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अम्मा की अनमोल सखियां

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
अम्मा(Amma) की सखियों की जब याद करता हूं तो उन की तीन सखियां याद आती हैं । बहुत-बहुत याद आती हैं । जिन में अम्मा का साथ देने के लिए अब एक ही सखी जीवित हैं । लेकिन वह भी दिल्ली में हैं । बाक़ी दो साथ छोड़ चुकी हैं । अम्मा की यह तीनों सखियां अम्मा के लिए जो थीं , वह तो थीं ही , वह मेरी भी सखियां थीं । अम्मा की इन सखियों के ममत्व में भीगा मेरा बचपन आज भी खिलखिलाता है । मेरा शिशु मन वैसे ही हुलसता है ।

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तिवाराइन चाची के बच्चे नहीं थे , नि:संतान थीं सो मुझ में अपना बेटा ढूंढती और अपना ममत्व न्यौछावर कर देतीं । मामी के बेटा नहीं था , अपना बेटा मुझ में ढूंढतीं । यह बात तब नहीं समझ पाता था । अब समझ आता है । लेकिन भगवती की माई के तो बेटा था -भगवती । तो वह मुझ में क्या ढूढ़ती थीं । क्यों कि ममत्व उन का भी मुझ पर कम नहीं था । अम्मा की यह यह तीनों सखियां मुझ में अम्मा बन कर ही जीती हैं । अम्मा की यह तीनों सखियां ही नहीं , मेरी दोनों मौसी भी मुझ में अम्मा बन कर ही रहती हैं । यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे जीवन में ममत्व के इतने सोपान हैं , इतने पड़ाव हैं , इतने कसाव और इतने मोड़ हैं कि इस ममत्व में सना हुआ मैं सर्वदा खिलखिलाता रहता हूं । मेरी ज़िंदगी में इन स्त्रियों का बहुत मान और एहसान है । इन की सांस , एहसास , मधुमास और चांदनी में चहकता , महकता मेरा जीवन उल्लास से भरा रहता है । इन के ममत्व और अपनत्व की डोर मुझे बहुत धीरज और साहस देती है । आज की औरतें और बच्चे इस सौभाग्य के शबनम में भींग नहीं पाएंगे , जिन में मैं अनायास भीगता रहा हूं , भीगता रहता हूं ।

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अम्मा और उस की अनमोल सखियां बहुत बंद और सख्त जीवन जीती थीं तब । घूंघट और पाबंदी भरी ज़िंदगी में तब हवा कम घुटन ज़्यादा थी । खपरैल के घरों वाले अंधेरे कमरों में घूंघट काढ़े बैठी यह औरतें , घर के काम काज में दिन-रात खटती यह औरतें अपने लिए ही अवकाश नहीं पातीं थीं तो सखियों के लिए भी यह कैसे अवकाश पा जातीं भला ? फिर भी उस बंद , पाबंद और बोझिल ज़िंदगी में भी अपनी-अपनी सखियां ढूढ़ी इन स्त्रियों ने । न सिर्फ़ सखियां ढूंढ़ी बल्कि ताज़िंदगी एक दूसरे को निभाया भी । बिना लड़े , बिना झगड़े । समर्पण भाव से ।खुश-खुश और एक दूसरे पर अपने को न्यौछावर करती हुई । कभी-कभी मैं देखता कि बिन बोले भी , घूंघट हाथ से फैला कर एक दूसरे को देख कर भी यह खुश हो लेतीं । फलाने क माई कह कर एक दूसरे को गुहराती । उन दिनों हमारी अम्मा गांव की औरतों में दया क माई नाम से गुहराई जाती थी । पर क्षण भर की यह मुलाक़ात होती इन की और यह आंखों – आंखों में ही एक दूसरे को देखती हुई चल देतीं तृप्त भाव से । अजब था यह इन का सुख भी , इन का यह संगम भी । अकसर रात के अंधेरे में भी । इन सखियों की यह आशिकी आज की तारीख में भी सोच कर मैं भीग-भीग जाता हूं । तब वह कितना भीगती रहती रही होंगी , सोच कर ही मगन हो जाता हूं ।

