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शोक से विमुख होना स्वयं के प्रति गहरा से गहरा विश्वासघात है

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit-:
क्या अपने शोक से विमुख होना स्वयं के प्रति गहरा से गहरा विश्वासघात नहीं है? और क्या ऐसा सम्भव है भी? क्या शोक कोई ऐसी वस्तु है, जिसे हम अपने से छिटककर अलग कर सकते हों? क्या प्रसन्नता एक अभिनय हो सकती है?

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बीते दिनों मैंने गहरे शोक का अनुभव किया। अपनी एक प्रिय को खोया। वह एक मनुष्येतर प्राणी थी। उससे मेरी गहरी सन्निधि थी, आसक्ति थी। आसक्ति होगी तो दु:ख तो होगा ही। किन्तु दु:ख इतने अप्रत्याशित रूप से आयेगा, यह कल्पना न थी। अभी कल तक वह आँखों के सामने थी, फिर चली गई। एक अनुगूँज की तरह गुम हो गई। उसके अभाव ने मेरी आत्मा को ग्रस लिया। शून्य का एक बगूला भीतर उठा और थिर हो गया। यह एक सघन अनुभूति थी, जिससे बचने का कोई उपाय न था। निर्वात की एक मीनार की तरह वह अभाव और उसका शोक मेरे भीतर उठ खड़ा हुआ और स्थिर रहा।

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मुझे शोक में देख सहकर्मियों ने कहा कि इससे निकलने का प्रयास करो। मैंने प्रतिप्रश्न किया, क्यों? मुझे इससे निकलने का प्रयास क्यों करना चाहिए? क्या शोक में होना पाप है? अपराध है? अनीति है? क्या प्रसन्न होना इतना आवश्यक है कि येन-केन-प्रकारेण प्रसन्न हुआ जाये? क्या प्रसन्न होने का थोथा अभिनय किया जा सकता है?

मुझसे कहा ​गया कि उसका कोई विकल्प खोजो और उस विकल्प से सुख पाओ। मैंने प्रतिप्रश्न किया कि क्या कोई विकल्प सम्भव है भी? प्रेम की परिभाषा ही यही होती है कि एक ऐसी चेतना से अनुरक्ति, जिसका इस अखिल-सृष्टि में कोई दूसरा विकल्प नहीं है। प्रेम में प्रेम-पात्र का विकल्प होता ही नहीं। वह एक अनिवार्य-विशिष्ट होता है। वह है तो प्रेम का मूर्तन है। वह नहीं है तो अभाव का शोक है। इस अनुभूति का शोक कि व्यक्तियों और वस्तुओं से भरे इतने बड़े ब्रह्माण्ड में ऐसा एक भी नहीं, जो उस अभाव की पूर्ति कर सके। और तब शोक किसी लौहवत-नियम की तरह अनुल्लंघ्य हो जाता है- अकाट्य, अथाह और अटल।

मैंने कहा, मैं उसका कोई विकल्प नहीं खोज सकता। कोई विकल्प है भी नहीं। बस यह मूर्तमान अनुपस्थि​ति है, अनुपस्थि​त का विग्रह है। यह रहेगा, जब तक इसे रहना है। समय ही इसके परिप्रेक्ष्यों को आलोकित करेगा। समय शोक का शत्रु है। एक सुदीर्घ अंतराल में सघन से सघन शोक के आशय विलीन हो जाते हैं। किन्तु उसके लिए उस सुदीर्घ अंतराल की अग्निपरीक्षा से गुज़रना होता है। आप उससे गुज़रते हैं, क्योंकि आप इसके सिवा कुछ नहीं कर सकते। आप इस विलम्बित-मृत्यु को जीते हैं। आप इससे भाग नहीं सकते। आप मुस्कराहटों को अपने चेहरे ​पर चिपका नहीं सकते।

शोक में होना यों भी मेरे लिए अजूबी घटना नहीं। मैं शोकात्मकता का ही आख्यायक हूँ। मैं आरोपित प्रसन्नता से अपनी आत्मा को भोथरा नहीं करना चाहता। प्रसन्नता अगर सहज ही पल्लवित हो खिल उठे, झरने की तरह फूट पड़े तो मैं उसके उत्सव का सहगायक बन जाऊँगा, किन्तु उसे अपने पर थोपूँगा नहीं। जैसे शोक को मैंने अपने पर नहीं थोपा, किन्तु वह वहाँ पर है तो मैं उसको जीता हूँ। क्या अपने शोक से विमुख होना स्वयं के प्रति गहरा से गहरा विश्वासघात नहीं है? किसी को भी पाप का यह आत्मद्रोह क्यों कर करना चाहिये?

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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