अम्मा के नीलकंठ विषपायी होने की अनंत कथा
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
मेरी ज़िंदगी में हमारी अम्मा उपन्यास हैं तो हमारे बच्चों की मम्मी कहानी। और कि दोनों ही के बिना हमारी ज़िंदगी पूरी नहीं होती। यह फ़ोटो तब की है जब हमारे बच्चे नहीं थे। लेकिन मां और बच्चे की कहानी कभी पुरानी नहीं होती। भले आप के कितने बच्चे हो जाएं। यही तो एक ऐसा सच है, ऐसा संबंध है जो सचमुच शाश्वत और अनिर्वचनीय है। मां को ले कर समूची दुनिया की राय एक है।
हम जब छोटे थे और पढ़ते थे तो अम्मा गांव में रहती थीं। हम बड़की माई के साथ शहर गोरखपुर में। संयुक्त परिवार था। तेरा-मेरा का बंटवारा नहीं था। घर में तब तीन स्त्रियां थीं। एक दादी, जिन्हें हम इया कहते थे। वह हमारी छावनी पर रहती थीं। बाबा के साथ शिवराजपुर में। अम्मा बैदौली गांव में। और बड़की माई गोरखपुर के इलाहीबाग में। यह तीनों स्त्रियां अपनी-अपनी जगह की गृहस्थी संभालती हुई, बच्चों को संभालती हुई। हम सारे बच्चे छुट्टियों में अम्मा और इया के साथ बारी-बारी रहते। तीनों ही जगह बच्चों के लिए सब कुछ था। इन का उन का, तेरा मेरा का भाव नहीं था। तीनों ही स्त्रियों में गज़ब का अपनापा और सभी बच्चों के लिए असीम स्नेह था। पुरुषों में भी यही स्थिति थी। वैसे तो हेड आफ़ द फ़ेमली हमारे बाबा ही थे। पर शिवराजपुर का काम काज वह देखते थे, बैदौली का पिता जी, और इलाहीबाग का बाबू जी। हां हम अपने ताऊ जी को बाबू जी ही कहते थे। बाबू जी ने मेरे पिता जी को भी पढ़ाया और मुझे भी। उन का पूरे परिवार पर इतना स्नेह था, इतनी ज़िम्मेदारी उठाते थे वह कि क्या कहें। अदभुत था उन का भाव भी सब को साथ ले कर चलने का। और इतना कि बताते हुए ज़रा संकोच होता है कि हम हाई स्कूल तक यह जान ही नहीं पाए कि हमारे वास्तविक पिता कौन हैं? ताऊ जी को बाबू जी कहता और पिता जी को बबुआ। घर में सभी बच्चों का संबोधन इन दोनों के लिए यही था। ताऊ जी के बच्चे भी दोनों के लिए यही संबोधन रखते। भ्रम सिर्फ़ यही और इतना ही नहीं था। पिता जी लोग बाबा को चाचा बोलते तो हम सोचते कि हमारे रियल बाबा कौन हैं? यही स्थिति नाना जी के साथ भी थी। अम्मा और मामा जी लोग उन्हें भइया बोलते। खैर यह सारी लंबी कहानी है। फिर कभी। जब फ़ार्म भरना हुआ अपने हाथ कि पिता का नाम क्या है तो पता चला कि हमारे पिता जी तो हमारे बबुआ हैं।
लेकिन अम्मा के लिए कभी यह भ्रम की स्थिति नहीं आई। कि सोचना पड़े कि हमारी अम्मा कौन हैं? अम्मा होती ही ऐसी हैं कि बताने और जानने की ज़रुरत नहीं पड़ती किसी को। वह चाहे यशोदा हों या देवकी। बच्चा जान ही जाता है। कि हमारी अम्मा कौन हैं। किसी भीड़ में लाखो-करोड़ो अम्मा हों और लाखो-करोड़ो बच्चे। सब अपना-अपना पहचान लेंगे। मुझे नहीं भूलता कि जब शहर पढ़ने के लिए जाता तो अकेले में अम्मा से लिपट कर कितना तो रोता था तब। अम्मा के आंसू तो बाहर आ कर सब के सामने घूंघट में छुप जाते थे पर मेरे आंसू सब को दिख जाते थे।