बैठी हुई तिवराइन चाची । उन के दाएं हमारी अम्मा , मामी की बड़ी बेटी मालती ,
छोटे मामा की छोटी बेटी उर्मिला , पत्नी और छोटकी तिवराइन चाची , गांव के घर में

तब के दिनों हमारे गांव में औरतों का आपस में मिलना और बतियाना अमूमन रात के अंधेरे में तब होता था जब वह शौच के लिए घर से सुबह-शाम यानी भोर और रात में घर से बाहर निकलती थीं । सोचिए कि औरतों का झुंड निकलता था । घर-घर से । थोड़ी-थोड़ी देर के अंतराल से । इन को शौच भी करना होता था , मिलना-बतियाना भी और समय से घर वापस भी पहुंचना । एक दूसरे को खोज कर चुपचाप बतियाना । दुःख-सुख बतियाना और बांटना । किसी के पास घड़ी नहीं होती थी । न घर में , न पास में । न टाइम जानने का कोई और उपाय । फिर भी किसी सरकस के करतब की तरह , किसी जादूगर के जादू की टाइमिंग की तरह , किसी मदारी की तरह पतली रस्सी पर चलती यह स्त्रियां । मजाल क्या कि समय सूत भर भी इधर-उधर हो जाए । और जो गलती से हो जाए तो घर में कोहराम मचाने को तैयार बैठी सास , ननद , जेठानी आदि की फ़ौज तैनात रहती । तंज , ताने और तकरार के तरकश तैयार रहते हर घर में । ऐसे में यह सखियां और इन का साख्य भाव । टूटता नहीं था । एक दूसरे को ताक़त देता रहता । घर में कोहराम का भाव कई बार मुलाक़ात को कई-कई दिन तक टालता रहता । अम्मा भेजती तब मुझे तिवराइन चाची के घर । या फिर तिवराइन चाची बुलवा भेजतीं मुझे अपने घर । जैसे मुझे देख कर ही तिवराइन चाची मेरी अम्मा को देख लेतीं और आकुल हो कर मुझे अपनी गोदी में समेट कर मुझे चूमने लगतीं । मुझे जो भी मिलता खिलाती -पिलातीं । गड़ी , छुहारा , घी , चीनी । दूध की साढ़ी , खुरचन आदि । कभी कभी बताशा , लड्ड़ू । तिवराइन चाची के घर से लौटता तो अम्मा तृप्त हो जाती । जैसे मुझे देखते ही दोनों को एक दूसरे का हाल चाल मिल जाता । फिर भी तिवाराइन चाची अम्मा के हाल पूछतीं । अम्मा तिवराइन चाची के । दोनों का संवाद लेकिन एक ही होता । वह पूछतीं , नीके त बाड़ीं तुहार अम्मा ! और अम्मा पूछतीं , नीके त बाड़ीं तुहार चाची ! हालां कि तिवराइन चाची का घर हमारे घर से कोई दो सौ मीटर ही है पर दोनों सखियों के लिए यह दो सौ मीटर की दूरी भी समुंदर जितनी ही थी । मेरे लिए भी यह दूरी बहुत थी । इस लिए कि इतने से रास्ते में जगह-जगह बंधे कई सारे मरकहे बैल , भैंस और गाय से बचते-बचाते आना जाना होता था । टीनएज में अम्मा से कई बार अनबन हो जाती तो तिवराइन चाची बुलवातीं मुझे और देखते ही मुझ से जैसे पूछतीं , का ए बाबू , अब इहै होई ! उन का इतना सा कहना ही मुझ पर घड़ों पानी डाल देता । फिर वह जैसे समझातीं हुई कहतीं , ए बाबू तोहरे सिवा केहू बा नाईं तोहरे अम्मा क । फेर हमहूं तोहरीय ओर देखी ले ! बिना इफ बट के मैं अम्मा के आगे सरेंडर कर जाता । आख़िरी समय तक यह उनका डायलॉग चलता रहा । और मैं चुप हो जाता रहा । एक बार वह बहुत नाराज थीं अम्मा से मेरे अनबन पर । तो मैं ने जमील ख़ैराबादी का एक शेर उन्हें सुनाया :

