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आज तक के कार्यक्रम में साहित्य धूमिल की पटकथा की बाल्टी वाली ‘आग’ है , भीतर तो उर्फी जावेद है

-दयानंद पांडेय से स्वदेश के समन्वय संपादक डाक्टर अजय खेमरिया की बातचीत ।

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Positive India:Dr Ajay(Swadesh):
दयानंद पांडेय से स्वदेश के समन्वय संपादक डाक्टर अजय खेमरिया की बातचीत:

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०साहित्य आज तक मे उर्फी जावेद को लेकर जारी विवाद पर आप क्या सोचते हैं?
– फ़ालतू का विवाद है। पोर्न स्टार मिया ख़लीफ़ा किसान आंदोलन में कूद सकती हैं तो साहित्य आज तक मे उर्फी जावेद से क्या दिक़्क़त है भला ? धूमिल की प्रसिद्ध और लंबी कविता पटकथा की यह पंक्ति ग़ौरतलब है :

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मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।

साहित्य आज तक के कार्यक्रम में साहित्य यही ‘आग’ है। भीतर तो उर्फी जावेद है। उर्फी जावेद एंड कंपनी है। बाज़ार की आग बुझाने और भड़काने का ठेका तो उर्फी जावेद आदि-इत्यादि के ही जिम्मे है। साहित्य के किसी दरबान के जिम्मे नहीं। 499 रुपए का टिकट किसी लेखक या कवि के लिए जनता नहीं ख़रीद रही। उर्फी जावेद टाइप के लिए ख़रीद रही। बिग बॉस और कपिल शर्मा शो के दौर में आप क्या खोज रहे हैं। साहिर लुधियानवी याद आते हैं :

हसीनो से अहद-ए-वफ़ा चाहते हो
बड़े नासमझ हो ये क्या चाहते हो।

फिर साहित्य आज तक के कार्यक्रम में ऐसा कुछ पहली बार नहीं हो रहा है। सर्वदा से होता रहा है। होता रहेगा। साहित्य आज तक के कार्यक्रम के केंद्र में साहित्य कभी नहीं रहा। बाज़ार ही उन का लक्ष्य था , है और रहेगा। आज तक पैसा कमाने के लिए पैदा हुआ है। साहित्य सेवा के लिए नहीं। आप इसी ग्रुप की पत्रिका इंडिया टुडे को देख लीजिए। कभी इस पत्रिका में पुस्तक समीक्षा , कहानी , कविता का प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत ही सही रहा करता था। कई सालों से यह प्रतिनिधित्व भी समाप्त हो चुका है। इसी आज तक में एक नामी एंकर थे जो कभी-कभार दुष्यंत कुमार के कुछ शेर कोट करते रहते थे , जब – तब। और बताते थे कि दुष्यंत कुमार के यह शेर संसद में लोहिया सुनाते थे। यह तब था जब लोहिया का निधन 12 अक्टूबर , 1967 को हो चुका था। और दुष्यंत कुमार ने तब तक कोई शेर नहीं लिखा था। और कि उन का एकमात्र ग़ज़ल संग्रह साये में धूप 1975 में प्रकाशित हुआ। जिसे लोहिया ने कभी देखा , पढ़ा या सुना नहीं।

०क्या ऐसे आयोजन विशुद्ध रूप से बाजारवादी मानसिकता से नियंत्रित है?
– ऐसा मासूम सवाल ? बाज़ार के ख़िलाफ़ भी कई बाज़ार सजे हुए हैं। बाज़ार है तो सब कुछ है। सारा प्यार बाज़ार से ही है। सारे त्यौहार , सारे मांगलिक कार्य , सारे संबंध अब बाज़ार से ही निर्धारित हैं। यह तो फिर भी आज तक की दुकान है। जिस का धर्म और सारा सरोकार ही बाज़ार है।

०क्या साहित्य की आड़ में सेलिब्रिटी अपना उल्लू साधते हैं?

– सवाल ही ग़लत है। उल्लू नहीं साधते , उल्लू बनाते हैं। इस उल्लू से लक्ष्मी प्राप्त करते हैं।

०उर्फी पर विवाद है पर इससे पहले भी तो फिल्मी सितारे ऐसे आयोजनों में साहित्यकारों के साथ बैठते रहे हैं फिर अकेली उर्फी को लेकर क्यों हंगामा है?

– यह हंगामा भी एक दुकान है , इस हंगामे का भी एक छोटा सा बाज़ार है। फ़ैशन भी कह सकते हैं। फिर गुलज़ार , जावेद टाइप लोग भी कापियर हैं। बेस्ट कापियर। उर्दू के हैं। हिंदी के नहीं। बेस्ट प्रजेंटेटर हैं। पर हैं कापियर ही। सभी भाषाओँ की बात कर सकते हैं आप। तो इस साहित्य आज तक में बाक़ी भारतीय भाषाएं कब आईं ?

०साहित्य आज तक और ऐसे ही लिट् फेस्टिवल कल्चर से किसके हित सध रहे है?

– सिर्फ़ और सिर्फ़ बाज़ार के। जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल या किसी भी शहर का कोई भी लिटरेरी फेस्टिवल , सब इस बाज़ार के हामीदार हैं। मीर कह गए हैं : हम हुए तुम हुए कि मीर हुए / सब इसी ज़ुल्फ़ के असीर हुए।

०ऐसे आयोजनों से साहित्य और भाषा का क्या भला हो रहा है?

– साहित्य और भाषा का अपराध यह है कि इन के पास अपना कोई बाज़ार नहीं है। कम से कम हिंदी साहित्य और भाषा के पास। जिस का बाज़ार नहीं , उस का भला कैसे होगा। साहित्य और भाषा का यह भला सोचना ही पाप है। अपराध है। हिंदी ही क्यों हिंदी दिवस मनाती है। सोचने की बात है। किसी और भाषा को अपना दिवस मनाते देखा है कभी ?

तो इस साहित्य आज तक का नामकरण बाज़ार आज तक या फ़िल्म आज तक रखना बेहतर होता।

[ भोपाल , लखनऊ सहित कई जगहों से प्रकाशित स्वदेश के 17 नवंबर , 2024 के अंक से साभार ]
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