भक्ति का नशा भारत-देश के वासियों की बुनियादी मनोवैज्ञानिक बाधा क्यों हैं?
-सुशोभित की कलम से-
Positive India: Sushobhit:
भारत-देश के वासियों की कुछ बुनियादी मनोवैज्ञानिक बाधाएँ हैं। उनमें से एक है- भक्तिवत्सलता। नशा है भक्ति का। उसके बिना जी नहीं सकेंगे। कोई न कोई चाहिए, जिसके चरण पखारकर धन्य अनुभव करें। और इसके विकल्पों की कमी भी नहीं है, (अब तो भक्ति-सम्प्रदाय का उदय राजनीति के क्षेत्र में भी हो चुका है!) लेकिन भारत के पतन का कारण है अवतारवाद और बहुदेववाद। हर कुल और गोत्र के अपने देवता। उनसे भी काम न बना तो बाबावाद। गुरु, बाबा, कथाकार, प्रवचनकार, संत-साधु। गली-गली में बाबा और हर बाबा के भक्तों की फ़ौज। न आचरण का विश्लेषण, न ज्ञान का परीक्षण- स्वयं को बाबा घोषित करो और भारत में आपको अनुयायियों के जत्थे मिल जाएँगे।
जिस बहुलता को भारत का गुण बताया जाता है, वह वास्तव में उसका शाप बन चुकी है। अब्राहमिक धर्मों को देखें- एक ईश्वर, एक संदेशवाहक और एक पुस्तक। दुविधा की कोई सम्भावना नहीं। अब वह पुस्तक क्या संदेश दे रही है, वह पृथक से बहस का विषय है, पर ग़लतफ़हमी की कोई गुंजाइश कम से कम उन्होंने नहीं रख छोड़ी है। इससे समाज में एकता आती है। भारत के समाज में कभी एकता नहीं आ सकती। क्योंकि उसके गुणसूत्र में ही विभाजन के फ़ैक्टर पैठे हुए हैं- बहुदेववाद, अवतारवाद, जात-पाँत-गोत्र, बाबावाद। यह जीवन से हारे हुए, कुंठित लोगों का हुजूम, जो ज़रा-से स्वाँग से किसी के भी दीवाने बन जाते हैं और उसके चरणों की रज लेने दौड़ पड़ते हैं। और वह भी भौतिक-कामनाओं की पूर्ति के लिए। टैंजिबल इनवेस्टमेंट है, लेकिन टैंजिबल रिटर्न नहीं है। इसके बावजूद लगे पड़े हैं। एक अभावग्रस्त देश की भोगवादी एंग्ज़ायटी, जो ज़रा से प्रलोभन से सुध-बुध खो बैठती है।
भारत की एक और विशिष्टता है- भगदड़। दुनिया के किसी देश में ऐसी भगदड़ नहीं मचती, जैसी यहाँ मचती हैं और सहस्रों सालों से मचती आ रही हैं। सामूहिक अवचेतन में पैठी हुई है भीड़ और भगदड़। मेलों-ठेलों का देश। मैं स्वयं कुम्भ मेले के नगर से आता हूँ और भीड़ और भगदड़ के मनोविज्ञान को बहुत क़रीब से जानता हूँ। सिर पर पैर रखकर दौड़ने की वृत्ति यहाँ इतनी गहरी है कि चाहे पच्चीस-पचास कुचलकर मर जावें, कोई हर्ज़ नहीं, पर ज़रा-सी अफ़वाह पर भगदड़ मचा देना ज़रूरी है। धक्का-मुक्की जब तक न हो, भारतवासियों को आनंद नहीं आता। यहाँ पर पुलिस के डंडे से लोगों को क़तार में लगाया जाता है, डंडा न हो तो क़तार भी न होगी। ट्रैफ़िक पुलिस न हो तो हर चौरस्ते पर लोग गुत्थमगुत्था हो जावें। भले कोई आगे न निकले, चलेगा, लेकिन पंक्तिबद्ध होकर एक-एक निकलें, यह मंज़ूर नहीं है। अगर चौराहे पर लाल, पीली, हरी बत्तियाँ न हों, तो पूरा भारत ही एक भगदड़ है।
बुनियादी स्तर पर शिक्षा का अभाव, नागरिक-अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता की शोचनीय दशा, तिस पर धर्म की अफ़ीम, उसमें भी हज़ार मत-सम्प्रदाय, अपने-अपने कु़नबों और क़बीलों का घमण्ड, सामूहिकता के शोर में वैयक्तिक-चेतना का पराभव- कौन कहता है भारत विश्वगुरु है? वास्तव में, गुरु तो क्या भारत अगर ढंग से शिष्य ही बन जावे, एक विनम्र और जिज्ञासु छात्र बन जावे, दूसरे देशों, जातियों से कुछ अच्छा सीखने की कोशिश करे तो इसका कल्याण हो। अभी तो इससे उम्मीद नहीं की जा सकती।
प्रतिभा का एकाध नक्षत्र कोई यहाँ-वहाँ चमक उठे उससे क्या, इस देश की बहुसंख्य जनता तो मूढ़, दिग्भ्रान्त, अंधविश्वासी और पाखण्डी है, और यह एक तथ्य है।
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)