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सङ्गम की तीसरी अदृश्य धारा प्रमाणित हुई…

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
महाभारत की रचना के समय महर्षि वेदव्यास और भगवान श्री गणेश जी ने जिस स्थान का चयन किया था, वह सरस्वती नदी के तट पर था। नदी की जलधारा का तेज स्वर बार बार गणेश जी का ध्यान भंग करता, वे विचलित होते… अंत में उन्होंने माता सरस्वती से निवेदन किया, “मइया! पाताल से हो कर बहो!” माता सरस्वती सहज भाव से वहीं भूमिगत हो गईं…

भूमि के नीचे बहती सरस्वती जब प्रयाग पहुँची तो माधव ने कहा, “माता! भूमि पर आओ! इस पवित्र सङ्गम का भाग बनो… यह तीर्थ सदैव जन की आस्था का केंद्र रहने वाला है। कलियुगी प्रभाव में अत्यंत कठिन हो चुके जीवन की आपाधापी से कुछ समय निकाल कर तीर्थ आने वाले भक्तों को अपनी गोद में स्थान देना, आँचल की छाया देना…” सहज कोमल स्त्री मन! माता सहजता से मान गईं। आ गईं भूमि पर और समा गईं सङ्गम में… इसे दूसरे शब्दों में कहें तो सरस्वती गङ्गा हो गईं…

इस कथा में जो माता सरस्वती का सहज स्वभाव है न! उसे ही इस देश ने आदर्श स्वभाव माना है। वैसे व्यक्तियों को देवी/ देवता कहते हैं लोग… कथाएं ही तो समाज का चरित्र निर्माण करती रही हैं न!

हाँ तो माता सरस्वती प्रयागराज में कूप के रूप में विराजती हैं। मैंने पढा, हर बात को नए तरीकों से सिद्ध करने वाले लोगों ने 2016 में इसकी जाँच करने का प्रयास किया कि क्या सचमुच सरस्वती कूप का जल सङ्गम में जाता है। कूप के जल में रङ्ग डाल कर उन लोगों ने देखा, वह रंगीन जल सङ्गम में निकल आया था… सङ्गम की तीसरी अदृश्य धारा प्रमाणित हुई…

एक भरम था मेरे मन में! यदि सरस्वती की प्राचीन धारा सिंधु नदी के पास से निकलती हुई पुष्कर से होते पश्चिम समुद्र में गिरती थी, तो प्रयागराज में कैसे आयी? अब समझ आता है, पश्चिम की ओर बढ़ती माता सरस्वती महाभारत काल के बाद भगवान श्री गणेश के आदेश से पूरब आईं। आईं, ताकि आज के भारतवर्ष के केंद्र में सनातन का सबसे महत्वपूर्ण लोक तीर्थ स्थापित हो सके…

मैं सोचता हूँ, मध्यकाल में दिल्ली में लहराते विदेशी ध्वज का प्रतिकार करते हेमचंद्र विक्रमादित्य, महाराणा प्रताप और शिवाजी राजे जैसे महान योद्धाओं के साथ साथ श्रद्धालुओं की वह भीड़ भी विदेशी सत्ता को चुनौती देती थी जब दिल्ली से चार कदम दूर प्रयाग में लोग लाखों की संख्या में इकट्ठे हो कर धर्म की जय कहते थे। घर के बर्तन बेंच कर ‘तीर्थयात्रा कर’ भरते, पर कुम्भ नहाने अवश्य ही जाते लोग जैसे सत्ता की छाती पर चढ़ कर कहते थे- हम न मरब! मरिहै संसारा… इस राष्ट्र के वर्तमान को सौ बार अपने इतिहास के प्रति नतमस्तक होना चाहिए।

इस बार की कुम्भ यात्रा के समय तय किये थे कि सरस्वती कूप के दर्शन करने ही हैं, पर भीड़ के कारण सम्भव न हो सका! पर आज नहीं तो कल… एक बार उस पवित्र धारा के दर्शन करने ही हैं, जिसके तट पर हमारी सभ्यता ने घुटनों के बल चलना सीखा था।

साभार:सर्वेश तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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