Positive India: Dayanand Pandey:
‘हम त मंगली, आजन-बाजन, सिंहा काहें लवले रे/ खींचब तोर दाढी, बंदूक काहें लवले रे ! ’ जैसे सदाबहार गीतों से आज भी डंका बजाने वाली शारदा सिनहा अब भोजपुरी गायकी का मान और सम्मान हैं। पर इतनी आसानी से उन्हों ने यह सब अर्जित नहीं किया है। इस के पीछे उन का अनथक संघर्ष तो है ही, कभी गायिका में न झुकने का गर्व भी है। बात-बात में आज के कलाकार ऐसे झुक जाते हैं, इतने समझौते कर जाते हैं कि कई बार लगता है कि क्या वह भोजपुरी ही गा रहे हैं? या कुछ और? ऐसे-ऐसे वीभत्स गाने भोजपुरी के नाम पर अब चस्पा हैं। जिसे एक से एक स्वनामधन्य गायक गा रहे हैं। रीढ तो यह सारे गायक गंवा ही चुके हैं, लगता है बोनलेस भी हो चुके हैं। पैसे की भूख और कैसेट तथा सी डी कंपनियों की लालच ने भोजपुरी गायकी को जैसे बर्बाद कर दिया है। पर शारदा सिनहा इन सब में न सिर्फ़ अलग हैं, बल्कि भोजपुरी गायकी के साथ कभी समझौते नहीं किए। अपनी और गायकी दोनों की रीढ बचा कर रखी। वह कहती ही हैं कि बताइए ज़रा सी लोकप्रियता और पैसे के लिए मैं कैसे अपनी थाती गवां दूं ? हमने जो कमाया है उसे कैसे लात मार दूं ?
एक समय जब भोजपुरी पर पॉप मुजिक सवार था तब शारदा सिनहा से मैं ने पूछा था भोजपुरी में पॉप म्युजिक के बाबत। तो वह बोलीं, ‘भोजपुरी एतना मीठ भाषा बा ऊ पॉप में कहां समाई?’
‘मैंने प्यार किया’ के एक गाने से प्रसिद्धि का शिखर छूने वाली लोक गायिका शारदा सिनहा भोजपुरी गानों को पॉप में इस्तेमाल करने से खासी दुखी हैं। वह भोजपुरी को पॉप में नहीं देखना चाहतीं। शारदा सिनहा बोलीं, ‘भोजपुरी एतना मीठ भाषा बा, ऊ पॉप में कहां समाई? सोहर, कजरी, विदागीत या शोकगीत कैसे पॉप कर देंगे आप?’
शारदा सिनहा का गाया एक गाना प्रकाश झा की फिल्म ‘मृत्युदंड’ में आया था। ‘मृत्युदंड’ में शारदा सिनहा का गाया गीत, ‘गुप चुप सोचेली दुल्हनिया’, गीत शबाना आजमी पर फिल्माया गया है जिसमें वह माधुरी दीक्षित को बतौर बहु ‘रिसीव’ करती हैं। यह गीत योगेश ने लिखा है। शारदा सिनहा हिंदी, भोजपुरी के अलावा मगही, वज्जिका और मैथिली भाषाओं में भी गाती हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है। फिर भी भोजपुरी गाने उन्हों न सबसे ज्यादा गाए हैं। भोजपुरी के सी डी, कैसेट भी उन के सर्वाधिक हैं।
शारदा सिनहा बचपन से ही गाती आ रहीं हैं पर बकायदा वह 1971 से गाने लगीं। जब वह अंगरेजी से एम ए कर रही थीं तब तक उन के गानों के रिकार्ड बाजार में आ कर बजने लगे थे। अभी वह वीमेंस कॉलेज समस्तीपुर में संगीत की प्रोफेसर हैं। अब रिटायर होने वाली हैं। बात ही बात में वह बताने लगीं कि पति से झगड़ा इस बात पर नहीं होता कि मैं गाती बजाती क्यों हूँ। बल्कि इस बात पर होता है कि ‘क्या दाल नमक में पड़ी हो चलो रियाज करो।’ फिर वह ससुराल के बीते दिन याद करती हैं और कहती हैं कि कैसे सास ने मेरे गाने पर आपत्ति की थी। कहा था कि बहू कैसे गाएगी? तो ससुर ने सास को यह कह कर मनाया था कि भगवान ने उस को आवाज़ दी है, कला दी है, गाने के लिए रोटी बेलने के लिए नहीं। और जैसे तैसे सास मान गईं थीं। वह फिर बीते दिनों को याद करती हैं कि कैसे वह आकाशवाणी दरभंगा की कलाकार बनी थीं और फिर ‘जगदंबा दियना बार अइली हे’, पर 1979 में एच.एम.वी ने वर्ष का सर्वोतम पुरस्कार दिया।
फिर ‘ए ट्रिब्युट टू मैथिल कोकिल विद्यापति’ एच एम वी ने निकाला। शारदा सिनहा को विदेशो तक पहुंचाया। इस में पंडित नरेंद्र शर्मा की लिखी कमेंट्री है।
