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शिवाजी महाराज ने डंके की चोट पर हिन्दवी साम्राज्य की घोषणा की।

-कुमार एस की कलम से-

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Positive India:Kumar S:
राष्ट्र के इतिहास में #छत्रपति_शिवाजी_महाराज वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना को साकार रूप दिया जिसमें हिन्दू को हिन्दू होने का गौरव था।

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हिंदुत्व के वटवृक्ष की छाया में एक बार फिर मध्यकालीन रक्तरंजित मानवता ने कुछ क्षणों की ही सही, वास्तविक विश्रांति ली जबकि गांधार से लेकर बंगाल तक हिंदुस्थान औरंगजेब की हरी तलवार से बहाए निर्दोषों के रक्त से भीग चुका था।

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एक ऐसा हिन्दू साम्राज्य स्थापित हुआ जिसमें हिन्दू की बहिन बेटी सुरक्षित थी। वह उसे पाल पोषकर, युवती होते, श्रृंगार करते, खेत में टहलते, जलस्रोत से घड़ा भरकर लाते, गजगामिनी चाल से सखियों से परिहास करते देख सकता था।

जहाँ मंदिर की ध्वज पताका निर्भय फहरा सकती थी। घन्टानाद फिजाओं में गूंज सकता था। हवन अग्नि प्रज्वलित हो सकती थी, देवविग्रह की परिक्रमा में कोई व्यवधान नहीं था, पूजन सामग्री की सुगंध का धूम्र आकाश में विकीर्ण हो सकता था।

जहाँ कृषक अपनी भूमि का स्वयं स्वामी था, फसल पकने पर शकट पर लादकर अपने घर के कोठार में भंडारण कर सकता था, अपने नए धान के साथ दीपावली की धनलक्ष्मी का पूजन कर सकता था, अब उसे अपनी खड़ी फसल जलाए जाने का भय नहीं था।

जहाँ वेदपाठ करते ब्राह्मण को चोटी रखने पर हास्य नहीं सम्मान मिलता था, भगवा पहनने पर भय नहीं तेजस्विता का अनुभव होता था, नदी में डुबकी लगाने पर रक्त की धार नहीं बहती, ललाट का चंदन घुलता था, अब उसे अपनी संहिता पाठ की पांडुलिपि को अपनी जंघा में सिलकर छिपाने की जरूरत नहीं थी।

जहाँ भक्त को निर्मल हृदय के सम्मुख आसुरी अट्टहास की मुग़लिया तलवार की खनक सुनाई नहीं देती थी, भजन के बदले अली मौला दुहराने की विवशता नहीं थी, लड्डू गोपाल भूलकर अटपटी टेढ़ी मेढ़ी सुअर के भागते मूत्र की रेखाओं जैसी लिपि में लिखी किसी काल्पनिक किताब का जबरन पाठ करने का दबाव नहीं था, अपने ठाकुर जी को सीने से चिपकाकर गिरि-पर्वत लांघते हुए किसी दूर देश में भाग कर गुप्त होने की संभावना नहीं थी।

जहाँ किसी सुंदर, बड़ी आंखों, पुष्ट उरोज, कदली फल के समान जंघाओं, उन्नत भारी नितंबों वाली युवती को अपहृत होकर हिंजड़ों से घिरे, जिनके जननांग काट दिए हैं ऐसे पुनश्चलों सेवकों से भरे ‘हरम’ में धकेले जाने की यंत्रणा नहीं थी। बल्कि अब वे अपने तरल, सरल, उत्तंग यौवन की सार्थकता हिन्दू हृदय सम्राट को तेजस्वी सैनिक जनकर देने के सार्थक जीवन की चाह में वैसे ही कठोर शरीर वाले और उद्दाम चपलता वाले हिन्दू युवक की सहधर्मिणी बनकर भविष्य के सुखद जीवन की कल्पना कर सकती थी।

