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पालक का साग सुंदर होता है। बचपन में हम सुनते थे कि पालक में खनिज पाया जाता है। किंतु पालक तो अभ्रक जैसा पदार्थ नहीं। बचपन में हम सुनते थे कि पालक में बहुत लोहा होता है। किंतु पालक का साग कितना तो कोमल! बचपन के ही वह अबोध कौतूहल थे। जैसे कि यही मान बैठना कि लोहा कठोर होता है! जबकि लोहा मुलायम है। कठोर तो जीवन है, संसार है, प्रेम करने वाले का हृदय कठोर होता है, लोहा कहां कठोर होता?
पालक का साग सुंदर होता है। पालक के साग में देखो तो हल्दी कैसे हिली-मिली रहती। किसी और साग में हल्दी की अनुभूति यों उज्ज्वल नहीं होती, ज्यों पालक में। पालक की हल्दी से भली संगति है। हल्दी देह को बांधती है। पोषक है। दिन में दो बार देह की चिठिया मुझको मिलती है, क्षुधा के रूप में। उसको बांचूं तो वो कहती है, मुझे सदैव तो बांध नहीं सकोगे, किंतु जब तक प्राण है, राग-रुधिर की लीला है, पोषण करो। मैं सत्वर इसका अनुपालन करता। अन्न यों ही ब्रह्म नहीं। प्राण का पाहुन इस गेह में स्थिर रहे, स्वस्थ रहे, उसका वह प्रयोजन है। फिर उस चेतना का चाहे जो हो। वो भ्रष्ट भी हो तो उसी का प्रारब्ध। वह सत्व का अनुसरण भी कर सकती है, बोध के उजियारे में भी रह सकती है। किंतु पहले तो उदर भर भोजन कर लिया जाए। भोजन शुभ हो तो और सुंदर। जितने दिवस इस धरती पर हैं, अनुकूल रहो!
हां, तो मैं कह रहा था कि पालक का साग बहुत सुंदर होता है। “लह-लह पालक, मह-मह धनिया”- पुराने दिनों के कवि वैसी कविताएं लिखते थे- “लौकी और सेमफली फूले।” लौकी भी शुभ है। धनिया भी लोकमंगल की ही सूचना देता है। किंतु पालक की लहक सबसे सम्मोहक।
उस लहक ने ही पुकारा था, जब चला जा रहा था अपनी धुन में विगत संध्या, और भाजियों का ठेला दीखा। उसमें पालक लहलहाती थी। हमने सोचा कि चलो पालक का साग पका लेंगे। ये नित-प्रतिदिन तो होता नहीं कि पालक का साग पकाने का अवसर मिले। किंतु मिला। बहुत धीरज से फिर जूट की गांठ खोली, डंठलों को तोड़ा, भाजी को धोया, काटा। कड़ाही में सींझाया। चित्त इसमें जुड़ा गया। हमने सोचा कि भूख तो यों भी मिट जाती। बाज़ार में समस्त वस्तुएं हैं। किंतु ये चित्त यों जुड़ा नहीं पाता। शुभ का भाव नहीं जगता। वही सुंदर था। पालक तो सुंदर थी ही।
पालक का साग सुंदर है, कोमल भी है। वह चित्त को बांधता भी है। देह को पुष्ट भी करता है। रक्त भी शुद्ध उससे होता।
फिर जब साग पक जाए तो एकाग्र होकर भोग लगाओ। रोटियां न हों तो दलिया सेंक लो। उसकी ऊष्मा को कंठ में अनुभूतो। उदर के संतोष को निरखो, परखो। वह कौन है, जो इससे तुष्ट होता है? प्राण का अन्नमय कोश क्या है? वह कौन है, जो इससे पुष्ट होता है? देह का विकल राग क्या है? भोजन के उपरान्त मिष्ठान्न का लोभ हो तो गुड़ भूंज लो। हथेली पर ले खाओ। लोटे से जल पी लो। हाथ पखार लो। यह सब सरल है। किंतु सरल बड़ा कठिन होता है। बाज़ार में मोल लेने जाओ तो ये सब खोजे ना मिले। यों बाज़ार में क्या नहीं मिलता? ये बहुमूल्य नहीं। फिर भी दुर्लभ है।
पालक का साग सरल है। जैसे जीवन सरल होता है। पालक का साग सुंदर भी है, कोमल भी। यह जीवन भी कोमल हो तो रीझूं। सुंदर हो तो कहूं। साग खाकर यों कहना फिर दुर्गम नहीं। भोजन के बाद लेखक सोचता है कि अब कुछ जमकर लिखा जाए। देह के बंध समुचित हों तो लिखना सम्भव है। पूर्णिया का एक कथावाचक कहता था- “पहले भोजन मिला करे, फिर कठिन नहीं है बात बनाना!” बात तो बन ही जाती है, जो देह जुड़ी रहे। मन अनुकूल रहे। जीवन सजल रहे। पालक के साग से उसकी संगति रहे।
ये नित-प्रतिदिन तो नहीं होता कि भोजन में पालक का साग हो। उसमें भी यह दैनन्दिनी नहीं कि स्वयं ही उसको पकाने का अवसर मिले। इस रीति से दो प्रयोजन एक साथ सिद्ध हुए। उसी का प्रतिफल है यह रम्य-रचना। क्या यह मनोहारी नहीं? पालक के साग की अनुशस्ति। उसका स्वस्ति-वाचन। अनुगायन उसी के गौरव का। वही वैसा पुण्यशाली हो तो कोई क्या करे। सुंदर, सरल, कोमल तो वह है ही। मैं भी वैसा बनूं तो शुभ हो!
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