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आज के युग में छत्तीसगढ़िया फिल्मों का अस्तित्व।

लेखिका : नीलिमा मिश्रा

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positive India: Raipur;
अगर छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों का अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो सबसे पहले छत्तीसगढ़ से बाहर वालों की इस क्षेत्र में एन्ट्री बंद कीजिये।क्योंकि ये छत्तीसगढ़ी बोली ,संस्कार की अस्मिता नहीं समझते हैं और इसका मज़ाक़ बना कर रख दिया है। मैंने कुछ फ़िल्मों का वीडियो क्लिप देखा जो बाहर वालों ने बनाया है ।इतनी फूहड़ और द्विअर्थी संवाद कि मन विद्रुपता से भर उठता है।
छत्तीसगढ़ी बोली में हास्य की बेहद संभावनायें हैं। इतने चुटीले शब्द और बोलने का अँदाज जो विशिष्ट कलाकारों मे है ,जो निहायत ठेठ देसी है ।जो गुदगुदी पैदा करती है जुगूप्सा नहीं। गीतों को भी फूहड़ और अश्लील बनाया जाता है कि आय का ज़रिया बना सकें। परम आदरणीय हबीब तनवीर जी ने छत्तीसगढ़ी संस्कृति और बोली के साथ पूरा पूरा न्याय किया ।उनके छत्तीसगढ़ी नाटकों और गीत संगीत को देखिये ,कहीं से कोई फूहड़ता नहीं झलकती । इस कड़ी में दाऊ रामचंद्र देशमुख, तीजनबाई,केदार यादव ,साधना यादव के गीत कितना देशज और सुखद था।और अभी के छत्तीसगढ़ी गाने तो बाप रे बाप! कानों में ऊँगली देने की इच्छा होती है। सबसे पहले अपना स्तर सुधारिये ,छत्तीसगढ़ के मर्म को पहचानिये फिर छालीवुड में कदम रखि ये।
लेखिका:नीलिमा मिश्रा

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