स अपनी आत्ममुग्धता से अपनी फिल्म को आज भी जस्टिफाई कर रहे हैं कि उन्होंने फिल्म अच्छी बनाई है, फिर भी उन्हें फिल्म के विरोध में इतने बड़े ट्रोल का अफसोस अवश्य है। वे अवश्य सोच रहे होंगे कि यदि 600 करोड़ की बजट वाली फिल्म काश दर्शकों का मनोनुरूप बनाई जा सकती! लेकिन दुर्भाग्य! अब कुछ भी बदलाव संभव नहीं है। इसका अर्थ हुआ फिल्म में कमर्शियल लिबर्टी की परंपरा इस फिल्म पर भारी पड़ गई। उनसे गलती हुई है, उनसे अपराध हुआ है, लेकिन फिल्मेकर्स की निष्ठा ही इस प्रकार की विवादित फिल्म बनाना था, का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

दो बात साफ है कि फिल्म आदिपुरुष रामायण नहीं है और एक कमर्शियल फिल्म है। डायलॉग्स और पात्र को छोड़ दें तो ऐसी किसी कमर्शियल फिल्म में सनातन निष्ठा की दो बातें डाल देना एक तरह से नैरेटिव को मजबूत करना कहा जाता है। लेकिन यहां तो पूरी फिल्म ही एक प्रकार से नैरेटिव को समर्पित है। किन्तु नए भारत के लिए यह फिल्म स्वीकार्य नहीं होगा। इसका मतलब कि फिल्म यदि पूरे धार्मिक डायलॉग्स तथा चित्रण के साथ भी बनाए जाएं तो भी मार्केटिंग अच्छी होगी। धर्मच्युत लोगों को धर्म से जोड़ने के लिए फिल्म कड़ी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लेकिन अब ऐसे कड़ियों की जरूरत नहीं। लोग दो स्पष्ट विभाजित हिस्सों में बैठे हुए हैं। उन्हें क्लियर कट पता है कश्मीर की फाइलें और केरला की स्टोरी देखनी है अथवा नहीं।

आदिपुरुष फिल्म में फिल्म उद्योग की दो सबसे बड़ी गलती- पहला कि हमारा कोई भी फिल्म कथा केंद्रित होने के स्थान पर स्टार केंद्रित होता है। यह भारतीय फिल्म उद्योग की अपराधिक परंपरा है। फिल्म का नाम आदिपुरुष से बढ़िया प्रभास रख दिया जाता, कोई विवाद नहीं होता। लेकिन राम की भूमिका प्रभास से ही क्यों कराना? इतनी ऑब्सेशन क्यों प्रभास से? दाऊद फिल्म उद्योग में जिस प्रकार फिल्में खान को केंद्रित होती हैं, उन्हीं से ऑब्सेशन होता है, वही सत्य प्रभास के लिए भी है। क्या इस देश में नायकों की कमी है, जो रावण जैसे दिखने वाले प्रभास को राम जैसी भूमिका दी गई? सबको मालूम है कि रामानंद सागर ने रामायण बनाई थी, अरुण गोविल केंद्रित सीरियल नहीं। इसलिए रामायण बनी, सफलतापूर्वक। दूसरा कि डायलॉग्स निश्चित रूप से स्वीकार्य नहीं है। अगर भाई को भ्राता नहीं कहा जा सकता तो तमाम गुंजाइश है जो संवाद को और बेहतर किया जा सकता था।

फिल्म उद्योग को किसी कहानी के साथ न्याय करना सीखना होगा। एक कहानी में वह ताकत है जो अरुण गोविल को भगवान बना सकता है। स्ट्रीट लेवल फिल्म डायरेक्टर अग्निहोत्री को कश्मीर की फाइल्स राष्ट्रीय स्तर का सम्मान दिला सकता है। केरला स्टोरी के साथ न्याय किया गया तो फिल्म के मेकर, प्रोड्यूसर और फिल्म में काम करने वाली नायिका सब के सब रातों-रात फलक पर आ गए। यही किसी फिल्म के स्टोरी के साथ न्याय की ताकत है। इतनी बड़ी बड़ी ससफलता कोई स्टार कास्ट नहीं दिला सकती। यहां तक कि फिल्म भी विवादित हो जाए इसकी पूरी गुंजाइश है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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