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अब दिल्ली की चुनौती

-दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से -

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Positive India: Diwakar Muktibodh:
बीते एक वर्ष के दौरान पांच राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान, हरियाणा तथा महाराष्ट्र में धमाकेदार जीत दर्ज करने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी की निगाह दिल्ली पर टिक गई है जहां आम आदमी पार्टी की वजह से करीब डेढ दशक से उसके लिए सूखा पड़ा हुआ है तथा वह सत्ता से बाहर है. दिल्ली राज्य विधान सभा का कार्यकाल आगामी 23 फरवरी 2025 को पूरा हो जाएगा और इस बीच वहां विधान सभा चुनाव सम्पन्न हो जाएंगे. वर्ष 2015 से इस राज्य में आम आदमी पार्टी की सरकार है. फिलहाल सरकार का नेतृत्व आतिशी मार्लेना कर रही है. शराब नीति प्रकरण में लंबी अवधि तक जेल में रहने और जमानत पर रिहा होने के बाद पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने मुख्य मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. फिर भी अघोषित रूप से पार्टी व सरकार का नेतृत्व वे ही कर रहे हैं और जाहिर है विधान सभा का चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा जाने वाला है जिसकी तैयारी उन्होंने जोरशोर से शुरू कर दी है. चुनाव तिथियों की घोषणा में अभी काफी समय है फिर भी आम आदमी पार्टी ने 21 नवंबर को राज्य के 11 निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों के नाम का एलान कर दिया है. महत्वपूर्ण यह है कि जिन 11 प्रत्याशियों को टिकिट दी गई , उनमे 6 दलबदलू हैं जो कांग्रेस व भाजपा को छोड़कर आप में शामिल हुए हैं. एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह कि 11 में से 6 सीटें अभी भाजपा के पास है.

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विधान सभा चुनाव के बहाने अरविंद केजरीवाल के पास एक मौका है यह सिद्ध करने के लिए कि शराब प्रकरण में उनकी संलिप्तता रही हो या न रही हो, मतदाताओं का आशीर्वाद उन्हें मिला हुआ है तथा वह यथावत रहने वाला है. ठीक झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन की तरह जिन्हें जनता ने पुन: सत्ता सौंप दी है. हेमंत सोरेन भी भूमि प्रकरण में जेल में थे. लेकिन हाल ही में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी व कांग्रेस गठबंधन को एतिहासिक जीत मिली. क्या अरविंद केजरीवाल को भी दिल्ली चुनाव में वैसा ही समर्थन मिलेगा जैसा पिछले चुनाव 2019 में मिला था जब आम आदमी पार्टी ने राज्य की कुल 70 सीटों में से 62 सीटें जीत ली थीं, अनुमान मुश्किल है क्योंकि इस बीच यमुना में काफी पानी बह चुका है.

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2012 में अण्णा हजारे आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी का गठन दो अक्टूबर 2012 को हुआ था. 2013 के अपने पहले ही विधान सभा चुनाव में जोरदार दम दिखाने वाली इस पार्टी ने 2015 में वह चमत्कार कर दिखाया जो अभूतपूर्व था. 70 में 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने 2019 के चुनाव में भी जीत की लय शानदार तरीके से कायम रखी हालांकि इस बार उसे 6 सीटों का नुकसान हुआ. फिर भी 62 सीटों पर काबिज यह पार्टी देश की राजधानी में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है जबकि 2019 के बाद से वह तरह-तरह के राजनीतिक झंझावतों से गुजरती रही है जिसमे केन्द्र सरकार व दिल्ली के उपराज्यपाल के साथ सीधे टकराव के अनेक मामले शामिल हैं. और इससे उसकी लोकप्रियता का ग्राफ भी गिरा है.

बहरहाल आप के पिटारे से घोषणापत्र के रूप में कैसे और कितने वायदे निकलेंगे, यह समय के साथ स्पष्ट होगा. किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के और अधिक प्रयास होंगे. फिलहाल दिल्ली सरकार का महिला सम्मान निधि के रूप में एक हजार रुपए मासिक देने का वायदा है. इससे करीब 45 लाख महिलाएं लाभान्वित होंगी. सिटी बसों में उनकी सुरक्षा के लिए भी आप ने दांव चल दिया है. मुख्यमंत्री आतिशी ने उपराज्यपाल वी के सक्सेना को पत्र लिखकर यात्री बसों में दस हजार मार्शलों की पुनः तैनाती की मांग की है ताकि महिलाएं निश्चिंत यात्रा कर सकें. इसे महिलाओं की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. अब गेंद उपराज्यपाल के पाले में है. वे इसे कैसे लौटाते हैं, यह उन पर निर्भर है हालांकि इसमें भी राजनीतिक लाभ-हानि के गणित का समावेश नज़र आता है. आम आदमी पार्टी ने वृद्ध नागरिकों की भी सम्मान निधि बढाने की बात कही है. दरअसल सरकार महिलाओं सहित दलित व पिछड़े वर्ग के अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कोई मौका नहीं छोड़ना चाहेगी. हालांकि दिल्ली की आबोहवा जातिगत समीकरण से मेल नहीं खाती क्योंकि किसी भी समुदाय की आबादी 18-20 प्रतिशत से अधिक नहीं है. इसलिए कोई एक समुदाय चुनाव के परिणामों को प्रभावित करने का सामर्थ्य नहीं रखता. इसलिए सभी वर्गों के लिए कुछ न कुछ लुभावने वायदों के अलावा आम आदमी पार्टी चुनाव प्रचार के दौरान इस नैरेटिव को भी सेट करने की कोशिश करेगी कि केंद्र की भाजपा सरकार ने पूरे समय दिल्ली के प्रति नकारात्मक रूख अपनाया फलत: सरकार के जनोपयोगी कार्यों में बाधाएं उपस्थित हुईं जिसमें प्रदूषण के वे मुद्दे भी शामिल हैं जिससे पूरी दिल्ली को हलाकान कर रखा है.

