आदि शंकराचार्य के सम्मुख ‘गुरु-गोविन्द दोउ खड़े’ वाली कोई दुविधा क्यों नहीं थी!
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
आदि शंकराचार्य के सम्मुख ‘गुरु-गोविन्द दोउ खड़े’ वाली कोई दुविधा नहीं थी! वे गोविन्द (श्रीकृष्ण) के उपासक थे और उनके गुरु का नाम भी गोविन्द ही था। वे एक ही पद में यमक या श्लेष अलंकार की सहायता से दोनों की उपासना कर सकते थे!
‘तत्त्वबोध’ के मंगलाचरण में शंकर ने दोनों को एक साथ नमन किया था : ‘वासुदेवेन्द्रयोगीन्द्र नत्वा ज्ञानप्रदं गुरुम्।।’ गीता के अंतिम श्लोक में श्रीकृष्ण को ‘योगेश्वर’ कहा गया है। उसी संदर्भ में शंकर यहाँ उन्हें ‘वासुदेवेन्द्रयोगीन्द्र’ कहते हैं तो आगे ज्ञान देने वाले गुरु को भी नमन कर लेते हैं, यह मानकर कि कृष्ण के नाम में ही गुरु गोविन्द का नाम भी निहित है!
‘विवेकचूडामणि’ के मंगलाचरण में सीधे गुरु की ही वन्दना है :
‘सर्व-वेदान्त-सिद्धान्त-गोचरं तमगोचरम्।
गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोस्म्यहम्।।’
यह कि, “वेदान्त के समस्त सिद्धान्तों के दृष्टा गुरुवर को मैं नमन करता हूँ।” लेकिन यहाँ भी गोविन्द को परमानन्द बताकर वे परम-सत्ता की ओर इंगित कर ही देते हैं।
गोविन्द भगवत्पाद्, गौड़पादाचार्य के शिष्य थे। गौड़पाद ने बौद्धों की शब्दावली में ‘माण्डूक्योपनिषद्’ की कारिका लिखकर एक अभिनव दार्शनिक-प्रवर्तन किया था। कारिका में वो एक जगह बुद्ध को भी नमन करते हैं, किन्तु आगे उनके अनित्य-अनात्म का औपनिषदिक आधार पर खण्डन करते हैं।
गौड़पाद की शिष्य-परम्परा में सम्मिलित गोविन्द भगवत्पाद् ओंकारेश्वर की एक गुफा में विराजते थे (यह गुफा आज भी है और शंकराचार्य-गुफा कहलाती है)। 8 वर्ष की आयु में वेद-वेदान्तों का सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित कर लेने के बाद जब शंकर संन्यस्त होते हैं तो गोविन्द भगवत्पाद् का शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए केरल स्थित अपने कालड़ी गाँव से पैदल ही यात्रा आरम्भ कर देते हैं। नर्मदा-तट को लक्ष्य करके वो उत्तर दिशा में चलते चले जाते हैं और कितनी ही नदियों, वनों, पर्वतों, नगरों को लाँघकर अपने गन्तव्य पर पहुँचते हैं।
गोविन्द भगवत्पाद् शंकर को देखते ही समझ जाते हैं कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि एक विराट-चेतना है, जिसका जीवन-लक्ष्य अद्वैत-वेदान्त की प्रतिष्ठा है। शंकर वेदवेत्ता तो पहले ही थे, गुरु की शरण में आकर ब्रह्मवेत्ता भी बनते हैं। नर्मदा-तट पर उन्हें निर्विकल्प समाधि का अनुभव होता है।
गुरु गोविन्द ने ही शंकर को ‘ब्रह्मसूत्र’ का भाष्य लिखने का निर्देश दिया था। कहा था, “द्वापर युग के अंत में जब ब्रह्मविद्या लुप्तप्राय हो रही थी, तब कृष्णद्वैपायन व्यासदेव ने उसकी रक्षा की थी। गुरु-परम्परा में वही विद्या मुझे प्राप्त हुई और अब वह विद्या में तुम्हें प्रदान करता हूँ। जाओ, वेद के मतानुसार वेदान्तसूत्र (ब्रह्मसूत्र) पर भाष्य लिखो और उसका प्रसार करो।” तब गुरु का आशीर्वाद लेकर ही बालक-संन्यासी शंकर वाराणसी पहुँचते हैं।
वाराणसी की ही गलियों में घूमते हुए जब शंकर ने अपने जगत-प्रसिद्ध ‘भजगोविन्दम्’ स्तोत्र की रचना की थी, तब कौन जाने वो किसका नाम भजने का उपदेश मूढ़मतियों को दे रहे थे- गीतोपदेशक श्रीकृष्ण का या अपने गुरु गोविन्दपाद का? या कदाचित्, दोनों का?
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