इक इक सांस अपनी चाहे नज़्र कर दीजे
मां के दूध का हक़ फिर भी अदा नहीं होता

शेर सुनते ही वह तुनक कर बोलीं , मतलब ? मैं ने भोजपुरी में उन को समझाया । सुन कर मुदित हो गईं और मेरे गाल ऐंठते हुई बोलीं , तब त नीक बा ए हमार बाबू ! जब दिल्ली रहता था तब उन के घर तो मैं जाता ही था । अम्मा की तजवीज पर वह भी हमारे घर आती रहती थीं । उन दिनों एक जोशी जी के मकान में रहता था । मैं नीचे रहता था , जोशी जी का परिवार ऊपर । एक बार पता नहीं क्या हुआ कि चाची ऊपर चली गईं । मिसेज जोशी से बोलीं , अपने लड़किन के सम्हार के रखिहा , हमरे लइका के फँसाईहा मत ! मुझे बहुत बुरा लगा । लेकिन अच्छा यह रहा कि मिसेज जोशी , चाची की झोंक में बोली भोजपुरी समझ नहीं पाईं ।

उन दिनों औरतों का आपस में सखी बनना भी एक छोटा सा व्यक्तिगत समारोह होता था । बहुत तैयारी करनी पड़ती थी इन औरतों को । दोनों तरफ से । एक साबुन की बट्टी को भी तरसती इन औरतों को महकउवा तेल , महकउवा साबुन , साड़ी , ब्लाऊज , पेटीकोट , कढ़ाई वाला तकिए का गिलाफ आदि , गरी , छुहारा , मिठाई , पान आदि की अपनी -अपनी बेंवत भर की व्यवस्था करनी होती थी । एक नया सेट पहनने के लिए , एक या दो नया सेट देने के लिए । चुपके-चुपके यह सब बटोरने में भी बहुत समय लग जाता था । मैं ने देखा कई बार दो साल , तीन साल , पांच साल भी लग गया । फिर भी कई औरतें यह सब बटोर नहीं पाईं और फिर समारोह पूर्वक सखी बनने से वंचित रह गईं । और यह सब तैयारी के बाद भी बड़ी समस्या होती घर में सास , ससुर , जेठानी , ननद आदि की भी इजाजत । कई बार मिल जाता , कई बार नहीं भी मिलता । मुझे याद है मेरी अम्मा को भी तिवराइन चाची से सखी बनने में यह सारी झंझटें किसी नदी की तरह बार-बार पार करनी पड़ीं । तिवराइन चाची को सामग्री बटोरने में दिक़्क़त भले आई हो लेकिन घर का बैरियर उन के आड़े नहीं आई होगी , ऐसा मेरा अनुमान है । पर मेरी अम्मा के साथ एक बात शुरु से ही है कि वह लाख मुश्किल में रही हो , लाख घूंघट और लाख पाबंदी में भी रही हो पर एक बार जब वह कुछ ठान लेती है तो वह जैसे भी हो सारे विरोध और प्रतिबंध के बैरियर तोड़-ताड़ कर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेती है । बहरहाल सारी बाधाएं , सारे बैरियर तोड़ कर अम्मा और तिवराइन चाची पैरों में आलता लगा कर महमह महकती , गमकती और छलकती घर के आंगन में समारोहपूर्वक एक दूसरे को भेंट दे कर , मिठाई और पान खिला कर , अंकवार भेंट कर पक्की सखी बन गईं । कभी अम्मा की गोद में तो कभी तिवराइन चाची की गोद में बैठता , चुम्मा देता हुआ मैं इन का साक्षी । हमारी एक बुआ और इया भी बेमन से सही उपस्थित थीं । तिवराइन चाची की सास यानी तिवराइन इया की भी सक्रिय उपस्थिति थी । घर में मेवा डाल कर गुलगुला , बखीर , दलभरी पूड़ी , हलवा , बड़ा , पालक का साग , कोहड़े की सब्जी आदि भी बना था । शुभ के लिए । मेरी अम्मा प्रभावती पांडेय और तिवराइन चाची दर्शन तिवारी के सखी बनने के शुभ अवसर पर ।

