Positive India: Sushobhit:
मैं इस्लाम का घोषित आलोचक हूँ। जब मैं इस्लाम की आलोचना करता हूँ तो हिन्दी के बौद्धिक मुझे तुरंत फ़ासिस्ट, हिन्दुत्ववादी, साम्प्रदायिक, संघी क़रार दे देते हैं। ऐसा करने वाले कोई चलताऊ फ़ेसबक-यूज़र नहीं हैं, बल्कि हिन्दी के बड़े पत्रकार, लेखक, साहित्यकार ऐसा करते हैं। इन्हें लगता है कि जो इस्लाम की आलोचना करे, वह अनिवार्यत: हिन्दुत्ववादी ही होगा। इन्हें बौद्धिकता के उस इतिहास का कोई ज्ञान नहीं, जिसमें असंख्य विचारकों ने, असंख्य दृष्टिकोण से रिलीजन-इन-जनरल और स्पेसिफिकली इस्लाम की डटकर आलोचना की है- और वे स्वयं ह्यूमनिस्ट थे। यही कारण है कि मैं हिन्दी के समाज को अबौद्धिक समाज कहता हूँ, क्योंकि यहाँ कथित लेखक-साहित्यकार लोग भी परजे दर्जे की अपढ़ता का परिचय देते हैं।
मुझे इस्लाम में बहुत सारे ऐसे ट्रेट्स दिखते हैं, जो समस्याजनक हैं : जैसे अंदरूनी लोकतंत्र का पूर्ण अभाव, अपने टेक्स्ट्स की किसी भी किस्म की खुली व्याख्या या पड़ताल से परहेज़, विस्तारवाद, अवैज्ञानिकता, ग़ैर-प्रगतिशीलता, औरतों की आज़ादी का विरोध, जानवरों के प्रति किसी भी तरह की अहिंसा का पूर्ण निषेध, अपनी श्रेष्ठता का बोध, अपने ही विचार को अंतिम मानने का हठ। इनकी आलोचना करने के लिए आपका हिन्दुत्ववादी होना ज़रूरी नहीं है, आप अपनी बौद्धिक वैधता को क़ायम रखते हुए भी ऐसा कर सकते हैं। याद रहे- वर्तमान में ऐसे अनेक दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी सक्रिय हैं, जो हिन्दुत्व के दृष्टिकोण से चीज़ों पर अपनी राय रखते हैं और वे पर्याप्त लोकप्रिय हैं। अगर मैं वैचारिक रूप से हिन्दुत्ववादी होता तो मुझे इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में अड़चन नहीं थी। लेकिन जो चीज़ है ही नहीं, उसे मैं कैसे मान लूँ।
विचारों के इतिहास में चीज़ें इकहरी नहीं होतीं, बहुस्तरीय होती हैं। ऐसा नहीं होता कि आप ऐसी-ऐसी बात कहते हैं तो आप अपने आप वैसे-वैसे खाँचे में फिट कर दिए जाएँगे। रबीन्द्रनाथ राष्ट्रवाद के विरोधी थे, पर इसके साथ ही बांग्ला जातीय-बोध से भरे थे। रामचन्द्र गुहा ने उन्हें रूटेड-कॉस्मोपोलिटन कहा है। गांधी-प्रणीत राष्ट्रवाद को नकारकर वो वामपंथी नहीं हो गए थे। उलटे ब्रिटिश-राज की मुख़ालफ़त में उन्होंने जो नाइटहुड लौटाया, उसमें एक नेशनलिस्ट-आभा थी। नेहरू लिबरल-डेमोक्रेट थे, पश्चिमी साँचे में ढले सेकुलर- धर्मों के प्रति अरुचि का भाव रखते थे, इसी से नेहरू बनाम पटेल का द्वैत बनता है, क्योंकि पटेल में जातीय-गौरव प्रबल था। गांधी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक होकर भी सुधारवादी थे, दलितोद्धार के आन्दोलन छेड़ते थे। क़ौमी एकता में हिन्दुस्तान की नियति देखते थे और वैसा करने वाले उस ज़माने में वो अकेले नहीं थे- विवेकानन्द, भगत, सुभाष, बिस्मिल- सभी में क़ौमी एकता का भाव था। कार्ल मार्क्स : ईश्वर को नकारने वाले द्वंद्वात्मक भौतिकवादी, पूँजीवाद के आलोचक, कम्युनिस्ट क्रांति के प्रस्तोता। रिलीजन की आलोचना करके वो फ़ासिस्ट नहीं हो गए। आम्बेडकर ने तो ब्राह्मणवाद के साथ ही इस्लाम की भी आलोचना की, गांधी ने भी प्रार्थना प्रवचन में मुसलमानों को भरसक फटकार लगाई है। इससे वे संघी हो गए थे क्या? वो तो संघ के निशाने पर थे।
