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रमेश बैस : अब आगे क्या ?

-दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से-

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Positive India: Diwakar Muktibodh:
छत्तीसगढ़ की राजनीति की अज़ीम शख्सियत रमेश बैस अपने 46 – 47 वर्षों के अपने शानदार करियर के बाद ‘घर’ वापसी कर रहे हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में उनका कार्यकाल 29 जुलाई 2024 को समाप्त हो गया। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व उनके दीर्घ अनुभवों का भविष्य में कोई लाभ लेगा अथवा नहीं, इस बारे में पक्के तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। उनके स्थान पर झारखंड के राज्यपाल सी वी राधाकृष्णन को महाराष्ट्र का नया राज्यपाल बना दिया गया है। चूंकि 77 वर्षीय रमेश बैस को नयी पदस्थापना नहीं मिली है अतः यह मान लिया जाना चाहिए कि अब उनका राजनीतिक भविष्य कम से कम भाजपा में नहीं है। वैसे भी पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उम्रदराज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाता रहा है, अतः बहुत संभव है रमेश बैस को भी भाजपा के नये प्रकोष्ठ, मार्ग दर्शक मंडल का नया सदस्य बना दिया जाए। फिलहाल बैस ने स्वेच्छा से कोई एलान नहीं किया है कि वे आगे किस तरह की भूमिका में रहेंगे। प्रदेश की राजनीति में पुनः सक्रिय होना चाहेंगे अथवा चुनावी राजनीति से हट जाएंगे? वैसे भी उम्रदराज नेताओं से, जो वर्षों तक सत्ता का सुख भोगते रहे हैं, उम्मीद नहीं की जाती कि वे खुद ऐसा कोई कदम उठाएंगे । हालांकि संभव है बैस अपवाद सिद्ध हो ? वैसे भाजपा ने एक अच्छा का किया है बूढ़े नेताओं की सम्मानजनक विदाई का। उसने तथाकथित मार्ग दर्शक मंडल बना रखा है जिसकी आडवानी सहित गुजरे जमाने के अनेक नेता शोभा बढा रहे हैं। अब छत्तीसगढ़ से बैस के लिए भी यह दरवाजा खोल दिया गया है। इस प्रकिया में कोई अनहोनी हो जाए तो बात अलग है।

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रमेश बैस झिलमिलाती तकदीर वाले इंसान हैं। राजनीति में तकदीर भी बहुत मायने रखती है, इसका अनुपम उदाहरण बैस है। छत्तीसगढ़ की नब्बे के दशक की चुनावी राजनीति में या यों कहे चुनावों के दौरान यह जुमला खूब चला था- ‘ अटल बिहारी जरूरी है, रमेश बैस मजबूरी है ‘। दरअसल उन दिनों बैस के बारे में यह प्रचारित था कि वे जनप्रतिनिधि के रूप में किसी काम के नहीं है। छत्तीसगढ़ एवं छत्तीसगढ़ के लोगों का भला करने लायक न तो उनमें विचार-दृष्टि है और न ही संकल्प-शक्ति। लेकिन चूंकि 1996, 1998 व 1999 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेई को राज्य के मतदाता प्रधान मंत्री के रूप में देखना चाहते थे इसलिए दलीय दृष्टि से बैस को जीताना वे मजबूरी मानते थे , और उन्होंनेे उन्हें जिताया भी। पर मतदाताओं की कथित मजबूरी रमेश बैस को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाती रही है। 2 अगस्त 1947 को जन्मे रमेश बैस के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1978 में रायपुर नगर निगम के पार्षद के बतौर हुई। आगाज अच्छा रहा लिहाज़ा 1980 में अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक बन गए। वहां से छलांग लगाई तो 1989 में सीधे रायपुर लोकसभा सांसद, फिर 1996 ,1998, 1999, 2004, 2009 तथा 2014 अर्थात कुल सात दफे उन्होंने लोकसभा में रायपुर का प्रतिनिधित्व किया। बैस , अटल बिहारी वाजपेई की केंद्र सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में राज्य मंत्री व स्वतंत्र प्रभार में रहे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने रायपुर लोकसभा में बदलाव की शुरुआत की। बैस को टिकिट न देकर उसने सुनील सोनी पर दांव खेला जो सटीक बैठा। सोनी ने रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की। लेकिन बैस की तकदीर ने अभी मुंह नहीं मोडा था, उन्हें मुआवजे के तौर पर 29 जुलाई 2019 को त्रिपुरा का राज्यपाल बना दिया गया। इसी कार्यकाल के दौरान उन्हें झारखंड के राजभवन में पहुंचा दिया गया। यहां दो साल भी नहीं बीते थे कि उन्हें राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण महाराष्ट्र में राज्यपाल की जिम्मेदारी सौंप दी गई । इस पद पर यद्यपि उनका कार्यकाल 29 जुलाई 2024 को समाप्त हो गया पर यह नहीं भूलना चाहिए कि अगले कुछ ही महीनों में इस राज्य में विधान सभा चुनाव होने हैं जो भाजपा के लिए लिटमस टेस्ट की तरह है।