मेरा गांव सड़क पर ही है। हाइवे पर। गांव का नाम है बैदौली । गोरखपुर-बनारस हाइवे पर गोरखपुर से ठीक पैतीसवें किलोमीटर पर। अब तो इस सड़क पर इतनी ट्रैफ़िक है कि कई बार सड़क पार करना मुश्किल हो जाता है। रोज-ब-रोज दुर्घटनाएं आम हैं। लेकिन तब के दिनों सवारियों की इतनी रेलमपेल नहीं थी। खैर, तब सड़क पर आ कर सवारी का इंतज़ार करते-करते सब लोगों को छोड़ कर मैं पानी पीने के बहाने फिर-फिर घर जाता रहता। और अम्मा मुझे घर के मुख्य दरवाजे के पीछे, एक दरवाज़ा उंठगाए, एक दरवाज़ा खोले बैठी मिल जाती थी। वह जैसे मेरे इंतज़ार में ही बैठी रहती। हम फिर गले लग कर रोते। यह सिलसिला बार-बार का होता। हर बार का होता। जब तक बस नहीं आती यह सिलसिला रुकता नहीं। लोग चिढ़ाते भी खूब थे कि बड़ी प्यास लग रही है ! लेकिन मुझे किसी के चिढ़ाने आदि की परवाह नहीं होती थी तब। बस अम्मा ही अम्मा होती थी। गोरखपुर आ कर भी अम्मा की याद में छुप-छुप कर रोता। रोहिणी नदी के किनारे रोता, मंदिर में बैठ कर रोता। स्कूल में रोता। अम्मा की याद दिन-रात, सांस-सांस में समाई रहती। गांव जब-जब जाता अम्मा को लगता कि क्या बना दे क्या खिला दे ! घटनाएं और किस्से तो अनंत हैं इस सब के। पर एक मासूम सा किस्सा बताऊं। जाड़ों में बड़े दिन की छुट्टी की बात है। मुझे गंजी बहुत अच्छी लगती है। घर में बच्चों की भीड़ बहुत होती तब। अम्मा हमारे लिए तब गंजी भून कर हमारे सिरहाने रख देती थीं रात में। कि मैं सुबह उठ कर चुपचाप खा लूंगा। रात में वह घर का काम काज निपटा कर देर में सोने आतीं। और सुबह जल्दी ही उठ कर काम में लग जातीं। सो मुझे जगाती नहीं थीं। एक सुबह मेरी चचेरी बहन खेलने के लिए जगाने आई तो जगाते-जगाते उसे मेरे सिरहाने गंजी मिल गई। वह अब रोज अम्मा के कमरे में मुझे जगाने आने लगी। एक दिन अम्मा ने धीरे से गंजी के बारे में पूछ लिया तो मैं ने कहा कि नहीं मिलती। तब सुबह अम्मा को उस बहन का रोज मुझे जगाने आने का सबब पता चला। तो वह उसे अलग से गंजी देने लगीं। लेकिन उस बहन ने वह राज़ खोल दिया एक दिन अपनी बेवकूफी में। अम्मा को इया से बहुत डांट खानी पड़ी। पर वह प्रतिवाद में कुछ नहीं बोलीं। अम्मा मुझ से अपने स्नेह के लिए घर में असंख्य बार डांटी गईं, बेज्जत हुईं पर कभी प्रतिवाद भी किया हो मुझे नहीं याद आता। मुनव्वर राना का यह शेर मेरी ज़िंदगी में भी बेहिसाब घटा है। कि अब क्या कहूं।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है ।
बल्कि वह तो गुस्सा ही नहीं होती थी और मेरे सारे दुख, सारे आरोप भी अपने ऊपर ले लेती थी। संयुक्त परिवारों में तब किसी औरत का जीना क्या गांव, क्या शहर कितना जुल्म भरा होता था यह सोच कर, याद कर आज भी कलेजा मुंह को आता है। एक बार क्या हुआ कि मुझे गोरखपुर में बड़ी वाली चेचक निकल आई। पता चला कि उसी समय गांव में अम्मा को भी चेचक निकल आई। दोनों ही बहुत कमजोर हो गए। जब हम छुट्टियों में गांव आए तो इया ने विशेष प्रबंध