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जब मुझे लगा कि बुद्ध मुझसे कानों में कुछ कह रहे हैं

-संदीप तिवारी राज की कलम से-

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Positive India: Sandeep Tiwari:
बुद्ध / जीवन
एक दिन बोधिवृक्ष के नीचे बैठा था… सहसा हवा का एक झोंका आया और वृक्ष का एक पत्ता मेरी गोद में आ गिरा…मुझे लगा कि बुद्ध मुझसे कानों में कह रहे हैं – वत्स ! जीवन में बहुत दुख है…या यूं कहूं कि जीवन ही दुख है…जन्म दुख है, जवानी दुख है, बुढापा दुख है, मरण दुख है, मित्रता दुख है, प्रेम दुख है, संबंध दुख है… दुख का कारण है तुम्हारी असंख्य तृष्णाएं…आ जाओ मेरे पास, इस तृष्णा का अंत कर दुख से मुक्ति तथा निर्वाण का मार्ग बताता हूं तुम्हें…

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मैंने मन ही मन कहा – भगवन् ! जिस जीवन में इच्छाएं न हों, तृष्णाएं न हों, प्रेम न हो, मित्रता न हो, रिश्ते न हों, तलाश न हो, मिलन-विरह न हो, सफलता और असफलता न हो…वैसा एकरस जीवन जीकर भी क्या करना है मुझे ? अपनी इस अनिश्चित लेकिन रोमांचक और खूबसूरत जीवन की चुनौतियों के बदले मुक्ति का श्मशान जैसा सन्नाटा मुझे आकर्षित नहीं करता… अपनी असंख्य तृष्णाओं पर थोड़ा नियंत्रण और अनुशासन तक तो ठीक है…लेकिन इनसे मुक्ति ?

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मुझे जीवन भी प्यारा है और इससे जुड़ी तृष्णाएं भी और उनकी चुनौतियां भी…मैं बार-बार इस संसार में लौटकर आना चाहूंगा…तो क्षमा करें प्रभु ! आपके असंख्य उपदेशों के उत्तर में मेरा एक यही उत्तर है…!!

हमको जीना नहीं आया वरना…
ज़िन्दगी जश्न के सिवा क्या है…!!!

साभार:संदीप तिवारी राज-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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