www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

अब हमें ‘ठाकुर का कुआं’ पाट देना चाहिए।

-वेद रत्न शुक्ल की कलम से-

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India:Vedratna Shukla:
‘ठाकुर का कुआं’ आज के समय अप्रासंगिक है लेकिन पहले की हकीकत है। यह कमजोर पर बलवान के नियंत्रण का मामला है जो नैसर्गिक है। पर बुद्धि की दृष्टि से अनुचित।

ऋगवैदिक काल में भी गोपति (मुखिया याकि योद्धा) को उपहार भेंट किया जाता था। गोपति के कल्याण हेतु पुरोहित भरपूर प्रार्थना करते थे। जिसके बदले उन्हें भरपूर भेंट मिला करती थी। इसका अतिरेकी वर्णन भी है। ऋगवेद् में ब्राह्मण का उल्लेख १४ बार तथा क्षत्रिय का नौ बार है। तब पशुचारण और शिकार ही मुख्य थे। मूल पशुचारण ही था। शिकार या युद्ध के लिए लोहे का न्यून प्रयोग ही पाया जाता है। पंजाब, हरियाणा या आसपास लोहा तो पाया नहीं जाता?

‘यव’ यानी जौ की ही थोड़ी खेती के प्रमाण मिलते हैं। यज्ञादिक जैसे अवसरों पर मुखिया भी जन में उपहार वितरित करता था। तब ‘धन’ पशुधन ही था जो भेंट या वितरित किया जाता था। प्रतीत होता है कि वेद कई सौ साल में रचे गये। ऋगवेद् भी। इसके अंतिम भाग में शूद्र शब्द पहली और अंतिम बार आया है। ये लोग किसान और सैनिक होते थे जो राजा और पुरोहित तथा स्वयं की जीविका के लिए श्रमरत लोग थे। हालांकि राजा युद्धकौशल में निपुण तथा साहसी और पुरोहित देवताओं से अनुननय-विनय में प्रवीण‌ होते थे।

उत्तर वैदिक काल में जब कृषि होने लगी तो बस्तियां बसने लगीं। तब राजा और पुरोहितों ने धीरे-धीरे ‘कर’ की अवधारणा स्थापित की। बाद के समय में संसाधन और धन के लिए सिक्कों के लेन-देन के प्रचलन ने इसका विधिवत नियमन कर दिया। तब तक यह रक्षा के निमित्त सहन करने योग्य ‘कर’ था। हालांकि वर्ण या वर्ग की नींव यहीं से ज्यादा दृढ़ हुई। उसके बाद विदेशी हमलों ने स्थानीय समाज के भीतर शोषण बहुत ज्यादा बढ़ा दिया। फिर भी समय बीतता रहा। मुगल आए। यहां वे जीते और जम गये। अधिकांश राजाओं ने तब इस महादेश में जड़ जमा चुकी मुगल सल्तनत से हाथ मिलाना शुरू कर दिया। मुगल यहीं रहने और सदैव राज करने का उद्देश्य रखते थे। औरंगजेब तक तो कम से कम यहां सबको यही लगता होगा। उसी के कुकर्म रहे होंगे कि हमारे यहां उसी की सत्ता पान की गिलौरियां चबाते हुए अय्याशियों के नित नये प्रतिमान स्थापित करने लगी। जनता तो बेचारी गुलाम थी। तब ‘ठाकुर का कुआं’ भी था। इसी समय पश्चिम में रिवोल्यूशन होने लगी। जिंदगी को बदलने वाली नयी-नयी वैज्ञानिक खोज भी। तब ही कुटिल अंग्रेजों ने हम पर शासन स्थापित कर लिया और भयंकर लूटपाट मचाते रहे।

स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी भावना से लड़ते हुए हम स्वतंत्र हुए। हालांकि विभाजन भी हुआ। उसका मूल कारण तत्कालीन हिंदू नेताओं की अति सदाशयता और जनता की भीरुता। एक गुलाम जाति का भीरु होना एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है। इसके अलावा १८५७ की जंग-ए-आजादी के बाद अंग्रेजों द्वारा बड़े पैमाने पर मुसलमानों पर जुल्म से पैदा हुआ खौफ़ और अपने को शासक जाति समझना भी बटवारे का प्रमुख कारण था। बहरहाल, अब हम स्वतंत्र और संप्रभु भारत हैं। १५ अगस्त १९४७ से शुरू हुई हमारी इस नयी यात्रा का हासिल यह है कि हम एक समानता भरे समाज का निर्माण कर चुके हैं। इसमें तत्कालीन समझदार अग्रणी नेताओं यथा: महात्मा गांधी, पंडित नेहरू और डॉक्टर आंबेदकर आदि का महत्वपूर्ण योगदान है।

अब हमें ‘ठाकुर का कुआं’ पाट देना चाहिए।

साभार:वेद रत्न शुक्ल(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave A Reply

Your email address will not be published.