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तथाकथित सेक्यूलर सूरमाओं तथा जनसंघ का विश्लेषण

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
आप को मालूम है कि अपने को समाजवादी बताने वाले मुलायम सिंह यादव पहली बार मंत्री बने जनसंघियों के साथ। कल्याण सिंह स्वास्थ्य मंत्री थे , मुलायम सिंह सहकारिता मंत्री। मुलायम पहली बार मुख्य मंत्री बने भाजपा के समर्थन से। इतना ही नहीं मुलायम के गुरु चरण सिंह भी उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री जनसंघ के समर्थन से बने थे। उन के उप मुख्य मंत्री थे जनसंघ के राम प्रकाश गुप्त। इसे संविद सरकार बताया गया था। समाजवाद के पहरुआ लोहिया के नेतृत्व में यह हुआ था। यहां तक कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री बने भाजपा के समर्थन से । मायावती भी भाजपा के समर्थन से ही मुख्य मंत्री बनीं। तीन बार। लालू यादव भी पहली बार भाजपा के ही समर्थन से मुख्य मंत्री बने थे । शरद यादव अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में रह चुके हैं। ऐसे और भी कई सेक्यूलर सूरमा यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं । लेकिन यह लोग जाने किस मुंह से सेक्यूलर सूरमा कहे जाते हैं और भाजपा सांप्रदायिक।

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आज़ादी के बाद किसी एक ऐसे दलित , पिछड़े या मुस्लिम नेता का नाम बताएं जो किसी वाम दल या कांग्रेस में शीर्ष पद पर रहा हो या हो । कांग्रेस में एक जगजीवन राम अपवाद हैं। भाजपा में तो दलित भी मिल जाएंगे और पिछड़े भी। सब से मुश्किल स्थिति तो वाम दलों की है। वाम दलों में ब्राह्मणों का ही सर्वदा वर्चस्व रहा है। आज भी है । आंबेडकर वाम दलों को बंच आफ ब्राह्मण ब्वायज कहते ही थे। दिलचस्प यह कि किसानों को भी वामपंथी पूंजीपति मानते हैं। वामपंथी बड़ी बहादुरी से संघियों से पूछते फिरते रहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में कहां थे। लेकिन खुद कभी नहीं बताते कि आज़ादी की लड़ाई या इमरजेंसी की लड़ाई में खुद कहां थे ? आज़ादी की लड़ाई में तो गुम थे ही पर नहीं बताते कि इमरजेंसी में खुल कर इमरजेंसी के समर्थन में थे। बीते दिनों प्रणव मुखर्जी संघ के एक कार्यक्रम में अपने भाषण में बता चुके है कि संघ के संस्थापक केशवराम बलराम हेडगेवार कांग्रेस में रहे थे। और जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो बतौर कांग्रेसी नेहरु मंत्रिमंडल में रहे थे। लेकिन वामपंथियों और कांग्रेसियों ने मिल कर एक नैरेटिव रच दिया है और उस नैरेटिव का झुनझुना जब-तब बजाते ही रहते हैं। अच्छा कितने लोग जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी भी एक समय कामरेड रहे थे ?

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जितने भी अपने को दलित बुद्धिजीवी मानते हैं, सब के सब हिप्पोक्रेट हैं। इन की कोई भी लड़ाई और लफ्फाजी दलितों के लिए नहीं , आरक्षण और सुविधा की मलाई चाटने के लिए ही होती है। जातीय नफ़रत और जहर की खेती करने में निष्णात इन में भी ज्यादातर दो-दो पत्नीधारी हैं । आंबेडकर और राम विलास पासवान की तरह।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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