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स्मिता पाटिल अपनी कई फ़िल्मों की अन्तिम फ्रेम में वे अकेली ही खड़ी नज़र आती हैं!

-सुशोभित की 'नैनसुख' से-

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Positive India:Sushobhit:
आप स्मिता पाटिल को परदे पर देखकर कभी सहज नहीं हो सकते। वे आपको बहुत अपरिभाषेय रूप से अपदस्थ करती हैं, विचलित करती हैं। उनको देखकर यह ख़याल हमेशा बना रहता है कि कहीं कुछ ऐसा है, जिसे हम बूझ नहीं पा रहे, लेकिन वह क्या है, यह चीन्हता नहीं। अपनी अनिर्वचनीयता के इस भुवन में ही स्मिता कहीं रहती हैं और हमें लुभाती हैं।

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रुपहला सौंदर्य, गौर वर्ण और प्रचलित नैन-नक़्श उनके पास नहीं, लेकिन एक सँवलाया हुआ-सा खिंचाव है, क़शिश है, लगभग आत्मघाती आकर्षण है। तब भी प्रचलित-सौन्दर्य के प्रतिमानों और श्रेणियों से वे हमेशा परे रही थीं। चिदानंद दासगुप्ता ने उनके लिए कहा था कि परदे पर उन्हें देखकर हमेशा यह महसूस होता है मानो वे अपनी देह पर कोई अज्ञात ख़तरा महसूस कर रही हों। वे निष्कवच और उत्कट एक साथ हैं- वल्नरेबल होकर भी इंटेंस। जैसे वे किन्हीं अर्थों में हमेशा निर्वसन हैं और स्वयं पर किन्हीं दुष्चिंताओं को धारण करती हैं। वे अलभ्या हैं, अभिसारिका नहीं। वे प्रगल्भा हैं। और उनकी देहभाषा में ऊपर-ऊपर चाहे जितना आमंत्रण लगता हो, वास्तव में उसमें एक चेतावनी है कि ख़बरदार, जो मेरे निकट आए!

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इस ‘ख़बरदार’ ने एक मुखर स्त्री-चेतना के रूप में 70-80 के दशक में स्मिता की फ़िल्मों को अलंकृत किया था। वे बहुत आवयविक रूप से विद्रोहिणी थीं। एक महाराष्ट्रीयन स्त्री की भाषा-भूषा, रंगत, गंध, चेष्टाओं के साथ वो हिन्दी सिनेमा के परदे पर अवतरित हुई थीं।

स्मिता की आँखें आपको बेधती हैं। आपके भीतर झाँककर देखती हैं, आपसे कुछ पूछती रहती हैं। यह अकारण नहीं कि स्मिता ने जिस स्त्री के रूपक को परदे पर जिया, वह एक ऐसी स्त्री थी, जिसे कभी यथेष्ट प्रेमी नहीं मिले। एक सुदूरगामी-सा ख़याल आता है कि हो न हो, कोई एक प्रत्यय, कोई अमूर्त व्यक्ति-रूपक पहले स्वयं को किसी कृति में रचता है और फिर उसके अनुरूप अपने विग्रह की तलाश करता है। वरना क्या कारण है कि शबाना जहाँ फ़िल्म-दर-फ़िल्म एक तन्मय प्रेयसी की छवि को जीती रहीं, वहीं स्मिता एक अप्राप्य-अभिमानिनी के रूपक कानिर्वाह करती रहीं? क्या किसी सामूहिक-अवचेतन ने किसी वैश्विक-तर्क के तहत इन स्त्रियों के लिए इन पृथक नियतियों का चयन किया था?

विशेष तौर पर श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में अन्य कथासूत्रों के साथ ही एक उपकथानक यह भी चलता रहता है कि पितृसत्ता में स्त्री अपने निजी स्पेस का निर्धारण कैसे करती है और क्या वह ऐसा कर भी सकती है? क्योंकि स्त्री-पुरुष का द्वैत आमने-सामने के संघर्ष का उतना नहीं, जितना पारस्परिकता के आपदधर्म के दुष्कर निर्वाह का है? ‘अंकुर’ और ‘निशान्त’ में शबाना ने इसे अभिनीत किया, किन्तु इसकी परिणति स्मिता की ‘भूमिका’ में देखने को मिलती है, जिसमें अनेक स्तरों तक पितृसत्ता के दायरों का विस्तार चला गया है, और ये ऐन वही स्तर हैं, जो उस फ़िल्म में स्वयं स्मिता के व्यक्तित्व में पहलू-दर-पहलू पैबस्त होते हैं। और फ़िल्म एक अवश्यम्भावी, एक इनएविटेबल की चेतना के साथ समाप्त होती है, लेकिन स्मिता के परिप्रेक्ष्य में वह एक विशिष्ट-अनिवार्य है- एक दुर्लभ नियति।

‘चक्र’, ‘मंथन’, ‘भवनी भवाई’ के स्नान-दृश्यों में कला-फिल्मों के निर्देशक भी स्मिता की अदम्य ऐन्द्रिकता को भुनाने से चूके नहीं थे, ‘भूमिका’ में उनकी अभिव्यक्ति कई दृश्यों में बहुत एरोटिक थी। ‘अर्थ’ में भी। लेकिन वे हमेशा सुदूर-अन्य लगती थीं- अपने निज के लिए भी- और अपने अन्य होने में वे अनन्य थीं। ऐसी उनकी गुत्थी है।

आप उन्हें कभी हासिल नहीं कर सकते और मुट्ठी को भींचकर बाँधने की कोशिश करेंगे तो रेत की तरह वे आपकी पकड़ से छूट जाएंगी। ऐन यही चीज़ आपको उनकी तरफ़ लगातार खींचती भी रहती है।

स्मिता से प्रेम करना आत्मध्वंस के एक दोहरे-आयोजन में जुटने जैसा ही हो सकता है। ‘भूमिका’ में दोहरे ध्वंस का ऐसा ही एक प्रहसन नसीरुद्दीन शाह द्वारा निभाए चरित्र ने रचा, लेकिन परिणति तक पहुँच नहीं पाता। परिणति में स्मिता को हमेशा अकेला होना है।

आश्चर्य नहीं कि अपनी कई फ़िल्मों की अन्तिम फ्रेम में वे अकेली ही खड़ी नज़र आती हैं!

Courtesy:Sushobhit की
‘नैनसुख’ से

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