
उर्दू में सारी शब्द संपदा अरबी, फ़ारसी, तुर्की और संस्कृत से ली गई है
-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

Positive India:Rajkamal Goswami:
कोई भी भाषा अपने क्रियापदों द्वारा ही पहचानी जाती है । राम स्कूल जा रहा है और रामा इज़ गोइंग टू विद्यालय दोनों वाक्यों में स्कूल और विद्यालय का महत्व नहीं है लेकिन क्रिया और सहायक क्रिया बदलने से भाषा हिंदी से इंग्लिश में बदल जायेगी ।
इसी तरह लिपि से भी भाषा पर अंतर नहीं पड़ता । सोशल मीडिया पर बहुत से लोग रोमन लिपि में संदेशों का आदान प्रदान करते रहते हैं पर भाषा उनकी हिंदी होती है ।
अब इस आलोक में उर्दू को देखें उसकी सारी शब्द संपदा अरबी फ़ारसी तुर्की और संस्कृत से ली गई है । इन शब्दों को निकाल दें तो बहुत थोड़े से देशज शब्द होंगे । इसके अलावा अंग्रेजी शब्द तो दुनिया की हर भाषा में घुसे हुए हैं । इन सारे शब्दों को हिंदी क्रियापदों के साथ प्रयोग करने से उर्दू भाषा बन जाती है ।
होता यह है कि कुलीन वर्ग सदैव समाज में सामान्य वर्ग से स्वयं को अलग दिखाने की कोशिश करता रहता है । उसकी भाषा उसका पहनावा चाल ढाल सब अलग दिखना चाहिए । इस्लाम शासित भारत में राजकाज की भाषा फ़ारसी थी । यहाँ का कुलीन वर्ग भी दिन प्रतिदिन में उपयोग की जाने वाली भाषा के रूप में फ़ारसी का प्रयोग नहीं कर सकता था । हाट बाज़ार में लोग फ़ारसी जानते ही नहीं थे । इसलिये यहाँ के लोगों से संवाद तो यहीं की भाषा में करना था और अपने को कुलीन दर्शाने के लिये फ़ारसी शब्दों का उपयोग भी करना था । तो इसलिये हाट बाज़ार में प्रयोग होने वाली हिंदी की एक अलग शाखा उर्दू का जन्म हुआ । इसको और विशिष्ट बनाने के लिये फ़ारसी लिपि का उपयोग किया गया । राजधानी की गलियों में इसे रेख़्ता कहते थे ।
ग़ालिब जैसे बड़े शायर भी रेख़्ता को बड़ी हेय दृष्टि से देखते थे । ग़ालिब का कहना था कि यदि मेरे काव्य का आनंद लेना हो तो मेरा फ़ारसी दीवान पढ़ो । लेकिन वे अपने छोटे से रेख़्ता के दीवान से ही मशहूर हुए । फ़ारसी ईरान देश की भाषा है वहाँ ग़ालिब की फ़ारसी शायरी को कोई नहीं पूछता । इक़बाल ने भी फ़ारसी में बहुत कलम चलाई मगर चल न सके ।
उर्दू को फ़ारसी लिपि के कारण बड़े जतन से सहेज कर रखा गया है वरना भारत में तो देवनागरी लिपि अपनाते ही हिंदी भाषा उर्दू को आत्मसात कर लेती । बोलचाल में तो हिंदी उर्दू में अंतर करना बड़ा कठिन है । उर्दू साहित्य का नागरी संस्करण उर्दू से कहीं अधिक बिकता है । अभी भी बहुत सारा उर्दू साहित्य अपेक्षा करता है कि उसका नागरी में लिप्यांतरण हो तो वह जन जन तक पहुँचे । अब तो कुलीन वर्ग को उर्दू बोलने की ॹरूरत भी नहीं रह गई है । कुलीन वर्ग की भाषा खानपान पहनावा सब अंग्रेज़ी हो चुका है ।
जिनमें उर्दू सोई है लफ़्ज़ों की चादर तान के
कुछ बरस में उन किताबों के कवर रह जायेंगे
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)