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रमेश बैस सीधे, सरल इंसान है। दावंपेंच से दूर रहते हैं। भले ही उन्हें तकदीर का धनी कहा जाए या कभी उन पर ‘ अटल बिहारी जरूरी है, बैस मजबूरी है ‘ का ठप्पा चस्पा रहा हो पर बैस राजनीतिक रूप से भाजपा के लिए कितने जरूरी रहे हैं यह इस तथ्य से सिद्ध होता है कि तीन दशक पूर्व 1989 के आम चुनाव में रायपुर लोकसभा सीट पर उन्होंने भाजपा की जीत की जो नींव रखी उस पर इमारत भी उन्होंने ही बुलंद की। इसे उन्होंने इतना मजबूत बना दिया कि कांग्रेस उसे अभी तक भेद नहीं पाई है। अब बृजमोहन अग्रवाल यहां से सांसद है। उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत का नया कीर्तिमान स्थापित किया है।

बैस छत्तीसगढ़ में पिछडे वर्ग के बड़े नेता है। सात लोकसभा चुनावों में उनकी जीत केवल बुलंद तकदीर अथवा संयोगवश नहीं थी वरन रायपुर संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं के बीच उनका मजबूत जनाधार जीत की बड़ी वजह रही है। कुछ जातीय समीकरण व अपनी जन स्वीकार्यता के चलते उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेताओं यथा श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, केयूर भूषण, धनेंदर साहू, जुगल किशोर साहू, भूपेश बघेल व सत्यनारायण शर्मा को पराजित किया था। लेकिन अब राजनीतिक परिस्थितियां वैसी नहीं। समय के साथ पिछड़े वर्ग में नये व युवा नेताओं का उभार हुआ है जो संगठन और सत्ता में महत्वपूर्ण पदों पर है और जिन्हें नेतृत्व ने आगे बढने का अवसर दिया है। इस दृष्टि से 75 पार नेताओं के लिए अवसर शेष नहीं है। बैस इसी श्रेणी में आ गए हैं।

दो अगस्त को भाजपा का यह नेता उम्र के 77 बरस पूरे कर लेगा। इसे संयोग ही कहना चाहिए कि जन्मदिन के दो दिन पूर्व वे राज्यपाल के पद से निवृत्त हो गए। यह कहना मुश्किल है कि ऐसे मौके पर वे हताशा महसूस करेंगे या पद के तनाव से मुक्त होने का उत्सव मनाएंगे ? चूंकि वे हरफ़नमौला है अत: शायद उन दिनों की ओर लौटेंगे जब फुर्सत में रहते हुए वे कभी बागवानी तो कभी टेलरिंग या इमारती लकडियों से तरह -तरह की आकृतियां बनाकर अपनी कला-प्रेमी होने का उदाहरण पेश करते थे। पता नहीं आगे क्या करेंगे पर यह अधिक सुखद व कुछ अविश्वसनीय भी है कि इतने दीर्घ राजनीतिक करियर में सरकार व संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद उन्होंने स्वयं का दामन पाक साफ रखा। उन पर कभी कोई आक्षेप नहीं लगा। राजनीतिक शुचिता की दृष्टि से यह उनकी बड़ी उपलब्धि है।

साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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