शारदा सिनहा बताती हैं कि, इस के बाद ‘केकरा से कहां मिले जाला’ , 1985 में सुपर कैसेट्स ने रिलीज किया तो हर कोई हमसे ‘केकरा से’ की ही या इसी तरह का कुछ मांगने सुनने लगा। फिर ‘कोयल बिन बगिया ना सोहे राजा’ और ‘पनिया के जहाज से पलटनिया बनी अइह पिया, लेले अइह हो पिया सेनुरा बंगाल के।’ गानों ने भी धूम मचाई। यह 1988 की बात है मॉरीशस गईं तो लोग ये गाने सुन-सुन झूम उठे। फिर ‘पटना से बैदा बोलाई द, नजरा गइली गोइयां’ गीत भी ‘माई’ फ़िल्म का खूब मशहूर हुआ। भिखारी ठाकुर के गीतों की बात चली तो वह कहने लगीं, ‘मैं तो सब गाना चाहती हूं, कुछ गा भी रही हूं। पर जिन लोगों के पास भिखारी ठाकुर के गीत या और भोजपुरी के पारंपरिक गीत हैं वह दो दो लाख गीत के मांगने लगते हैं। तो हम कहां से देंगे इतना पैसा?’ ‘का देके शिव के मनाई हो शिव मानत नाहीं’ जैसे गीत गाने वाली और लत की हद तक हरदम पान चबाने वाली शारदा सिनहा का प्रिय वाद्य बांसुरी है। वह कहती हैं, ‘रियाज से ज्यादा सुनती हूँ।’ पद्म श्री, मिथिला विभूति, अंतरराष्ट्रीय भिखारी ठाकुर सम्मान जैसे ढेरों सम्मान और पुरस्कारों से पुरस्कृत शारदा सिनहा अब भोजपुरी गायकी का वह प्रतिमान हैं जिसे अब कोई दूसरा शायद ही रच पाए। आने वाले दिनों में दूरदर्शन के कार्यक्रमों संगीत सितारे, मिर्च मसाला और बॉलिवुड रिपोर्टर में भी दिखेंगी। 1996 में शारदा सिनहा अवध फिल्म्स द्वारा बनाए जा रहे भोजपुरी के पहले धारावाहिक हमरी सांची पिरितिया के गानों की रेकार्डिंग खातिर तब लखनऊ आईं थीं, जब यह बातचीत दयानंद पांडेय ने राष्ट्रीय सहारा के लिए की , पेश है बातचीत:
दलेर मेहंदी जैसे आज के मशहूर गायक भोजपुरी को भी पॉप में ढाल कर अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने की बात कर रहे हैं। आप की क्या राय है?
भोजपुरी को आप पॉप में कैसे ढाल देंगे? कम से कम मैं भोजपुरी को पॉप में नहीं देखना चाहती। भोजपुरी एतना मीठ भाषा बा, ऊ पॉप में कहां समाई। सोहर, कजरी, विदा गीत या शोक गीत को कइसे पॉप कर देंगे आप? यह दलेर मेहंदी से पूछिए आप।
क्या आप को पॉप का ऑफर नहीं मिला?
-खूब मिला है। मेरा कहना है कि दो लाइन है। रास्ता अलग अलग है। हमसे तो बहुत लोग कहते हैं कि मुंबई में रह जाइए। पर नहीं रहते।
क्यों?
– सपरिवार रहने की व्यवस्था नहीं कर सकती। बच्चे पढ़ रहे हैं। नौकरी है। फिर वहां जा कर मैं परिवार की नहीं रह पाऊंगी। फिर अपनी निजता, अपनी ओरिजनलटी भूल जाएंगे तो क्या फायदा? मैं तो लोकभाषा के प्रचार प्रसार को समर्पित हूँ। इसे अक्षुण्ण करने में एक यूनिट बन सकूं तो ज़िंदगी सार्थक समझूंगी।
बात पॉप के ऑफर की पूछी थी। आप ने बताया नहीं?
– कहा तो कि खूब ऑफर मिले। आज भी मिलते हैं। हम को बहुत लोग कहते हैं कि आप की आवाज़ गज़ब की है। मिठास बहुत है बस थोड़ा सा ‘ट्रेंड’ बदल दीजिए तो क्या से क्या कर दें। यह सब सुन कर डर जाती हूँ। लोग कहते हैं कि आप ज़रा सा इशारा कर दीजिए तो क्या से क्या बना दें। पर बताइए ज़रा सी लोकप्रियता और पैसे के लिए मैं कैसे अपनी थाती गवां दूं ? हमने जो कमाया है उसे कैसे लात मार दूं ? एक ही काम आदमी करे अच्छा करे वही ठीक है। लोक गीतों के प्रति मैं समर्पित हूं। जो काम कर रही हूं तो चाहती हूं कि काम भी पहुंचे और नाम भी पहुंचे, हम भी क्षितिज पर रहें।
‘मैंने प्यार किया’ के एक गाने से सफलता की, प्रसिद्धि का जो शिखर आप ने छुआ, उसे फिर दुहरा नहीं पाई आप?