लेकिन दोनों सखियों की यह गमक बहुत दिनों तक मैं नहीं देख पाया ।

गोरखपुर चला गया पढ़ने के लिए । बाद के दिनों में तिवराइन चाची भी दिल्ली चली गईं । तिवारी चाचा दिल्ली में यूनियन बैंक में कैशियर हो गए थे । अम्मा अकेली हो गई । तिवाराइन चाची अब गरमियों की छुट्टियों में अमूमन आतीं । मैं तो रहता ही था । दोनों का सखी भाव , दोनों का एक दूसरे पर अटूट विश्वास , दुःख-सुख का अबोला साथ अदभुत था । अब थोड़ा-थोड़ा खुल कर मिलने लगी थीं दोनों सखियां । इया हमारी रही नहीं थीं , बड़की माई यानी हमारी अम्मा की जेठानी गोरखपुर में रहती थीं और अम्मा पर उन की सख्ती भी अब ज़रा ढीली पड़ रही थी । दूसरे , तिवाराइन इया अब अम्मा चाची की संयुक्त सास बन कर उपस्थित थीं लेकिन दोनों को सहयोग और स्नेह देती हुई । बाद के दिनों में देखा कि तिवाराइन इया बड़ी तेज़ी से अम्मा से घुलती-मिलती जा रही थीं । उन के ऊपर तो रोक छेंक थी नहीं । बेवा थीं , खुदमुख़्तार । तिवारी बाबा जब थे तब भी उन पर बहुत रोक-छेंक नहीं थी । देखा कि अम्मा से मिलने वह रोज आने लगीं । अम्मा और तिवराइन इया यानी सावित्री तिवारी की सुबह की चाय धीरे-धीरे रोज की हो गई । लोटा भर के चाय ले कर कटोरी में उड़ेल कर बैठी बतियाती दोनों गांव की कई औरतों की इर्ष्या का सबब बन गईं । घर में भी अम्मा को बुआ लोग या बड़की माई से कभी कभार बात सुनने को मिल जाती । लेकिन अम्मा अब धीरे-धीरे इन सब बातों को अनसुना करने लगी । दूसरे तिवराइन इया इतनी संजीदगी से रहतीं , सलीके और मिठास भरी बोली से रहतीं , बोलतीं कि सब के मुंह बंद हो गए । अब वह दिन में दो बार , तीन बार भी आ जातीं । वैसे भी तब के दिनों बुजुर्ग औरतें इस या उस घर जा कर औरतों से पैर छुला कर बतिया कर , इन की , उन की शिकायत कर , सुन कर ही दिन गुज़ारती रहती थीं । लेकिन तिवराइन हमारे ही घर आतीं । न किसी की शिकायत , न इधर-उधर करना । अम्मा उन को सास का ही सम्मान देती , जब वह आतीं , हाथ में आंचल ले कर उन के पैर छू कर माथे से लगा लेती । तिवराइन इया जी भर कर आशीष से अम्मा को लाद देतीं । यह वह चाहे जितनी बार आएं , अम्मा यह करती ही थी । तिवराइन इया ही क्यों गांव की कोई इया भी हों , यही होता । अम्मा को यही करते देखा सर्वदा । नौका इया हों , मलकिन इया , मोटका इया या कोई और भी इया ।