किया हमारे स्वास्थ्य के लिए। अम्मा के लिए भी। खास तौर पर खाने-पीने और दूध आदि का। लेकिन उस में से अम्मा सारा कुछ मुझ पर ही न्यौछावर कर देतीं। थोड़ा-थोड़ा कर के सारा दूध भी मुझे ही पिला देतीं। अपने हिस्से का भी। पर मुझे बराबर हिदायत भी देती जातीं कि किसी से बताना नहीं। एक दिन इया ने मुझ से अकेले में पूछ लिया कि मुझे मेरी अम्मा दूध तो नियमित दे रही हैं न ! मैं चुप रहा। वह बार-बार पूछने लगीं। तो मैं ने कह दिया कि नहीं। अब क्या था ! अम्मा की जैसे शामत ही आ गई। इया ने अपने भदेस लहजे में अम्मा को जो-जो नहीं कहना चाहिए, सब कह दिया। सार्वजनिक रुप से। पेटही, डाइन, डाकिन, चुड़इल आदि विशेषणों से भी नवाजा। पर मैं अम्मा की हिदायतों से बंधा चुप-चुप रोता रहा अम्मा के इस अपमान से। और अम्मा अपनी घूंघट में सब कुछ सहती रहीं रोती हुई। लेकिन अम्मा ने एक बार भी पलट कर इया से नहीं कहा कि सारा दूध, अपने हिस्से का भी वह मुझे ही पिला देती हैं। अपने तो एक बूंद भी नहीं छूतीं। फिर तो कभी बड़की माई, कभी फुआ लोग यहां तक कि गांव की और औरतों के बीच भी हमारीे अम्मा पेटही, डाइन, डाकिन, चुड़इल आदि विशेषणों से नवाजी जाने लगींं। उन की वह विवशता, उन का वह अपमान सोच कर आज भी मेरी आंखें भर-भर आती हैं। पर उस का प्रतिकार मैं तभी क्यों नहीं कर पाया यह सोच कर आज भी अपने पर गुस्सा आता है। तब शायद उम्र भी मेरी कम थी। तीसरी या चौथी में पढ़ता था। और कि सोचने समझने की वह क्षमता नहीं थी। बस एक ही धुन और एक ही बात थी मन में कि अम्मा ने मना किया है तो किसी से नहीं कहना है कि अम्मा मुझे दूध देती हैं। लेकिन अम्मा ने क्यों नहीं मुंह खोला तब? इतना कुछ सहने और सुनने के बाद भी? आज तक मैं समझ नहीं पाया। घर में अम्मा को मिले ऐसे और भी बहुतेरे दंश मेरे मन में रह-रह कौंध जाते हैं। किसी व्याग्र के वध की तरह। लेकिन अम्मा तब चुपचाप सारा जहर अकेले ही पी जाती थीं। कैसे? सारे इतने और तंज और ताने अपने मन पर लिए घूंघट काढ़े वह चुपचाप काम करती रहती थीं। निरंतर। कितना धैर्य और कितनी शक्ति भगवान ने उन्हें दे रखी थी, आज भी सोच कर मैं विचलित हो जाता हूं। ऐसी घटनाएं अनंत हैं। अम्मा के नीलकंठ विषपायी होने की कथा अनंत है।
खैर बाद के दिनों में मैं गोरखपुर से दिल्ली चला गया। तो हफ़्ते में कम से कम दो चिट्ठी अम्मा को लिखता। अम्मा मेरी पढ़ी-लिखी नहीं हैं। गांव में किसी से तब चिट्ठी लिखवाना कितना मुश्किल काम था, यह मैं जानता था। तो भी। क्यों कि जब मैं था तब अम्मा की चिट्ठियां मैं ही लिखता था। अम्मा को चिट्ठी लिखवानी भी कहां होती थी? नाना, मामा, मौसी लोगों को बस। लेकिन अम्मा की दिक्कत यह थी कि वह एक ही बात को दस बार बताती और बीस बार पढ़वा कर उस को सुनती। तब उसे संतोष होता था। पता नहीं और सब की अम्मा क्या करती रही होंगी तब के दिनों पर मेरी अम्मा यही करती थीं। सो ज़्यादातर लोग कतराते अम्मा की चिट्ठी लिखने में। तो भी अम्मा को मैं दिल्ली से