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सूरदास सदैव भावुक कर देते हैं, आश्चर्य में डाल देते हैं।

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
प्रभु मेरे अवगुण चित न धरों…
सूरदास सदैव भावुक कर देते हैं, आश्चर्य में डाल देते हैं। श्रीकृष्ण का स्वरूप उतनी गहराई से उनके सम्बन्धियों ने भी नहीं देखा होगा, जितना अंधे सूरदास ने देख लिया था। ईश्वर पर सबसे अधिक अधिकार उसके भक्त का ही होता है शायद…

अष्टछाप के कवियों के लिए कहा जाता है कि वे पूर्वजन्म में श्रीकृष्ण के आठ बालसखा थे, जो कलियुग में आठ कृष्णभक्त कवियों के रूप में जन्म लिए। ये थे कुम्भनदास, परमानन्द दास, कृष्णदास, सूरदास, गोविन्द स्वामी, छीत स्वामी, चतुर्भुज दास, और नन्ददास… इन्हें पूर्वजन्म में घटी घटनाएं याद थीं, इसीलिये ये ऐसे लिखते थे जैसे सारी घटनाएं इनके सामने ही घटी हों।

भक्तिकाल की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तम्भ महाप्रभु बल्लभाचार्य जी ने सन 1565 ई. में अपने इन आठ शिष्यों को मिला कर अष्टछाप की स्थापना की थी। 1565 ई. का मतलब जानते हैं? 1565 ई वह कालखण्ड है जब साम्राज्य विस्तार के नशे में धुत अकबर उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों पर कहर ढा रहा था।

सब 1564 में अकबर ने गढ़-कटंगा पर आक्रमण किया जिसमें महारानी दुर्गावती की पराजय और मृत्यु के बाद अकबर के सामन्त आसफ खान ने समूचे राज्य को तहस नहस करते हुए असंख्य हिन्दू प्रजा को मार दिया। तब चौरागढ़ की हजारों देवियों ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जौहर किया था। उसके दो वर्ष पूर्व ही अकबर ने मेड़ता में भीषण कत्लेआम मचाया था और एक वर्ष बाद चित्तौड़ में तीस हजार सामान्य हिन्दू नागरिकों का सामूहिक नरसंहार कराया था। और इसी दुर्दिन में बल्लभाचार्य के ये आठ धर्मयोद्धा हाथ में सारंगी ले कर धर्म की रक्षा के लिए गाँव गाँव घूमने निकले थे।

सैनिक केवल वे नहीं होते जो अपना प्राण दाव पर लगा कर सीमाओं पर लड़ते हैं। योद्धा वे भी होते हैं जो अपना सुख दाव पर लगा कर समाज में विधर्मी वर्चस्व से लड़ते हैं। ये वे प्रभावशाली लोग थे, जिन्होंने अरबी तलवारों और शासकीय लूट से त्रस्त हिन्दू प्रजा के हृदय में धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न की। ये वे लोग थे जिनके कारण मुगल और तुर्क चाह कर भी भारत में वह काम नहीं कर सके, जो वे करना चाहते थे। सूरदास इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए थे…

यह भी अद्भुत ही है कि जब हम जब सूरदास की रचनाएं पढ़ते हैं तो लगता है कि उन्होंने कृष्ण के बाल स्वरूप और प्रेमी रूप को मन में बसाया था, पर जब हम उस युग की परिस्थितियों का आकलन करते हैं तो लगता है उन्होंने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश देते भगवान श्रीकृष्ण को अपनाया था।

सूरदास को पढिये तो लगता है वे नास्तिक को भी कृष्ण भक्त बना देंगे। कौन है जो नन्द-यशोदा और गोपियों का वियोग पढ़ कर न रो पड़े… कौन है जो बालक कृष्ण की लीलाएं देख कर खिलखिला न उठे… कौन है जो सूरदास की भक्ति देख कर भक्त न हो जाय…

सूरदास जन्मांध थे। समाज में अंधे सबसे निरीह प्राणी समझे जाते हैं। पर वह अंधा जानता था कि “कौन है जो अंधों को भी भवसागर के पार उतारता है।” उस अंधे ने चुपके से कन्हैया की उंगली पकड़ ली… उसके बाद फिर क्या सोचना! कन्हैया से अच्छा मित्र जगत में और कौन हुआ है? उनकी उंगली पकड़ कर सूरदास वहाँ पहुँच गए जहाँ विरले ही जा पाते हैं।

कभी कभी लगता है, सूरदास केवल इसलिए वह उच्च स्थान पा गए क्योंकि उन्होंने संसार की ओर से आंखे बन्द कर ली थी। मनुष्य जबतक संसार को देखता है, तबतक ईश्वर नहीं दिखते। बाकी तो सब हरि इच्छा…

साभार:सर्वेश कुमार तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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