विपक्षी दलों द्वारा मिलकर संसद भवन उद्घाटन का बहिष्कार तथा इसका विश्लेषण
-विशाल झा की कलम से-
Positive India:Vishal Jha:
जो अभी संसद भवन है, पूछा जाए कि किसने बनवाया, तो जवाब में नाम किसी अंग्रेज एडविन लुटियंस का आएगा। और उद्घाटन किसने किया, तो तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने, 1927 में। इतनी सी बात बकायदा एक वॉलप्लेट लगाकर संसद भवन के किसी आरंभिक स्पॉट पर ही लिखा होगा। और 70 वर्षों से कांग्रेसी राजनीति के तहत चुने हुए सांसद जब उस रास्ते से गुजरते होंगे, तो बोर्ड जरूर उनकी नजर पर पड़ता होगा। कोई समस्या नहीं।
लेकिन इसी स्थान पर अब भारत के एक प्रधानमंत्री, जो कि संसदीय लोकतंत्र का प्रमुख होता है, का नाम लिखा जाएगा। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो विश्व का सबसे लोकप्रिय नेता भी है और सनातनी विचारधारा का एक राजनीतिक सम्राट भी, आखिर यह नाम उद्घाटन के वॉलप्लेट पर कैसे सहन किया जा सकेगा? एक-दो दिन की बात नहीं है। संसद भवन की आयु 100 वर्ष से कम की होती नहीं है। वर्तमान संसद भवन का भी 100 वर्ष पूरा होने वाला है। और जो नया संसद भवन बन रहा उसकी आयु भी तो 100 वर्ष से अधिक ही होगी।
भारत के लोकतंत्र के प्रथम मंदिर पर अब एक ऐसे व्यक्ति का नाम अमिट रूप से चढ़ने वाला है, जिसे लोगों ने चाय बेचने वाला भी कहा है, और हिंदुत्व के नाम पर सांप्रदायिकता फैलाने वाला भी। पिछले दरवाजे से धर्मनिरपेक्ष बने भारत के संसद पर सौ सौ बरस तक एक ऐसे व्यक्ति का नाम सहन कर पाना, कांटो पर चलने समान होगा। पूरी कोशिश है कि यह नाम किसी भी प्रकार संसद भवन के किसी वॉलप्लेट पर अंकित ना हो पाए।
दूसरी सबसे बड़ी बात कि भारत में आज तक प्रमुख रूप से शासन करने वाले तमाम कांग्रेसी नेताओं ने जीवन भर श्रेय की राजनीति की। नाम ऊंचा दिखने की राजनीति, बजाए काम करने के। नेम प्लेट की राजनीति। संसद भवन से लेकर विद्यालय तक, सड़क से लेकर एयरपोर्ट तक। हर चीजें जो कि इस देश के पैसे से की गई, लेकिन नाम एक खास दल के नेता का। ऐसा लगता है देश के लिए किए गए तमाम कार्यों के एवज में, संबंधित इंफ्रास्ट्रक्चर को दिया गया नाम, किए की कीमत वसूल रहा है। नाम अगर उस खास दल के नेता का न हो पाया तो नाम अंग्रेजों का, अगर अंग्रेजों का भी नाम ना हो पाया तो नाम मुगलों का, सब स्वीकार्य है। लेकिन नाम किसी ऐसे व्यक्ति का नहीं होना चाहिए जो मजबूत राष्ट्र, संस्कृति और हिंदुत्व की बात करता हो। और तिसपर भी यह नाम संसद भवन में?
नरेंद्र मोदी ने इस देश में तमाम काम किए हैं, जो पिछले 70 वर्षों में किए गए और नहीं भी किए गए। लेकिन किसी भी स्थान पर किसी भी इंफ्रास्ट्रक्चर का नाम मोदी ने अपने नाम नहीं किया। सब देश के नाम समर्पित किया। लेकिन संसद भवन का प्रधानमंत्री मोदी के हाथों उद्घाटन, इस देश के लोकतंत्र में भविष्य में चुनकर आने वाले तमाम नेताओं को प्रधानमंत्री मोदी की याद दिलाता रहेगा। अगर आने वाले प्रतिनिधि राष्ट्र और संस्कृति विरोधी होंगे तो, उन्हें यह नाम चुभेगा, यदि समर्थक होंगे तो उन्हें यह नाम गर्व की अनुभूति कराएगा।
फिर बात आई सैंगोल की, जो कि लोकतंत्र के मंदिर नए संसद भवन में भारत की सांस्कृतिक राजनीति का प्रतिनिधित्व करता हुआ एक प्रतीक के तौर पर स्थापित किया जाएगा। यह तो और भी दुखद है, कि इस सैंगोल राजदंड पर भगवान भोलेनाथ के अनन्य सेवक नंदी की मूरत है। जो न्यायपूर्ण शासन प्रणाली को प्रतिबिंबित करता है।
और ये जितने दलों ने मिलकर संसद भवन उद्घाटन का बहिष्कार किया है, दरअसल उद्घाटन के दिन सुबह से ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण होगा और सनातनी विधि विधान से पूजा पाठ करके, शंख बजाकर संसद भवन में प्रवेश होगा। ऐसे पावन पवित्र अवसर पर फरेब और अलोकतंत्र की राजनीति करने वाले तमाम राजनेताओं की उपस्थिति की आशा आखिर कैसे की जा सकती है?
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)