चिट्ठी लिखता। लिखता तो हमारे बाबा याद आ जाते। हमारी एक चचेरी बहन बैंकाक में रहती हैं। उन दिनों शादी के बाद वह बैंकाक जा चुकी थीं। बाबा को चिट्ठी लिखती थीं वह बहुत सारी। और बाबा उसे पढ़ते और रोते। छल-छल कर रोते। आते-जाते लोगों को बुला-बुला कर दीदी की चिट्ठी पढ़ कर सुनाते। दीदी की चिट्ठी वह रामायण में बहुत संभाल कर रखते। रोते-रोते पढ़ते हुए सुनाते सब को और कहते कि देखो न, हमारी नतिनी हम से कितनी दूर चली गई है ! रोते-रोते आंसुओं से चिट्ठियां धुल जातीं लेकिन बाबा के आंसू नहीं रुकते। चिट्ठी सुनने वाले लोग भी रोने लगते। तो शायद हम भी अपने बाबा की परंपरा में अम्मा को चिट्ठी लिखते हुए रोते। रोते और लिखते। यह रोना-धोना मेरे जीवन में भी बहुत है। आप यकीन नहीं करेंगे कि एक समय जब पत्नी भी गांव रही थीं अम्मा के साथ तो जब मैं दिल्ली चलने के लिए विदा लेता था पहले पत्नी से तो पत्नी के गले लग कर भी रोता था। बाहर बरामदे में आ कर अम्मा के लिए रोता था। यहां तक कि भाइयों की पत्नी विदा कराते समय उन की ससुराल में उन को रोता देख मैं भी रोता रहा हूं। आज भी बात-बेबात रोना गया नहीं है। किसी सिनेमा या धारावाहिक का कोई भाऊक दृश्य भी मुझे रुला ही देता है। किसी कहानी, उपन्यास का कोई दृष्य या चरित्र भी। अपनी ही कहानियों या उपन्यासों को लिखते हुए भी कई बार मैं रोया हूं। और कि बाद में भी यह चरित्र हमारे हमें रुलाते ही रहते हैं। समय-बेसमय। किसी का दुख देख कर सहसा आंसू गिर जाता है क्या करुं? तो परिजनों की चिट्ठी-पत्री तो रुलाती ही हैं। गांव आते-जाते अम्मा से विदा लेने की बेला में हम आज भी रो पड़ते हैं क्या करें? हां अम्मा अब मुझे सड़क तक विदा देने आ जाती है। और जब तक मैं निकल न जाऊं, निहारती रहती है।
खैर,बाद के दिनों में शादी हो गई। तो अम्मा चिट्ठी में लिखवाती कि बाबू तुम्हारी चिट्ठी अब कम होती जा रही है। और यह शिकायत दिन-ब-दिन बढ़ती गई। दिल्ली पहले भी पिता जी के साथ मुझे मिलने आती रहती थी पर वह कुछ दिन हमारे साथ रहने पत्नी को सास का सुख देने के लिए दिल्ली रही। यह फ़ोटो तभी की है। बाद में हम लखनऊ आ गए। तो फ़ोन लग गया घर में यहां भी और गांव में भी। फ़ोन पर रोज सुबह शाम बात होने लगी। फिर वह कहने लगी कि बाबू अब फ़ोन कम होने लगा है। यह शिकायत आज मोबाइल युग में भी जारी है अम्मा की। भले सुबह ही बात हुई हो लेकिन शाम को ही वह कहेगी कि फ़ोन ही नहीं आ रहा आजकल ! बताता हूं कि अभी सुबह ही तो बात हुई थी। तो कहेगी कि का करें यही तो सहारा है। अम्मा हमारी गुस्सा भी बहुत होती हैं। कभी-कभी।