जहाँ ललनाओं को सतीत्व रक्षा हेतु अग्नि-स्नान के अंतिम विकल्प पर सोचने का अभिशाप नहीं लगा था। बल्कि वे मातृभाव से व्रत, तीर्थ, उपासना में रत अतिथियों को आग्रह और मनुहार पूर्वक भोजन कराने और यज्ञमय गृहस्थी को संवारने हेतु लंबे समय तक जीवित रह सकती थीं।

जहां क्षत्रिय को पराया चाकर बनने की जरूरत नहीं थी, धर्मविमुख लोगों के नखरे सहने का झमेला नहीं था, वह तो अपना उत्सर्ग मातृभूमि की सेवार्थ करते हुए जीवन धन्य कर सकता था क्योंकि उसकी आहुति देव-यज्ञ में गिरने वाली थी।

जहाँ वैश्य को दैन्यता के धरातल पर इधर उधर से संग्रह कर जकात या जजिया चुकाने की बाध्यता नहीं थी बल्कि उसे तो अब पुण्यतीर्थ में दान किये अपने धन के सदुपयोग की गारंटी थी।

जहाँ शिल्पी को अपने शिल्प द्वारा मुर्दा सड़ती लाशों पर मकबरे या मीनारें चुनने की गन्दी शर्त नहीं थी, अपितु उसे, यथेष्ट धन प्राप्त कर अपने ही आराधना और उपासना के आश्रयस्थल में परिणत करने का अवसर था।

जहाँ कवित्व को चापलूसी करने, संस्कृत छोड़ फ़ारसी अपनाने, अलंकृत छन्द की बजाय रुबाई लिखने का डर नहीं था बल्कि काव्यशास्त्र के अनुरूप प्रजापति बनकर गुणों की ग्राहकता समेटकर और दोषों से बचकर नैसर्गिक वीर रस की सृष्टि का वातावरण उपलब्ध था।

जहाँ विविध धर्मावलम्बी खड्गधारी काले साये की आड़ में धर्म की व्याख्या को विवश नहीं था, वह…. थोथी, कृत्रिम, आभासी, पक्षपात परक, पश्चिमी दर्शन पर आधारित कुटिल सेक्युलरिज्म के दलदल में धँसते जाने हेतु विवश नहीं था बल्कि अपने श्रद्धाभाव के अनुसार वसुधैव कुटुम्बकम के भ्रातृभाव से जीने का वास्तविक उत्तराधिकारी था।

जहाँ हिंदुओं को यह ज्ञान था कि उनके परिश्रम का अंश किसी अन्य के पोषण में व्यर्थ नहीं लुटाया जाने वाला।

बहुत सोच समझकर, काशी के विद्वानों से राय लेकर, अपने बुद्धिमान मंत्रियों से मन्त्रणा कर, जनसमूह के भव्य दिव्य स्वप्न की भावना का ध्यान रखते हुए उन्होंने अपने साम्राज्य को कोई और नाम (शिवाजी साम्राज्य या मराठा साम्राज्य) नहीं दिया!! उन्होंने नाम दिया हिंदू साम्राज्य।
उन्होंने हिन्दूपदपादशाही की स्थापना की।
उन्होंने पीड़ित किंतु पराक्रमी, शोषित किंतु साहसी, पददलित किंतु पराक्रमी, हतभाग्य किंतु जिज्ञासु, हतोत्साहित किंतु विजिगीषु प्रवृत्ति से आगे बढ़ने को उत्सुक हिन्दू जाति को जीवन की सार्थकता का एक आलंबन प्रदान किया।
उसे जीवन जीने का सुंदर, वास्तविक और व्यवहारिक विकल्प उपलब्ध करवाया।
शिवाजी महाराज ने डंके की चोट पर हिन्दवी साम्राज्य की घोषणा की।
असली आजादी तो वही थी।
हिन्दू साम्राज्य दिवस (आज ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी) की शुभकामनाएं!!

साभार:कुमार एस-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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