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आय हाय .. तेरी बिंदिया रे…

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
अपने दौर में वे सबको प्रिय रहीं। एक दम घरेलू सी लड़की, जिसके चेहरे पर कहीं प्रपंच नहीं दिखता था। उनकी सुंदरता मायावी नहीं थी, उनके रूप में ऐसा कोई जादू नहीं था कि आप देखें तो देखते ही रह जाँय! पीतल के चमकदार बर्तनों वाले भव्य शोरूम में मिट्टी के सुन्दर घड़े जैसी थीं जया जी! ऐसे लोग सबको अच्छे लगते हैं, बल्कि ऐसे ही लोग सबको अच्छे लगते हैं। हेमा और रेखा के दौर में जया कुछ अलग ही थीं।

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उनमें शरतचंद के उपन्यासों वाली स्त्री दिखती थी। वही, जो मन के भीतर पीड़ा का महासागर ले कर भी मुख पर मुस्कान सजाए रखती है, और अपनी सेवा के बल पर सबकुछ ठीक कर लेने का प्रयास करती रहती है। दौर कोई भी हो, घरेलू लोगों की पहली पसंद ऐसी ही लड़कियां होती हैं न! जया ऐसी ही थीं।

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जया के लगभग सारे किरदार एक जैसे थे। यहां तक कि उनके नाम भी लगभग एक से थे। जंजीर की माला, अभिमान की उमा, सिलसिला की शोभा, चुपके चुपके की वसुधा, शोले की राधा, गुड्डी, मिली… सबका चरित्र एक सा था, सो सबको लगा कि जया व्यक्तिगत जीवन में भी अपने किरदारों जैसी ही होंगी। गुड्डी सी, उमा सी… होंगी भी! शायद हाँ… शायद नहीं…

जया जब सिनेमा में दुबारा लौटीं तब भी उन्होंने वैसी ही भूमिकाएं की। एक आध उदाहरण छोड़ दें तो पर्दे पर लोगों को हर बार उनकी गुड्डी ही मिली। अभिमान से कभी खुशी कभी गम तक…

जया सिने जगत में उन भारतीय स्त्रियों की प्रतिनिधि थीं जो सुन्दर दिखने के लिए ब्लाउज की बांह दो बिलांग छोटी करने की जगह गहनों को बढ़ा लेना पसंद करती हैं। कम से कम इस मामले में तो जया आज भी वैसी ही हैं, जैसी अभिमान के समय में थीं।

फिर जया आईं राजनीति में! और तब लोगों ने देखा कि जया वैसी तो बिल्कुल ही नहीं हैं, जैसा वे उन्हें मानते आए हैं। वे तुर्कमिजाजी हैं, चिड़चिड़ी हैं, झगड़ालू हैं, इरिटेटिंग हैं… हालांकि उनके प्रशंसकों को सहसा उनके ऐसे होने पर विश्वास नहीं होता। लगता है कि जया अब अभिनय कर रही हैं। वैसे जया तब अच्छा अभिनय कर रही थीं, या आज अच्छा अभिनय कर रही हैं, यह तो वे ही जानती हैं।

वैसे मुझे लगता है, राजनीति व्यक्ति से उसकी मिठास छीन लेती है। कई बार तो वह व्यक्ति से उसका मूल चरित्र ही छीन लेती है। अटल भी तो कहते रहे- राजनीति के मरुथल में मेरी कविता की धारा सूख गई है, मेरे अंदर का कवि खो गया है। राजनीति ने भी जया के भीतर से उस जया को छीन लिया है, जिसके लिए लोग जया को याद करते हैं।

वैसे कौन जाने! सम्भव है कि जया हमें इस कारण अप्रिय हो गयी हों कि राजनीति में उन्होंने दूसरा पक्ष चुन लिया। राजनीति के असर से हम भी तो अछूते नहीं।

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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