– ऐसे लोग कम होते हैं कि एक किया, दूसरा किया। ऐसा तो राजश्री वाले करते नहीं। हम भी नहीं करते। और फिर हम इस को व्यक्तिगत रूप से असफलता नहीं मानते कि गाया और अंबार लग गया। ऐसा नहीं हुआ मेरे साथ यह भी सही है। शायद इस लिए भी कि नौकरी छोड़ कर मुंबई जा कर नहीं रह पाती। मुंबई में होते तो यह बात नहीं होती। अब तो यह है कि किसी को कोई खास चीज़ चाहिए तो बुलाता है, चली जाती हूँ। रूटीन में नहीं हूं मैं मुंबई में।
राजश्री की ही फ़िल्म ‘हम आप के हैं कौन’ में भी आप ने एक गीत गाया है पर ‘मैंने प्यार किया’ जैसा पता नहीं देता वह गीत। क्यों?
– ‘मैंने प्यार किया’ का गीत ‘मैं तोहरी सजनिया’ असद भोपाली ने लिखा ज़रूर है पर मूलत: यह भोजपुरी लोकगीत है। वह गाना भी मशहूर है और संयोग से उसे भी बहुत पहले मैं ने ही गाया था। गाने के बोल हैं ‘कछुवो न बोलब चाहे कौनो सजा द, कइली का कसूर तनी एतना बता द।’ खइली बड़ा धोखा कैसेट में यह गाना है। राजश्री प्रोडक्शन को यह गाना पसंद आया तो उन्हों ने उसी धुन पर असद भोपाली से गाना लिखवाया और मुझ से ही गवाया।
आप की इस मोटी आवाज़ में जो खनक और गमक है वह अनायास ही है या सायास? या आप रियाज से साधती हैं, इसे?
नहीं अनायास ही है। यह तो प्राकृतिक है और बचपन से है। यही मेरा प्लस प्वाइंट है। यह मेरी पहचान है। रियाज तो मैं चार घंटे रोज ही करती हूँ। पर व्यस्तता में काम काज में कभी छूट भी जाता है।
भोजपुरी लोकगायक ‘आखिर सजनियां’, ‘गोइयां’ से आगे की बात क्यों नहीं कर पा रहे हैं ? तब जब कि भोजपुरी में पारंपरिक गीतों का भारी भंडार है।
इस लिए कि लोग त्वरित पैसा बनाने में लगे हैं। मुंबई के लोगों से भोजपुरी गवाया जाएगा तो वह भोजपुरी ‘टच’ कहां से दे पाएंगे, सस्ते गाने जल्दी बिना मेहनत के आनन फानन रिकार्ड हो जाते हैं, वहीं मुंबई में तो क्या होगा। भोजपुरी गाने वाले बिहार में हैं, उत्तर प्रदेश में हैं। इन्हें कोई पूछता ही नहीं। कौन ढूंढे और कौन बुलाए? और बुलाएंगे भी तो एक एक लाइन इधर उधर की जोड़ कर भोजपुरी फोक को पॉप म्यूजिक में गाने के लिए।
आप की गायिकी की रेंज बहुत छोटी है और आप के गाए ढेर सारे गीत लगभग एक ही स्टाइल में क्यों हैं?
– ऐसा तो नहीं है।( फिर वह इसे सिद्ध करने के लिए अपने गाए कुछ गीत बारी बारी सुनाती हैं।)
आप युगल गीत क्यों नहीं गातीं?
– क्योंकि मेरी पहचान में वह शुमार नहीं है। कभी कभार की बात और है। पर मुझे लगता है कि मैं एकल ही के लिए बनी हूं। हां, मेरी बेटी वंदना अब कभी कभी मेरे साथ गाने लगी है। वैसे ‘बोल बम’ डाक्यूमेंट्री में एक गीत सुरेश वाडेकर के साथ गाया था। फिर वह जैसे याद करती हैं – बहुत पहले पति के साथ गाती थी। बच्चन जी के ‘सोनमछरी’ गीत की वह याद करती हैं और बताती हैं, मेरे पति बड़ा तन्मय हो कर गाते थे। अब तो वह मुंगेर में जिला शिक्षा अधीक्षक से रिटायर हैं।
आप अध्यपिका हैं। अध्यापन और कार्यक्रम दोनों एक साथ निभाने में नुकसान ज़्यादा किस का होता है?
– अध्यापन और कार्यक्रम दोनों ही मेरे लिए श्रृंगार हैं। और व्यस्तता में दोनों ही सफर करते हैं।
छूट्टी मिल जाती है, स्कूल से कार्यक्रमों के लिए?
– बिहार के लिए चूंकि मैं अकेली हूं। इस लिए ज़्यादा असुविधा नहीं होती कालेज से छुट्टी मिलने में।
[ 1996 में लिया गया इंटरव्यू ]साभार:दयानंद पांडेय