www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

जब ओपेनहाइमर ने गीता को उद्धृत करते हुए कहा था, ‘नाऊ, आई एम बिकम डेथ, द डिस्ट्रॉयर ऑफ़ द वर्ल्ड्स।’

-सुशोभित की कलम से-

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India: Sushobhit:
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
…१६ जुलाई, १९४५ को एटम बम का सफल परीक्षण करने के बाद ओपेनहाइमर ने गीता को उद्धृत करते हुए कहा था, ‘नाऊ, आई एम बिकम डेथ, द डिस्ट्रॉयर ऑफ़ द वर्ल्ड्स।’

किन्तु यह ठीक अनुवाद नहीं है। गीता का मूल कथन ११वें अध्याय ‘विश्वरूप दर्शनयोग’ में आया है। यह उसी का ३२वाँ श्लोक है : ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो।’ इसमें कहा है​ कि ‘मैं काल हूँ’, यह नहीं कि ‘अब मैं मृत्यु बन गया हूँ।’

ओपेनहाइमर को परमाणु बम की विनाशलीला रचने के बाद यह अनुभूति हुई थी कि ‘अब मैं मृत्यु बन गया हूँ।’ कुरुक्षेत्र में अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त करने पर कृष्ण को यह विषादपूर्ण अनुभूति नहीं हुई थी। वो तो अर्जुन के विषादयोग का समाधान कर रहे थे। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं अब मैं मृत्यु बन गया हूँ। वे कह रहे हैं कि मैं काल ही हूँ, हमेशा से था और हमेशा रहूँगा!

काल के भी दो अर्थ निकाले जाते हैं : मृत्यु और समय। जिन-दर्शन में समय को आत्मा भी कहा गया है। शांकरभाष्य सहित गीता के जितने भी अनुवाद-टीकाएँ मिलती हैं, उन सभी में ‘मैं काल हूँ’ अर्थ ही दिया गया है। काल की व्याख्या नहीं की गई है। किन्तु समय और मृत्यु- दोनों ही आशयों से यह श्लोक अर्थ देता है। क्योंकि आगे की पंक्ति है ‘ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे’- ये जो प्रतिपक्ष में योद्धा खड़े हैं, वो (हे अर्जुन) तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे। वो तो मृत्यु को प्राप्त होंगे ही, तू युद्ध कर या ना कर। कि यह संसार मेरे द्वारा रची जीवन-मरण की ही लीला है, उसमें तू अपने को कर्त्ता मत जान।

काल का अर्थ अगर समय करके देखें तो भी पाएँगे कि समय मृत्यु का ही सहचर है। जो समय में है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जो समय के बाहर है, वही अजर-अमर हो सकता है। जब हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति इस तिथि को जन्मा, इस तिथि को मृत्यु को प्राप्त हुआ, इतने-इतने वर्ष जीया- तो हम समय की इकाइयों की ही गणना कर रहे होते हैं, जीवन के सातत्य की नहीं। समय को हटा दें तो मृत्यु नहीं है, क्योंकि तब जन्म भी नहीं है।​ समय में होना ही ‘क्षय’ है। ओपेनहाइमर ने जो ‘द डिस्ट्रॉयर ऑफ़ द वर्ल्ड्स’ वाली बात कही थी, वह ‘लोकक्षयकृत्’ में आ जाती है। तो अर्थ यह बना कि ‘मैं लोक का क्षय करने वाला काल हूँ’। काल को मान लें तो मृत्यु और मान लें तो समय, दोनों ही अर्थ देते हैं।

किन्तु गीता के परिप्रेक्ष्य में काल का अर्थ मृत्यु अधिक समीचीन मालूम होता है, क्योंकि आगे के श्लोक में कहा है कि ‘ये सभी मेरे द्वारा पहले ही मारे हुए हैं’ (‘मयैवैते नि​हता: पूर्वमेव’), इसलिए अर्जुन, तुम इन्हें मार गिराने में निमित्त-मात्र बनो। ‘ऋतेऽपि त्वां’- ये तुम्हारे बिना भी मरेंगे।

यहाँ स्मरण रहे कि यह निमित्त-मात्र वाली बात अर्जुन से कही है। गीता का श्रवण करने वाले सर्वजनों के लिए यह वध करने की छूट के अर्थों में नहीं है। अर्जुन में योद्धा होने के बावजूद मोह से विषाद आया है। उसे उसके कर्त्ताभाव से मुक्त कराने के लिए कृष्ण ने विश्वरूप दर्शन कराया है, उसे सृजन और विध्वंस की लीला ​दिखलाई है और अर्जुन के यह पूछने पर कि ‘हे उग्ररूप वाले, आप कौन हैं?’ कृष्ण ने प्रत्युत्तर दिया है कि ‘मैं लोक का क्षय करने वाला काल हूँ।’ यह धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में दिया उपदेश है। कोई साधारण हत्यारा इसे यह न मान ले कि वह भी उन मनुष्यों के वध का निमित्त-मात्र होता है, जो पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो चुके। इस निमित्त-भाव के वचन से पूर्व कृष्ण अर्जुन को अनासक्ति और निष्काम-कर्म का सुदीर्घ उपदेश दे चुके हैं, वह बात उसी परिप्रेक्ष्य में आई है। आप गीता को खण्डित करके नहीं पढ़ सकते। उसके अर्थ को उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करना होगा।

ओपेनहाइमर ने गीता के इस श्लोक का एक असंगत-अनुवाद तो उद्धृत कर दिया, और उसे उन पर बनी फिल्म में जस का तस दिखला भी दिया गया, किन्तु गीता में वही बात जिस परिप्रेक्ष्य में, और जिन आशयों में कही गई थी- उससे ओपेनहाइमर की उस समय की मनोदशा मेल नहीं खा सकती थी। ओपेनहाइमर में विषाद था, गीता का आरम्भ अर्जुन के विषादयोग से होता है, किन्तु अंत में मोक्षसंन्यासयोग है।

सीख यह है कि जब भी कोई किसी शास्त्र से उद्धरण दे, तुरन्त मूल से जाँचें। बहुधा आप पाएँगे कि लोकप्रिय संस्कृति में मूल कथन की एक विकृत और संदर्भच्युत व्याख्या ही प्रस्तुत की जाती है।

Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

Leave A Reply

Your email address will not be published.