मैं देख रहा था कि अम्मा तिवराइन चाची से भले पक्की सखी बनी थी पर उस की सुपर सखी तो तिवराइन इया बन गई थीं । बिना किसी समारोह के , बिना भेंट , बिना उपहार और बिना पान के । एक दो नहीं सालों साल दो औरतें रोज-रोज मिलें , बार-बार मिलें , चाय पिएं और उन में कोई एक पैसे का भी कोई तकरार न हो , कोई शिकवा , शिकायत न हो यह बहुत मुश्किल है । अजूबा ही है । लेकिन तिवराइन इया और हमारी अम्मा के साथ तो यही हुआ । कम से कम पचास साल से अधिक समय तक तो यह मैं ने देखा ही है । बाद के दिनों में तिवराइन इया को जब चलने फिरने में दिक्कत होने लगी तो अम्मा उन के घर रोज जाने लगी । तिवारी चाचा के रिटायर होने के बाद तिवराइन चाची भी दिल्ली से वापस गांव आ गईं । दुर्भाग्य देखिए कि बारी-बारी तिवारी चाचा और फिर तिवराइन चाच चली गईं । तिवराइन इया रह गईं । बेटा पतोहू चले जाएं , मां रह जाए , कितना कष्टकारी होता है । मैं समझता हूं , सौ साल से भी ऊपर जिया होगा तिवराइन इया ने । लेकिन अम्मा और उन का संबंध सर्वदा फूल की तरह खिला रहा । सुगंध से भरा रहा । आज भी वह फूल और उस की सुगंध , उस की सुबास हमारे परिवार के बीच जस की तस है । न अम्मा को उन से कोई शिकायत हुई , न तिवराइन इया को अम्मा से । तिवारी परिवार जैसे हमारे संयुक्त परिवार का ही हिस्सा है अब । तिवराइन चाची तो खैर अम्मा की सखी ही थीं । तिवराइन चाची ने अपनी खुशी शुरू में अपनी ननद के बच्चों में ढूंढी । उन के बच्चों को दिल्ली में अपने साथ रखा । उन को पढ़ाया-लिखाया , बड़ा किया । फिर अपने देवर के बच्चों को भी दिल्ली में अपने साथ रखा । पढ़ाया-लिखाया और बड़ा किया । तो इन सभी बच्चों ने भी तिवराइन चाची को मां से भी ज़्यादा सम्मान दिया , गरिमा दी और जान लुटाई ।

जब मैं दिल्ली रहा पांच साल तब अम्मा की सखी यह तिवराइन चाची दिल्ली में ही रहती थीं । जब विवाह नहीं हुआ था तब भोजन की बड़ी समस्या होती मेरी । घर में भोजन मैं बनाता नहीं था । होटलों में जल्दी अरहर की दाल नहीं मिलती थी तब तिवराइन चाची की याद आती थी । जाते ही बिन कहे दाल भात बन जाता । और फिर तिवराइन चाची ही क्यों , अम्मा की एक और सखी हमारी मामी भी तो थीं दिल्ली में । मामा के गांव की यह मामी मामा की पट्टीदार भी नहीं हैं पर सगी मामी से भी ज़्यादा ममत्व देती हैं , आज भी देती हैं । सौभाग्य देखिए कि अम्मा और इन मामी के सखी बनने का भी मैं साक्षी हूं । अपने गांव जैसी वर्जना तो यहां नहीं थी ननिहाल में , न उतने बैरियर और बाधाएं । पर औरतों के लिए क्या ससुराल और क्या मायका बंधन तो कभी जाते नहीं । बंधन , मर्यादा और कुछ इफ बट तो यहां भी थे । पुरुष प्रधान समाज आज भी पूरी तरह नहीं मुक्त करता औरतों को तो तब तो और मुश्किल थी । नाना-नानी , मामा-मामी लोगों की अनुमति लेनी ही थी । मामी के घर में भी यह वर्जनाएं थीं लेकिन यह सब मुश्किलें रुई की तरह आसान हो गईं । सखी बनने के लिए भेंट में कपड़े आदि की व्यवस्था हुई और दोनों एक दूसरे को मिठाई खिला कर , पान खिला कर , अंकवार भेंट कर समारोहपूर्वक पक्की सखी बन गईं । यानी प्रभावती पांडेय और दमयंती मिश्रा के सखी बनना तारीख़ में दर्ज हो गया ।

