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बस्तर जल रहा है- कनक तिवारी-भाग-4

यह लेख बस्तर के नक्सलवाद पर 8 किश्तों में है

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Kanak Tiwari: Credit:Facebook
Positive India: Kanak Tiwari.
पूरी दुनिया में पदार्थिक और व्यापारिक सभ्यता ने आदिवासी जीवन का मटियामेट किया है। न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, उत्तर अमेरिका, केनेडा और दक्षिण अफ्रीका वगैरह में गोरी जातियों ने वहां के आदिवासियों माओरी, रेड इंडियन और नीग्रो लोगों का कत्लेआम किया है और उनकी सभ्यताओं को इतिहास में दफ्न कर दिया है। नक्सली भी ऐसा ही कुछ क्या नहीं कर रहे हैं? जिन आदिवासियों की रक्षा करने का वे दावा कर रहे हैं, उनकी तो सांस्कृतिक बुनियाद ही खिसक रही है। सदियों से आदिवासी जंगलों में रहते हुए सभ्यता की मुख्य धारा से या तो अलग रहे या रखे गए। उन्होंने हिंसा और युयुत्सा का अपने समुदाय और उसकी भूमिका को जीवित रखने के लिए सहारा नहीं लिया, भले ही इसके अपवाद रहे हों। आदिवासी सहिष्णु, सादगी पसंद, संकोची और दब्बू तक होते हैं। उनमें स्वाभिमान लेकिन इतना घनीभूत होता है कि उसकी रक्षा के लिए वे मृत्यु तक की चिंता नहीं करते। यदि आदिवासियों के बुनियादी स्वभाव में बंदूकें, देसी कट्टे, ग्रेनेड और बम थमाकर उन्हें बलात हिंसक बनाया जाएगा तो उससे तो उनकी आनुवंशिक, जातीय और स्वाभाविक सांस्कृतिक आदतें ही नष्ट हो जाएंगी। आदिवासी सभ्यता का विनाश करके नक्सली कुछ मनुष्य इकाइयों को अपने बाड़े में बांधकर रख भी लेंगे-तो यह माओवाद का कैसा रूपांतरण है जो मनुष्य द्वारा की जाने वाली क्रांतियों को समाज-चेतना बनाने के बदले आत्मघाती बनाता चलता है। हमारे राजनीतिक नेताओं के लिए मोटर गाड़ियों में किराए के कपड़ों और झंडों में लकदक, पूड़ी साग के पैकेट पकड़े, जेब में दैनिक मजदूरी डाले निर्विकार गरीबों के जत्थे जानवरों की तरह पकड़कर लाए जाते हैं। क्या नक्सली भी वैसा ही रिहर्सल करते हुए नासमझ, मजबूर, लाचार आदिवासियों को इस्तेमाल करना चाहते हैं? एक ढकोसले का जवाब दूसरा ढकोसला कैसे दे सकता है?
नक्सलवाद के मुद्दे पर हिंसा परवान चढ़ी हुई है। लाल क्रांति का ग्रीन हंट से युद्ध चल रहा है। श्वेत क्रांति, हरित क्रांति, टैलेण्ट हंट वगैरह अपने आप स्वाहा हो रहे हैं। इस नाटक के दर्शक देशवासी हैं। उन्हें बिना टिकट यह सब कुछ देखने को मिल रहा है। देश के गृह मंत्री शौर्य मुद्रा में होते हैं। वे गृह मंत्रियों के इतिहास में अपनी जगह सम्मानजनक बनाना चाहते हैं। राज्य सरकारें अलग अलग दलों की होने के कारण ‘अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग‘ अलापती रहीं। इसी बीच उद्योपतियों के बहुत से हितबद्ध पैरोकार मंत्रिपरिषदों में आ गए। सबने मिलकर अंतर्राष्ट्रीय दबावों के अनुकूल देश की आर्थिक नीतियां बनाईं। गांधी जी चाहते थे कि हाशिए के व्यक्ति को राजपथ पर चलने का अवसर मिले लेकिन नाम उसका जनपथ रहे। हुआ लेकिन यह कि वैश्वीकृत नव उद्योग संस्कृति के चलते हाशिया सिकुड़ गया है। लोग लेकिन बढ़ गए हैं। जैसे फोरलेन सड़क के दोनों ओर दुपहिया वाहनों के लिए पतली पंगडंडियां बना दी गई हैं। दुपहिया वाहन चालक हैं कि हाशिए पर चलने से इंकार करते हैं क्योंकि वह उनके स्वाभिमान के विरुद्ध है। चौड़ी सड़कों पर अधिकृत तौर पर चलने वाले बड़े वाहन उन्हें कभी कभी निर्ममतापूर्वक कुचल भी देते हैं। देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन में भी यही कुछ हो रहा है। कुछ उग्र स्वभाव के लोगों ने भारतीय संविधान को फोरलेननुमा राजपथ समझा। उन्होंने जंगलों में कुदरत के सहारे अपनी अपनी पगडंडियों के जनपथ बनाने शुरू किए। फिर धीरे धीरे वे उस रास्ते पर चलना भी भूल गए और अब उन्हीं पगडंडियों में भटक रहे हैं। नक्सलबारी से शुरू हुआ उनका कथित नक्सलवादी आंदोलन लखनऊ के इमामबाड़े की भूल भुलैया की तरह उलझ गया है।
क्रमशः

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