मैं तब टीन एज था। सिनेमा देखने का शौक चढ़ा था। हम और हमारे चचेरे भाई जो एक ही साथ पढ़ते थे। एक महीने के हम से बड़े। लेकिन हम एक ही साथ उठते-बैठते, सोते-पढ़ते थे। एक ही रंग, एक ही ढंग के कपड़े पहनते थे। बड़की माई के साथ जब चलते हम दोनों तो रास्ते में औरतें जिज्ञासावश पूछतीं कि जुड़वा हैं क्या? बड़की माई बताते-बताते थक जातीं कि नहीं यह देवर का लड़का है। लेकिन औरतों के सवाल नहीं। खैर, हम दोनों ने मिल कर साल भर में कोई छ सिनेमा देखे छुप-छुप कर। एक बार इस का खुलासा हो गया। घर में। घर में अलग-अलग की पूछ्ताछ में दो-तीन सिनेमा का नाम हम ने बताया तो दो-तीन सिनेमा का नाम भाई ने। अब अम्मा नाराज ! इतनी नाराज कि पूछिए मत। सिनेमा देखने के लिए पैसा कहां से आया? पता चला कि कुछ अम्मा ने भी दिया था। अब अम्मा की भी क्लास ! वह कहती कि यह पैसा कुछ पौष्टिक खाने में लगाया होता। सिनेमा की सूची में एक नाम था राजा जानी। उस को इस पर भी बहुत ऐतराज था। वह कहती कुल देखलस त देखलस, ई राजा जानी काहें देखलस ! इतना उग्र रुप अम्मा का इस से पहले नहीं देखा था। बहुत दिनों तक उन्हों ने न मुझ से बात की न मेरी तरफ देखा। मैं जैसे तब के दिनों मर सा गया था, अम्मा का यह गुस्सा देख कर।
लेकिन अम्मा का एक सिनेमा प्रसंग और है। क्या हुआ कि एक बार छोटा भाई बीमार पड़ गया। उस के इलाज के लिए उसे गोरखपुर लाया गया। अम्मा उस को ले कर आईं। जब एक दिन डाक्टर ने उसे फिट घोषित कर दिया तो अम्मा बड़ी खुश हो गईं। साथ में पिता जी यानी बबुआ थे और हमारी एक बुआ भी, हम भी। बुआ हमारे पिता जी से उम्र में काफी बड़ी थीं। और उन को ठीक से दिखता नहीं था। मोतियाबिंद और समलबाई के चक्कर में धुधला सा दिखता था। वह किसी तरह अपना काम चला लेती थीं। खैर जब भाई के ठीक हो जाने की घोषणा की डाक्टर ने तो मारे खुशी के अम्मा ने बुआ से कहा कि वह बबुआ से कहें कि सिनेमा दिखा दें। तब के दिनों चलन भी यही था कि औरतें पति से ज़्यादातर अपनी बात ननद, सास, देवर या बच्चों के मार्फ़त कहती-कहलवाती थीं। तो अम्मा ने अपने उसी धर्म का पालन किया। और बुआ ने अम्मा की इच्छा का अनुपालन। बबुआ से बुआ ने बिना लाग लपेट के कह दिया कि, ‘ ए बाबू एक काम कर।’
‘का ?’ बबुआ ने पूछा।
‘ सनीमा देखा द !’ बुआ ने कहा। वह बुआ जिन को साफ दिखता नहीं था।
‘ठीक है !’ कह कर बबुआ मुसकुराए। फिर हम सब को उन्हों ने एक रिक्शे पर बिठाया। खुद साइकिल पर। और घर के रास्ते पर चल निकले। और जहां-जहां पोस्टर दिखता वह बुआ को संबोधित करते हुए कहते कि, ‘ दीदी देखु सिनेमा !’ और दीदी, अम्मा और हम सिनेमा देखने लगते। तब के दिनों बहुत पोस्टर भी नहीं लगते थे। तो भी रास्ते भर जितने पोस्टर दिखे, बबुआ उन्हें अपनी दीदी को दिखाते। और हमारी अम्मा अपनी घूंघट से झांक कर और हम भर आंख, आंख फैला कर देखते। बुआ भी देखने की कोशिश करतीं। घर लौट कर हम सब बहुत खुश थे। अम्मा भी, हम भी और बुआ भी। घर पहुंचने के थोड़ी देर बाद मैं ने घर की बाल मंडली में अपनी बाल सुलभ गुरुर और खुशी में ऐलान कर दिया कि आज हम लोगों ने सिनेमा देखा ! यह सुन कर सब के हक्के-बक्के रह गए। लेकिन एक बड़ी चचेरी बहन चौंकीं यह सुन कर। बोलीं, ‘इतनी जल्दी? डाक्टर को भी दिखा लिया, सिनेमा भी देख लिया? और घर भी लौट आए?’
‘ और क्या?’ मैं ने जोड़ा, ‘ और कोई एक-दो ठो नहीं, कई ठो देखा !’