मामी बचपन में भी मुझे बहुत दुलार और ममत्व से देखती और रखती थीं , आज भी उन का वही ममत्व , वही दुलार मुझे नसीब है । उन को देख कर लगता है जैसे आज भी उन की गोद में खेल रहा हूं । आज भी वह देखते ही झूम जाती हैं और बाबू-बाबू कह कर खिलाने -पिलाने में व्यस्त हो जाती हैं । आज तक कभी उन को गुस्सा होते या भड़कते नहीं देखा । इतनी सदाशयता और मृदुता बहुत कम स्त्रियों में देखी है मैंने जैसी मामी में है । तो जब दिल्ली रहता था तब हमारे घर से नज़दीक मामी का ही घर था । मैं मानसरोवर पार्क में रहता था , मामी झिलमिल कालोनी में ।शायद ही कोई हफ्ता हो जिस में मामी के घर न जाता रहा होऊं । तिवराइन चाची और मामी दिल्ली की ठंड में जैसे मेरे लिए सर्वदा ममत्व की रजाई ले कर उपस्थित रहती थीं । इतना कि मैं ने वहां अकेले रहने पर भी कभी असुरक्षित नहीं महसूस किया । जब शादी के बाद गोरखपुर से दिल्ली पहुंचा सपत्नीक तो पत्नी को भीतर छुआई यानी भोजन बनाने की रस्म मामी ने ही करवाई । तिवराइन चाची तब के दिन गांव में ही थीं। अम्मा और अम्मा की यह सखियां पढ़ना लिखना न जानते हुए भी ममत्व की अनमोल संवेदना रचतीं मेरी यादों में आज भी ओस की तरह टटकापन ले कर उपस्थित हैं । अभी बीते जनवरी में दिल्ली जाना हुआ था । मामी के घर ही रुका था । मुझ पर उन का वह ममत्व जस का तस था । तीस साल पहले मामी अपना घर खरीद कर गाज़ियाबाद के ब्रज विहार कालोनी में बस गई हैं । उम्र के इस मोड़ पर उन का बढ़िया स्वास्थ्य चकित करता है । अभी भी वह घर के सारे काम पूरी निपुणता से करती हैं । इस से भी ज़्यादा मामी और मामा का जो आपसी सामंजस्य और साथ है उम्र के इस पड़ाव पर वह अदभुत है । यह शुरू ही से रहा है । लखनऊ में भी उन की बड़ी बेटी मालती रहती हैं सो लखनऊ भी मामी जब तब आती रहती हैं । कुछ समय पहले वह लंदन से लौटी हैं । लंदन में उन का नाती शरद जिसे हम लोग रिंकू कहते हैं रहता है । लंदन यात्रा की तमाम फोटो मामा मुदित हो कर दिखाते रहे थे । अपनी भी , मामी की भी । जैसे मैं अभी बचपन की यादों में डूबा हुआ हूं , वह लोग लंदन की यादों में डूबे हुए थे । ऐसे जैसे लंदन के बहाने मामा मामी का बचपन लौट आया हो । लंदन की तमाम फ़ोटो और यादों में भीगते उन दोनों को देखना अभिभूत कर गया ।

