गीता का छठा अध्याय साधकों-मुमुक्षुओं के लिए बड़ा मूल्यवान है
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
“आत्मसंस्थं मन: कृत्वा”
गीता का छठा अध्याय साधकों-मुमुक्षुओं के लिए बड़ा मूल्यवान है, क्योंकि इसमें ध्यान योग पर चर्चा की गई है। यह अध्याय आत्मसंयम योग भी कहलाया है। बड़े आश्चर्य की बात है कि युद्धभूमि में ध्यान का उपदेश दिया जा रहा है! योद्धा अर्जुन से रजोगुण के त्याग की बात कही जा रही है! यहाँ तक तो समझ में आता है कि विषादग्रस्त अर्जुन को धर्मयुद्ध के लिए प्रवृत्त करने हेतु श्रीकृष्ण उसे मोहमुक्ति और अनासक्ति का उपदेश दें, उसे एक निमित्त-मात्र बताकर उसके कर्त्ताभाव का खण्डन करें, उसे आत्मा की अमरता और देह की नश्वरता के बारे में बतावें। किन्तु रणभूमि में ध्यान योग!
स्मरण रहे, यह ध्यान योग धनुर्धर अर्जुन को एकाग्रचित्त होकर शर-संधान में सक्षम बनाने के लिए नहीं है। इसके गहरे आध्यात्मिक आयाम हैं। मुण्डकोपनिषद् में प्रणव (ओंकार) को धनुष कहा गया है। ओंकार की आकृति भी धनुष सरीखी ही दिखती है। उसमें आत्मा को बाण और ब्रह्म को लक्ष्य बताया गया है और कहा है कि प्रणव की प्रत्यंचा इस लक्ष्य को भेदने में सहायक है। और गीता भी तो उपनिषद् ही है- स्मृति-काव्य के भीतर छुपाया हुआ!
छठे अध्याय के पहले श्लोक में कहा है कि कर्मफल का आश्रय न लेता हुआ (‘अनाश्रित: कर्मफलं’) जो कर्त्तव्यकर्म करता है वही संन्यासी और योगी है, क्रियाओं का त्याग कर देने वाला संन्यासी और योगी नहीं होता। संन्यासी की स्पष्ट परिभाषा गीता में कर्मत्यागी नहीं फलत्यागी के रूप में इतनी बार दी गई है कि किसी दुविधा के लिए हमारे मन में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। दूसरे ही अध्याय से कर्मयोग की महत्ता का जो वर्णन चला आ रहा था, वह इस छठे अध्याय के आरम्भ तक जारी रहता है। किन्तु इसके बाद के श्लोकों में ‘योगारूढ़’ होने के उपाय बताए हैं।
१०वें श्लोक में योगी को एकान्तवासी (एकाकी), नियंत्रित (यतचित्तात्मा), आशारहित और संग्रहरहित (निराशीरपरिग्रह:) बताया है।
१३वें श्लोक में ध्यान की विधि बतलाई है : “शरीर, मस्तक और ग्रीवा को सम और अचल रूप से धारण करके, स्थिर होकर, नाक के अग्रभाग को देखते हुए तथा अन्य दिशाओं को न देखते हुए!” (समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।) नाक के अग्रभाग को देखने की दशा अर्धोन्मीलित नेत्र कहलाई है और ध्यान के लिए उपयुक्त बताई है। इसमें संसार अप्रस्तुत हो जाता है, दृश्य का संस्कार दृग पर नहीं बनता, किन्तु अर्धोन्मीलित होने से तन्द्रा भी नहीं आती। आज्ञाचक्र पर अवधान केंद्रित होता है।
१६वें और १७वें श्लोक में गीता की एक और महान देन ‘युक्तचेष्टा’ का प्रतिपादन है। कि वह जो न अधिक खाता हो न कम, जो न अधिक सोता हो न कम, जिसका आहार-विहार यथायोग्य हो और जो कर्मों में यथायोग्य प्रयत्न करता हो, उसी का योग सिद्ध होता है। इस गीता-प्रणीत मध्यम-मार्ग की तथागत बुद्ध ने भी बहुत महिमा गाई है कि वीणा के तार न अधिक कसे हों न बहुत ढीले!
१९वें श्लोक में योगी के चित्त को दीपक की निष्कम्प लौ जैसा बताया है- ‘यथा दीपो निवातस्थो।’
‘आत्मसंस्थं मन: कृत्वा’- धैर्यबुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे उपरति को प्राप्त हो मन को आत्मा में सम्यक् रूप से स्थित करना- यह मूल्यवान वस्तु २५वें श्लोक में आई है।
३३वें और ३४वें श्लोक में अर्जुन के यह कहने पर कि मन तो बड़ा चंचल और दुष्कर है, कृष्ण का उत्तर है कि- “हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से यह वश में आ जाता है!”
अंत में अर्जुन ने पूछा है कि जिनका मन योग में यत्नशील नहीं, उनकी क्या गति होती है? इस पर कृष्ण का समाधान है कि उनकी दुर्गति नहीं होती, वह ‘पूर्व-अभ्यास’ से पुन: योग की ओर खिंच जाते हैं। गीता में ‘योगभ्रष्ट’ को भी पुण्यशाली कहा गया है। मूल्यवान दृष्टि है। जो डिग जाते हैं, उन्हें सम्बल देती है। संकेत करती है कि तुम सम्यक् मार्ग पर चले आए तो आज नहीं तो कल, लक्ष्य को भेद ही दोगे। और यह लक्ष्य तीर-धनुष वाला नहीं, चैतन्य का है!
कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं के बीच में दिया गया ध्यान योग का यह उपदेश सिद्ध करता है कि गीता को ब्रह्मविद्या के साथ ही योगशास्त्र भी क्यों कहा गया है- क्योंकि यह ग्रंथ न केवल परब्रह्मविषयक ज्ञान का वर्णन करता है (उपनिषदों की तरह), बल्कि उसकी प्राप्ति के उपाय भी बताता है (योगसूत्रों की तरह)!
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