‘ कहां देखा, किस हाल में देखा ?’ दीदी ने सवाल जारी रखा, ‘ बैठ कर देखा कि खड़ा हो कर देखा?’ उस को लगा कि ज़्यादा से ज़्यादा बाइस्कोप देखा होगा।
‘ रास्ते भर देखा। रिक्शा पर बैठ कर देखा।’ मैं ने उसी सुरुर और ठसक में बताया।
यह सुन कर वह हंसने लगी। बोली, ‘ हा हा ! पोस्टर देख कर आए हो।’
और मैं अड़ा रहा कि, ‘ सिनेमा देख कर आया हूं। और कई ठो देख कर आया हूं।’ जाहिर है तब तक मुझे पोस्टर और सिनेमा दोनों ही की जानकारी नहीं थी। कक्षा तीन में तब पढ़ता था।
अम्मा की ऐसी बातें और किस्से कभी खत्म होने वाले नहीं हैं।
लेकिन एक किस्सा और। हमारी बड़ी बेटी जब चलने फिरने लगी तो अम्मा ने पत्नी से कहा कि अब यह नातिन गांव में मेरे साथ रहेगी। इस के साथ मन लगा रहेगा। अम्मा ने कहा कि अब घर में अकेले अच्छा नहीं लगता। बिना बच्चों के। हमारे सभी भाई तब तक काम काज के चक्कर में घर छोड़ चुके थे। पत्नी ने कहा कि अभी नहीं। कुछ दिन और रहने दीजिए। अम्मा मान गई। फिर जब कुछ दिन बाद कहा अम्मा ने तो पत्नी ने यह कह कर टाल दिया कि जब दूसरा बच्चा हो जाएगा तब। अम्मा मान गई। और जब दूसरी बेटी भी पैदा हो गई और चलने फिरने लगी तो अम्मा एक बार लखनऊ आईं। जब वापस गांव जाने लगीं तो पत्नी से कहा कि अब इसे ले जा रहे हैं हम। पत्नी ने कहा कि पढ़ेगी-लिखेगी कैसे? तो अम्मा बोलीं फिर छोटी वाली नतिनी को ले जा रहे हैं। यह तो नहीं अभी पढ़ेगी-लिखेगी? पत्नी मान गईं। हम अम्मा-पिता जी को छोटी बेटी के साथ ले जा कर ट्रेन में बिठा आए। स्टेशन से बाहर आते ही पत्नी रोने लगीं। तब हम चारबाग स्टेशन पर थे। कहने लगीं चलिए जल्दी से बादशाह नगर स्टेशन। मैं ने पूछा क्यों? किस लिए? बोलीं, बेटी को वहीं उतार लेंगे। मैं ने कहा कि यह मुझ से नहीं होगा। हम नहीं गए बादशाह नगर। घर आ कर पत्नी ने ज़िद पकड़ ली कि आज ही गोरखपुर चलिए, बेटी को वापस ले आएंगे। मैं ने फिर मना किया और समझाया कि बच्चों की तरह बात मत करो। लेकिन पत्नी ने हफ़्ते भर में ही रो-रो कर बुरा हाल कर लिया। हफ़्ते भर में ही हम गांव पहुंच गए। हमें देखते ही अम्मा मुसकुराई। वह सब समझ गई। छोटी बेटी को देखते ही पत्नी रोने लगीं। पर छोटी बेटी पत्नी के पास आने को तैयार ही नहीं। मैं ने बुलाया तो मेरे पास भी नहीं आई। बड़ी मुश्किल से शाम को हमारे पास आई। पर गोद में आने को फिर भी तैयार नहीं। पता चला कि वह डेढ़-दो साल की बेटी मां बाप दोनों से मनोवैज्ञानिक रुप से नाराज थी। कि हम को अचानक अपने आप से अलग क्यों किया। यह बात बहुत बाद में एक मनोविज्ञानिक मित्र ने बताई। खैर बाद में सास-बहू मिलीं। गिले-शिकवे हुए। और अंतत: अम्मा ने जो एक बात पत्नी से कही वह आज तक मन में किसी घंटी की तरह बजती रहती है।
पहले तो अम्मा ने पत्नी से चुहुल की और कहा कि हमारे बेटे को तुम अपने साथ रखे हो तो तुम्हारी बेटी को हम अपने साथ क्यों नहीं रख सकते? पत्नी हमारी अम्मा का गले लिपट कर झूल गईं। और बोलीं हम दोनों के बिना नहीं रह सकते। ना आप के बेटे के बिना, ना अपनी बेटी के बिना ! तो अम्मा बोलीं, बताओ तुम तो ह्फ़्ते भर नहीं रह सकी बेटी के बिना, लेकिन हम कैसे यहां बिना अपने बच्चों के अकेले रहते हैं, कभी सोचा है? कैसे हम गुज़र करते हैं? मैं वहीं बैठा था। मैं रो पड़ा। अम्मा की यह यातना सुन कर। तब से अब तक हम और हमारे भाई अम्मा को अब कभी अकेले नहीं रहने देते। कोई न कोई साथ होता ही है। चाहे जैसे। इन दिनों सब से छोटे भाई की पत्नी और बच्चे अम्मा के साथ रहते हैं। छोटे भाई ने यह बड़ा काम कर रखा है। अपने को असुविधा में रख कर भी। हालां कि हमने और भाइयों ने बारहा कोशिश की है कि अम्मा-बबुआ यहां लखनऊ में हमारे साथ ही रहें। और हर बार हार गए हैं। वह गांव की सत्ता छोड़ कर लखनऊ आ कर