भगवती की माई यानी फेकना देवी मेरी अम्मा की कब सखी बन गईं , कब उन की आत्मीयता हो गई मैं यह जान भी नहीं पाया । मेरे लिए यह कौतूहल का विषय आज भी है । बताते हुए ज़रा संकोच होता है पर बताना भी ज़रूरी है । अम्मा हमारी छुआछूत में बहुत यकीन करती है । बतौर ब्राह्मण उस के कुछ आग्रह मुश्किल में सर्वदा डालते रहे हैं । खास कर खाने पीने के मामले में हद से अधिक । कहीं किसी यात्रा में तो बहुत ही मुश्किल हो जाती है । हफ्ते दस दिन की यात्रा में भी सिवाय फल के वह कुछ नहीं खाती । कहीं जल्दी पानी तक नहीं पीती । घर में भी उस की यह सारी कसरत चलती रहती है । अति की हद तक । उस के रहने पर किचेन में कर्फ्यू जैसा माहौल रहता है । किचेन से कुछ पका हुआ निकल कर वापस किचेन में नहीं जा सकता । रोटी भी नहीं । अगर वापस गया तो किचेन अपवित्र । उस का खाना पीना बंद । बात बेबात नहाना धोना । सर्दियों में भी भोर में ही उठ कर नहाना आदि इत्यादि बहुत सी बातें हैं । और भगवती की माई फेकना देवी जाति से कोइरी । और अम्मा की सखी । जो सुने वही अवाक । घर में भी चौतरफा विरोध । लेकिन कहा न कि अम्मा जब जो ठान लेती है , कैसे भी हो पूरा कर के ही दम लेती है । तो वह सारी मुश्किलों और बातों को दरकिनार करती हुई भगवती की माई से भी सखी बनी और अपने घर में ही । समारोहपूर्वक । वही कपड़ों के सेट , तेल, साबुन आदि का आदान प्रदान । मिठाई खिला कर , पान खिला कर , अंकवार भेंट कर सखी बनीं हमारी अम्मा और भगवती की माई । अम्मा की इस नई सखी समारोह का भी मैं साक्षी बना । मैं तब तक टीनएज हो चुका था । गोरखपुर से ख़ास इस काम के लिए गांव आया था । इस बार न अम्मा ने मुझे गोद में बिठाया , न भगवती की माई ने । हां , भगवती की माई ने ज़रुर मुझे अंकवार में भर कर अपना चेहरा थोड़ा ऊपर उठा कर बड़े ममत्व से निहारा । मैं तब तक अम्मा और भगवती की अम्मा से क़द में लंबा हो चुका था । भगवती की माई से अम्मा के सखी बनने की तफ़सील और यादें बहुत सारी हैं । पर एक दृश्य आंख और मन में अख़बार के किसी शीर्षक की तरह बसा पड़ा है अभी भी । शायद ही कभी उतरे मन और आंख से । तिजहरिया का समय था । भगवती की माई आईं हमारे घर । रंगीन साड़ी पहने , घूंघट लिए , हाथ में चंगेरी उठाए , चंगेरी में उपहार के सामान लिए हुए । भगवती साथ में । हमारे दुआर तक आती हुई भगवती की माई के पैर में जैसे कोई नदी समाई थी । नदी के बहने की उमंग समाई हुई थी । दुआर पर आते ही नदी जैसे थम गई । जैसे कोई बांध आ गया हो नदी की राह में । वह ग़ज़ल का एक मिसरा है न , रुके रुके से कदम रुक रुक के बार-बार चले । लगभग यही मंज़र था भगवती की माई के कदमों का । बाहर के ओसारे में पहुंचते-पहुंचते उन की रफ़्तार में जैसे और कांटे आ गए थे । वह चलतीं , रुकतीं , फिर चलतीं और जैसे सारा समुंदर लांघती हुई वह बाहर का ओसारा पार कर ड्योढ़ी पार कर भीतर के ओसारे में आ गईं । आते ही अम्मा ने उन्हें अंकवार में भर लिया । रात के अंधेरे में होने वाली मुलाक़ात आज दिन के उजाले में संभव बन गई थी । जाति , वर्जना और अवरोध तोड़ती हुई दोनों सखियां किसी नदी की तरह अनूठा संगम रच रही थीं । सांवली सलोनी भगवती की माई जमुना सरीखी बहती हुई गंगा सरीखी हमारी अम्मा से भर अंकवार मिल रही थीं और संगम सा ही दृश्य रच रही थीं । लेकिन गांव में अब यह खबर थी । हमारी अम्मा और भगवती की माई की सखी बनने की । तरह-तरह की चर्चा , तरह-तरह की टिप्पणियां । लेकिन दोनों ही सखियों ने इन सब पर कान नहीं दिया । अपनी गली में जब कभी भगवती की माई देखतीं मुझे तो हाथ पकड़ कर बड़ी आत्मीयता से बतियातीं । हालचाल पूछतीं । बहुत मगन हो कर मुझे देखतीं और जैसे विह्वल हो जातीं । भगवती के पिता राम बहाल मौर्य भिलाई में कोई काम करते थे । साल , दो साल में घर आते थे । अम्मा के सखी बनने के बाद जब वह गांव आए तब प्रसन्न मन से वह हमारे घर भी आए । दरवाजे पर पिता उपस्थित थे । शाम का समय था । मेरे पिता से शायद वह सखा भाव की उम्मीद लिए आए थे पर पिता ने उन्हें कुछ बहुत महत्व नहीं दिया । वह गर्मजोशी नहीं दिखाई , जिस गर्मजोशी से वह आए थे । औपचारिक हालचाल पूछ कर रह गए । वह चुपचाप चले गए । फिर कभी नहीं आए हमारे घर । लेकिन भगवती की माई जब-तब आती थीं ।

अब जब मुड़ कर वह दृश्य याद करता हूं तो समझ में आता है कि भगवती की माई के क़दम हमारे दुआर पर आते ही क्यों थम गए थे । उन के पांव में बसी नदी क्यों रुक सी गई थी । निश्चित ही उन्हें आशंका रही होगी कि कहीं उन्हें दरवाजे से लौटा न दिया जाए । कहीं मना न कर दिया जाए । वैसे भी भगवती की माई बोलती बहुत कम थीं , काम बहुत करती थीं । घर से ले कर अपने सब्जी के खेत तक । भगवती भी कम बोलता था और भगवती के पिता भी । भगवती की माई भी तीन साल पहले 2014 में ही दुनिया छोड़ गईं ।