हरियाणा व महाराष्ट्र के बाद दिल्ली विधान सभा के आगामी चुनाव तीनों बड़ी पार्टियों आम आदमी पार्टी, भाजपा व कांग्रेस के लिए के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है. भाजपा यदि यह चुनाव जीत जाती है अथवा पिछ्ले चुनाव की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करती है तो माना जाएगा कि नवंबर 2025 में बिहार विधान सभा के चुनाव में भी उसे रोक पाना विपक्ष के लिए विशेषकर राजद तथा कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा. भाजपा के लिए यह चुनाव कितना महत्वपूर्ण है, यह इसी बात से जाहिर है कि काफी पहले उसने चुनाव प्रबंधन से संबंधित 43 कमेटियां घोषित कर दी है. इनमें चुनाव संचालन समिति, घोषणापत्र समिति भी है. इन कमेटियों में युवाओं व महिलाओं को अच्छा प्रतिनिधित्व दिया गया है. चूंकि यह देखा गया है कि हाल ही में महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों के विधान सभा चुनावों में महिला मतदाताओं के वोट निर्णायक रहे हैं अत: भाजपा दिल्ली में भी ऐसी कोई घोषणा कर सकती है जो आप से बेहतर होगी. महाराष्ट्र में एनडीए की महायुति सरकार ने चुनाव जीतने पर लाडली बहन योजना की राशि 2500 से बढ़ाकर 3100 रूपए करने का वायदा किया हुआ है. अब सवाल है क्या भाजपा दिल्ली की महिला मतदाताओं को आकर्षित करने आप से आगे निकल जाएगी ? इसका जवाब बाद में आएगा. पर अन्य मुद्दे भी महत्वपूर्ण होंगे. भाजपा विकास कार्यों में सरकार की असफलता व राजधानी में वायु प्रदूषण की भयावह स्थिति को अपना प्रमुख हथियार बना सकती है. उसे संभावित गठबंधन पर भी विचार करना होगा क्योंकि महाराष्ट्र में उसकी सहयोगी पार्टी एनसीपी व उसके प्रमुख अजीत पवार ने अपनी विस्तार नीति के तहत दिल्ली विधान सभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है. दोनों के बीच अनुपातिक दृष्टि से सीटों का बंटवारा होगा या नहीं होगा अथवा कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष होगा, यह अजीत पवार के रवैये पर निर्भर रहेगा. फिलहाल इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है.

दिल्ली चुनाव के संदर्भ में सबसे खराब स्थिति कांग्रेस की रही है. हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी भीषण पराजय से दिल्ली पुन: दूर नज़र आने लगी है हालांकि शून्य की स्थिति से उबरने के लिए पार्टी ने जोरदार प्रयत्न शुरू कर दिए हैं. केन्द्रीय नेतृत्व ने राज्य में चुनाव वार रूम की कमान युवा प्रियव्रत सिंह को सौंपी है. प्रियव्रत राहुल गांधी व दिग्विजय सिंह के निकटस्थ बताए जाते हैं. वे मध्यप्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष व कमलनाथ सरकार में मंत्री रह चुके हैं. इसके अलावा पार्टी के वरिष्ठ नेता व उत्तराखंड के विधायक काजी मोहम्मद निजामुद्दीन को दिल्ली चुनाव का प्रभारी बनाया गया है. राजधानी में पार्टी की न्याय परिवर्तन यात्राएँ भी जारी है. कुल मिलाकर कांग्रेस की यह कोशिश है कि हर हाल में सूरत बदलनी चाहिए. पिछले चुनाव में उसे सिर्फ 4.3 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि आम आदमी पार्टी को 53 व भाजपा को 38.7 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे. ऐसी स्थिति में कांग्रेस अपने दम पर कितना कुछ कर पाएगी ? यह सवाल अहम है. दिक्कत यह भी कि कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के बीच चुनावी तालमेल की संभावना खत्म हो गई है. अरविंद केजरीवाल ने गठबंधन से इंकार कर दिया है. दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष देवेंद्र यादव भी आप से तालमेल के पक्ष में नहीं है. वैसे भी हरियाणा चुनाव में दोनों की राह जुदा थी. दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था हालांकि इस वजह से करीब आधा दर्जन सीटें वोटों के विभाजन से प्रभावित हुई थीं. इसके पूर्व 2024 के लोकसभा चुनाव में गठजोड का परिणाम अच्छा नहीं रहा. दोनों के हाथ एक भी सीट नहीं आई.भाजपा ने दिल्ली की सभी सातों सीटें जीत ली थी.

चूंकि दिल्ली में कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है लिहाज़ा उसकी कोशिश होगी कि किसी तरह खाता खुल जाए. सीटों के लिहाज से यदि वह दहाई के आंकड़े तक भी पहुंच गई तो एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. यदि ऐसा हुआ तो उसके वोटों का प्रतिशत भी बढ़ेगा तथा दिल्ली की चुनावी राजनीति का समूचा समीकरण भी बदल जाएगा. क्या ऐसा हो पाएगा ? फिलहाल यह जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस शून्य से उबरेगी बावजूद इस तथ्य के कि इस बार के चुनाव तीनों पार्टियों के लिए अधिक संघर्षपूर्ण होंगे.इस संदर्भ में यह सवाल भी मुंह बाए उपस्थित है कि क्या पांच राज्यों के चुनाव परिणामों की तर्ज पर दिल्ली में भी चकित कर देने वाले परिणाम आएंगे? भाजपा ऐसा कर पाएगी ? जवाब के लिए इंतजार करना होगा.

साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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