www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

गुरु दक्षिणा का नाम आते ही सबसे पहले एकलव्य और द्रोणाचार्य की कथा ही मनोमस्तिष्क में क्यों कौंधती है?

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

Ad 1

Positive India: Rajkamal Goswami:
गुरु दक्षिणा का नाम आते ही सबसे पहले एकलव्य और द्रोणाचार्य की कथा ही मनोमस्तिष्क में कौंध जाती है । समाज का एक वर्ग तुरंत आक्रामक हो जाता है और दूसरा सुरक्षा कवच खोजने लगता है । लेकिन दक्षिणा की महिमा अपार है । एक बार देय हो जाने पर वह यथाशीघ्र देनी ही होती है अन्यथा वह चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती है ।

Gatiman Ad Inside News Ad

इस सम्बंध में सबसे रोचक कथा ऋषि कौत्स और उनके गुरु वरतंतु की है । कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश का पंचम सर्ग इसी कथा को समर्पित किया है । प्राचीन काल में महर्षि वरतंतु भरूच के पास अपना गुरुकुल चलाते थे और कौत्स उनका शिष्य था । ब्रह्मचर्य वृत का पालन करते हुए कौत्स नें अपने गुरु की पूरी तन्मयता से सेवा की । उसकी शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु ने उसकी सेवा से संतुष्ट होते हुए घर जाने को कहा । कौत्स ने गुरु दक्षिणा देने इच्छा प्रकट की तो गुरु जी ने उसकी अकिंचन दशा को देखते हुए दक्षिणा लेने से इन्कार कर दिया कहा वत्स तेरी अक्रत्रिम भक्ति भाव युक्त सेवा से में अत्यंत संतुष्ट हूँ अब तू भी संतुष्ट होकर घर जा । लेकिन कौत्स अड़ गया फिर वही बात हुई कि,

Naryana Health Ad

अति संघर्षण कर जो कोई
अनल प्रकट चंदन से होई

कौत्स के हठ और अहंकार को देख कर आचार्य वरतन्तु ने उसे गुरु दक्षिणा में चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ लाकर देने को कहा । कौत्स ने आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया और चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की खोज में निकल पड़ा ।

अयोध्या में उस समय भगवान राम के प्रसिद्ध पूर्वज राजा रघु का राज्य था । कुछ समय पूर्व वे दिग्विजय करके आये थे और विश्वजित यज्ञ किया था जिसमें उन्होने अपना सर्वस्व दान कर दिया था । कौत्स का स्वागत उन्होंने मिट्टी के पात्रों में अर्घ्य और पूजन से किया और आने का प्रयोजन पूछा । कौत्स तो उनकी विपन्न दशा को देख कर निराश हो गया । राजा रघु के बहुत आग्रह के बाद उसने अपना प्रयोजन बताया और कहा कि सर्वस्व दान करने के बाद आपसे मेरा मनोरथ सिद्ध नहीं होता दीख रहा है अतः मैं कहीं अन्यत्र याचना करूँगा । मुझे आज्ञा दीजिये ।

राजा रघु ने कौत्स से चार दिन प्रतीक्षा करने को कहा और मन ही मन धन के स्वामी कुबेर पर आक्रमण करने का संकल्प लिया । महाप्रतापी राजा रघु के संकल्प मात्र से कुबेर का सिंहासन डोल उठा । उसने रातोरात राजा के राजकोष को सोने से भर दिया ।

अगले दिन अयोध्या में विचित्र दृश्य उत्पन्न हो गया । राजा रघु सम्पूर्ण राजकोष कौत्स के साथ गाड़ियों पर लदवाने को तत्पर हैं और कौत्स चौदह करोड़ से अधिक एक मुद्रा भी स्वीकार करने का इच्छुक नहीं है । जनता दोनों के त्याग को देख कर धन्य धन्य कह रही थी । राम राम करके किसी तरह कौत्स चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें लेकर अयोध्या से विदा हुए और गुरु दक्षिणा गुरुदेव के चरणों रख कर उनका संतोष अर्जित किया । इति कौत्स उपाख्यान !

गुरुओं को कभी एकलव्य जैसे शिष्यों की कामना नहीं करनी चाहिए । जिस तरह साधक सद्गुरु की खोज में रहता है उसी तरह सद्गुरु को भी पात्र शिष्य की खोज रहती है ।

मुझे भी कौत्स जैसे शिष्य की तलाश है ।

गुरु पूर्णिमा की शुभकामनायें

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.