आचार्य विद्यासागरजी अध्यात्म के साथ ही साहित्य में भी समाभ्यस्त थे।
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
आचार्य विद्यासागरजी अध्यात्म के साथ ही साहित्य में भी समाभ्यस्त थे। उनमें कारयित्री प्रतिभा थी। उन्होंने अनेक काव्य-ग्रंथों की रचना की थी और समणसुत्तं, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि का पद्यानुवाद भी किया था।
उनकी समस्त कृतियों में ‘मूकमाटी’ महाकाव्य सबसे प्रसिद्ध है। संयोग से मेरे पास ‘मूकमाटी’ की दो प्रतियाँ हैं किन्तु दोनों ही मैंने क्रय नहीं की, वो मुझे उपहार में मिली हैं। दो वर्ष पूर्व जब मैंने जिन परम्परा और श्रमण-धर्म पर कुछ लेख लिखे थे तो इससे प्रेरित होकर कुछ जैन-मित्रों ने अनुकम्पापूर्वक मुझे जिन-साहित्य भिजवाया था। एक मित्र ने मुझे आचार्य कुन्दकुन्द का लब्धप्रतिष्ठ ‘समयसार’ भेंट में दिया, एक ने क्षुल्लकश्री जिनेन्द्र वर्णी का नानाविध साहित्य, एक अन्य ने इससे पूर्व एक भिन्न संदर्भ में श्रीमद् राजचन्द्र का ग्रंथ भिजवाया था। इसी कड़ी में मुझे ‘मूकमाटी’ की प्रतियाँ भेंट में दी गई थीं।
‘मूकमाटी’ की रचना मुक्त-छन्द में की गई है और इसमें कुम्भ और कुम्भकार का वृत्तान्त है। इसके चार खण्ड हैं। कथानक रूपकात्मक है, जिसमें कुम्भकार मिट्टी की ध्रुवसत्ता को पहचानकर, वर्णसंकर दोषों (कंकर आदि) से उसको मुक्त करके और वर्ण-लाभ दिलाकर, चाक पर चढ़ाकर, आवां में तपाकर पूजा का मंगल-घट बनाता है। पुस्तक की संस्तुति में लिखा गया है कि यह कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मुक्ति-यात्रा का रूपक है।
आचार्य विद्यासागरजी ने सल्लेखना की रीति से अन्न-जल का त्याग कर महासमाधि ली थी। उससे पूर्व आचार्य-पद और वाणी का भी त्याग कर दिया था। अपने महाकाव्य की ‘माटी’ की ही तरह वे भी अंत में ‘मूक’ हो गए थे और माटी की ही तरह ‘मुक्तावस्था’ भी ग्रहण की। उन्होंने जैसी जाग्रत-समाधि ली, उसकी ओर संकेत करतीं ‘मूकमाटी’ में बड़ी सुन्दर और संगीतमय काव्य-पंक्तियाँ हैं :
“धा धिन धिन धा
धा धिन धिन धा
वे तन भिन्ना, चेतन भिन्ना…
ता तिन तिन ता
ता तिन तिन ता
का तन चिन्ता, का तन चिन्ता…”
चेतन को तन से भिन्न जानने के कारण ही उन्होंने आजीवन तन की चिन्ता नहीं की और उसे नाना-अनुशासनों में जोतकर साधना के लिए दोषहीन बनाये रखा। ‘मूकमाटी’ में अनेक स्थलों पर आध्यात्मिक गूढ़ता के सूत्र हैं, यथा करुणा को नहर और शान्त-रस को नदी की भाँति बतलाते हुए कहते हैं :
“करुणा की दो स्थितियाँ होती हैं-
एक विषय-लोलुपिनी
दूसरी विषय-लोपिनी
दिशा-बोधिनी!
करुणा-रस में
शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना
बड़ी भूल है।”
और इन पंक्तियों में उत्तम काव्य का संस्पर्श है :
“बोध के फूल कभी महकते नहीं
बोध का फूल जब ढलता-बदलता जिसमें
वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है
बोध में आकुलता पलती है
शोध में निराकुलता फलती है
फूल से नहीं, फल से तृप्ति का अनुभव होता है…”
समूची ‘मूकमाटी’ में इस तरह की अनेक अर्थगर्भी पंक्तियाँ मिलती हैं :
“सूखा प्रलोभन मत दिया करो
स्वाश्रित जीवन जिया करो
कपटता की पटता को
जलांजलि दो!
गुरुता की जनिका लघुता को
श्रद्धांजलि दो!
शालीनता की विशालता में
आकाश समा जाय!”
‘मूकमाटी’ पेंसिल से भिन्न-भिन्न पृष्ठों पर लिखकर संकलित की गई थी। इसका लेखन अप्रैल 1984 में मढ़ियाजी जबलपुर से प्रारम्भ हुआ और फ़रवरी 1987 में नयनागिरि में पूर्ण हुआ। ‘मूकमाटी’ की भूमिका आचार्य विद्यासागरजी ने ‘मानस-तरंग’ शीर्षक से लिखी है, किन्तु लेख के अंत में अपना नाम न देकर केवल ‘गुरुचरणारविन्द-चञ्चरीक’ लिखा है और इस तरह अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी को आदरांजलि प्रेषित की है।
इस भूमिका में उन्होंने कुम्भकार के रूपक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टिकर्ता के रूप में नहीं। क्योंकि अपने मत की पुष्टि के लिए ईश्वर को विश्व-कर्मा के रूप में स्वीकारना ही उसे पक्षपात की मूर्ति और राग-द्वेषी सिद्ध करना है।” फिर आगे ‘तेजोबिन्दूपनिषद्’ को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि “ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकारना मिथ्या है, नास्तिकता है। विषय-कषायों को त्यागकर जितेंद्रिय, जितकषाय और विजितमना हो जिसने अपने में छुपी ईश्वरीय शक्ति का उद्घाटन किया है, वह ईश्वर अब संसार में अवतरित नहीं हो सकता है।”
जिन मित्र ने मुझे ‘मूकमाटी’ भेंट में दी थी, उनका नाम अभी मुझे स्मरण नहीं आ रहा है, किन्तु मैं उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, क्योंकि यह कृति आचार्य विद्यासागरजी के अंतर्जगत में प्रवेश की कुंजी है!
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)