रहने के लिए किसी कीमत पर तैयार ही नहीं होते। आते-जाते रहते हैं। पर यहां रहने की बात पर ही भड़क जाते हैं। कहते हैं कि गांव के घर में ताला नहीं लगने देंगे। इतना ही नहीं अम्मा बराबर मुझे आगाह करती रहती है कि हमारे बाद भी गांव में ताला नहीं लगने देना है। यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। कोशिश तो यही रहेगी कि अम्मा का कहा पूरा करुं। पर अब भविष्य क्या तय करता है यह देखना बाकी है। आप को यह बताते हुए भी अच्छा लगता है कि हमारी पत्नी और अम्मा के बीच मां बेटी का रिश्ता है। सास बहू का नहीं। यह बात भी जान कर आप शायद हंसें कि जब शादी के बाद पत्नी अपने मायके गईं तो उन के घर के लोग आज भी वह मंजर याद कर खुश हो जाते हैं कि रात-रात में उठ कर पत्नी रोने लगती थीं। लोग पूछते कि क्या हुआ तो पत्नी रोते हुए ही कहतीं कि अम्मा जी की याद आ रही है। आज भी कितनी भी मुश्किल की घड़ी हो पत्नी जब अम्मा को देख लेती हैं तो जैसे उन की सारी मुश्किल आसान हो जाती है, सारी तकलीफ़ हवा हो जाती है। मारे खुशी के हमारे बच्चे तक कह देते हैं कि अब दादी आ गई है, कोई बात नहीं। हमारी तो खैर अम्मा ही हैं। और मैं जब तब बड़े नाज़ से कहता ही रहता हूं कि सारी दुनिया एक तरफ, हमारी अम्मा एक तरफ ! तो आप क्या समझते हैं वैसे ही हवा मेंं कह देता हूं? यों ही? हरगिज नहीं। हमारी ज़िंदगी का यह एक ही तो अनमोल सच है ! हमारी अम्मा और उन की अनंत बातें हमारी ज़िंदगी से कभी खत्म नहीं होने वालीं। अम्मा की अमराई और यह शान और मान हमारे जीवन में सर्वदा बनी रहे तो और क्या चाहिए
भला? मुनव्वर राना की गज़ल में जो कहें तो :
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
फ़िलहाल तो सुधांशु उपाध्याय की यह कविता पढ़िए और हमारी अम्मा के कुछ और रुप इन में से भी बांचिए।
अम्मा : एक कथा गीत/ सुधांशु उपाध्याय
थोड़ी थोड़ी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
शॉल सरक कर कांधों से उजले पाँवों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फटी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के ऊपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनिया की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन-सी जलती-बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गूँज रही वह धीमी-सी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
दूर गाँव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फूलों से भी अच्छी है
दादी को वह हँसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा मैं था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे-छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे-गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता-पत्ता सेती थी
कभी-कभी आँचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डूबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
हँसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
फूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनों आँखों के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!
पापा को दरवाज़े तक वह छोड़ लौटती थी
आँखों में कुछ काले बादल जोड़ लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सबकी माँ भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
बड़े भागते तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोई और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आँखें पढ़ लेती थीं नदी नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डूबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है।
साभार:दयानंद पांडेय