निर्मल वर्मा : इस्लाम के आलोचक थे। क्या वो फ़ासिस्ट हैं? रिचर्ड डॉकिन्स : मौजूदा दौर के बहुत बड़े इंटेलेक्चुअल, रैशनलिस्ट। अल जज़ीरा के मेहदी हसन के साथ उनकी पब्लिक डिबेट चर्चित है, जिसमें उन्होंने हसन की इस्लामिस्ट सोच का पर्दाफ़ाश कर दिया। क्या वो फ़ासिस्ट हैं? भारत के अपने प्रो. एजाज़ अहमद, कम्युनिस्ट- जो कहते थे मैं गॉडलेस हूँ, मिलिटैंट एथीस्ट हूँ, क्या वो फ़ासिस्ट थे? क्या वीएस नायपॉल फ़ासिस्ट हैं, आप उन्हें कलोनियलिस्ट चाहे जितना कह दें। मार्टिन एमिस- इस्लाम के क्रिटिक : क्या वो फ़ासिस्ट हैं? जर्नलिस्ट ओरियाना फ़लाची फ़ासिस्ट हैं? भारत के महान उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने इस्लाम की आलोचना में एक निबंध लिखा है, क्या वो फ़ासिस्ट हैं? ख़ुद इस्लाम के भीतर से उठने वाले विरोध की आवाज़ें- सलमान रूश्दी, अयान हिरसी अली, तस्लीमा नसरीन और अब ईरान की हिजाब-विरोधी बहादुर औरतें- क्या वो फ़ासिस्ट हैं?
वह कौन-सा बौद्धिक दिवालियापन है हिन्दी-समाज का जो इस्लाम की मुख़ालफ़त करते ही आपको फ़ासिस्ट घोषित कर देता है? क्या आप वैध-तर्कों के आधार पर इस प्रॉब्लमैटिक-कल्ट की आलोचना नहीं कर सकते?
मैं अपना उदाहरण सामने रखता हूँ : कॉस्मोपोलिटन, नेशनलिज्म का विरोधी। एथीस्ट : अपने को हिन्दू नहीं मानता। जाति त्याग दी। पोस्ट मॉडर्निस्ट : जिसको फ्रेडरिक जैमसन उत्तर-पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क कह गए, अभी पंद्रह दिन पहले मरे वो- लेकिन एक फ्रैग्मेंटेड-साइकी वाला, मेटा-नैरेटिव्ज़ से सशंकित। एग्जिसटेंशलिस्ट, एब्सर्डिस्ट : काफ़्का और दोस्तोयेव्स्की का मानस-पुत्र। यहाँ तक कि नीत्शे के प्रभाव में ह्यूमनिज़्म की प्रचलित परिपाटियों को लाँघने वाला।
इस बौद्धिक पृष्ठभूमि के साथ मैं इस्लाम की आलोचना करता हूँ, और मित्रों की गाड़ी गोलवलकर, सावरकर से आगे नहीं बढ़ पाती। उनको लगता है, जो इस्लाम का क्रिटिक, वो गोलवलकर का चेला।
इस काले और सफ़ेद के चलन को बदलना होगा कि वामपंथी हर हाल में इस्लाम का बचाव करेंगे और दक्षिणपंथी हर हाल में इस्लाम की आलोचना करेंगे। मानवेन्द्र नाथ राय ने इस्लाम में समानता के भाव की भी बड़ी सराहना की है, उसे मैंने पढ़ा-समझा है। मैं हर वैध-विचार के लिए अपने को खुला रखता हूँ और उनका स्वागत करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि हिन्दी समाज भी बौद्धिक रूप से परिपक्व हो और नेमकॉलिंग की थोथी-प्रवृत्ति को त्यागे कि जहाँ कोई इस्लाम की निंदा करता दिखा, उसे फट्ट से अपना पसंदीदा तमग़ा दे दिया कि तुम तो संघी निकले!
Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)