तिवराइन चाची 2007 और तिवराइन इया 2008 में ही जा चुकी हैं । गांव में अपनी सखियों के बिना अकेली है हमारी अम्मा । खास कर सुपर सखी तिवराइन इया के जाने के बाद बिलकुल अकेली । तिवराइन इया थीं तो अम्मा की जैसे प्राण वायु थीं । सुबह शाम का , रोज-रोज का मिलना था । बिना बतियाए भी दोनों एक दूसरे का दुःख सुख समझती थीं । तिवराइन इया अम्मा का जैसे हर दुःख का मरहम थीं । वह कहती नहीं है , कहना नहीं जानती है पर मैं जानता हूं अम्मा का मर्म । उस के भीतर का दुःख , संवेदना और सिलवटों को , उस के हर घाव को । वह बहुत मिस करती है अपनी सखियों को । हरदम मद्धम स्वर में लेकिन कम ही बोलने वाली , सिर पर सीधा पल्लू किए , मुस्कुराती हुई , बिना किसी विवाद के जीने वाली तिवराइन इया जब से इस दुनिया से गई हैं हमारी अम्मा भी बहुत बदल गई है । जाने यह उस का विछोह है , अकेलापन है कि कोई संत्रास । समझ नहीं आता पर अब उम्र के इस मोड़ पर जैसे बागी हो गई है । ऐसे जैसे खुद से ही वह नाराज हो चली है। कभी बिना किसी शिकायत के जीवन जीने वाली अम्मा को अब हर किसी से बात बेबात शिकायत ही शिकायत है । हर सुख में वह कोई दुःख खोज लेती है और रिसिया जाती है । डांट डपट देती है । किसी सुप्रीमो की तरह । जैसे भी हो तिवराइन इया के घर भी रोज जाती है , साधिकार कोई गलती खोज कर उन के बड़े हो चुके नातियों को डांट आती है । छोटी चाची और उन के बच्चे भी उस की किसी बात का जवाब नहीं देते । गरिमा बनाए रखते हैं , अम्मा को पूरा सम्मान दे कर । मैं जब गांव जाता हूं तो कहीं और जाऊं न जाऊं शिव जी के मंदिर और तिवारी चाचा के घर पांव अपने आप पहुंच जाते हैं । बचपन से ही यह जैसे रवायत सी है । लेकिन आंखें तिवराइन इया को जैसे हेरती रहती हैं । कि अभी पल्लू ठीक करती हुई घर के किसी कोने से मुस्कुराती हुई यह पूछती हुई बाहर आ जाएंगी , ‘ का बाबू , कब अइल है !’

तो क्या अम्मा उन के घर रोज तिवराइन इया की ही तलाश में जाती है ? अपनी सुपर सखी की खोज में ।और वह नहीं मिलतीं तो बच्चों को डांट डपट कर अपनी खीझ मिटाती है । अपने घर में भी नहीं मिलतीं तिवराइन इया तो घर में भी सब से रिसिया जाती है ।

क्या पता ।

यह बात अब अम्मा से मैं पूछ भी नहीं सकता । क्यों कि यह सब तो उस के भीतरी मन में बसा हुआ है । अंतर्मन में । जाने वह खुद भी जानती है कि नहीं इस बात को । तो वह बताएगी भी कैसे । फिर यह पूछ कर उस का दिल भी दुखाऊं मैं कैसे । सोचा कई बार पर सोच कर रह गया हूं । नहीं पूछ पाता । होते हैं जीवन में कुछ सवाल जो नहीं पूछे जाते , जिन का कोई जवाब भी नहीं होता । अम्मा की सखियां भी , उन की याद भी ऐसा ही सवाल है । अम्मा की सखियों को जब मैं मिस करता हूं तो अम्मा कितना करती होगी , मैं समझ सकता हूं । लेकिन पूछ नहीं सकता । कहा न कि होते हैं कुछ सवाल जो पूछे नहीं जाते ।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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