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क्या आप गुरु की तलाश के बारे में जानते हैं?

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India: Rajkamal Goswami:
साधक में जब उत्कट जिज्ञासा जाग जाती है तो वह गुरु की प्रतीक्षा नहीं करता बस चल पड़ता है । भटकता भी है अपने जैसे और साधकों का अनुसरण भी करता है , सही मार्ग न मिलने पर निराश भी होता है लेकिन ध्येय के प्रति उसका निश्चय अडिग होता है । उसकी दशा कुछ यूँ हो जाती है ,

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चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़रौ के साथ ।
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं ॥

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लेकिन जैसी बेचैनी साधक को होती है सद्गुरू में भी ऐसे साधकों के प्रति असीम करुणा होती है । गौतम बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद सबसे पहले अपने उन बिछड़े साथियों की तलाश की जो उनके साधना मार्ग के साथी थे । अंत में सारनाथ में उन्हें पकड़ कर अपना पहला उपदेश दिया ।

भक्तिमार्गियों के अनन्य गुरु नारद हैं । भला नारद को कोई साधक खोज सकता है ? नारद ही सुपात्र देख कर प्रकट हो जाते हैं और सही मार्गदर्शन करते हैं । अपने पिता उत्तानपाद की गोद से उठाया गया विमाता द्वारा तिरस्कृत ध्रुव जब विष्णु की खोज में दृढ़ निश्चय कर के निकला तो देवर्षि पहुँच गये सहायक बन कर ।

गुरु सहायता के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकता । यात्रा तो साधक को ही करनी है । लेकिन गुरु के ज्ञान का और मार्गदर्शन का कोई मोल नहीं है । कचहरी घाट पर मुंशी वकील दलाल सब अपने ज्ञान से ही कमा खा रहे हैं । वरना कपिल सिब्बल और जेठमलानी को लाखों रुपये लोग क्यों देते ? गुरु राह भी बताता है बाधाओं से भी परिचित करा देता है शेष संकल्प आपका है चलना आपको है ।

नारद खोजते खोजते हिमाचल की कन्या के पास भी पहुँच गये । वहाँ कन्या के संकल्प को पहचान कर उसे शिवाराधन के लिये प्रेरित कर दिया।

जो तप करहि कुमारि तुम्हारी । भाविहु मेटि सकहिं त्रिपुरारी

साथ ही साथ यह भी बता दिया कि महेश दुराराध्य हैं , मुश्किल है उनकी आराधना लेकिन क्लेश करने पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं ।

दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आशुतोष पुनि कियें कलेसू ।

विष्णु के मंदिरों में इतना क्लेश नहीं फैलाते हैं भक्तगण जितना शंकर जी के मंदिरों में । हर हर बम बम और तरह तरह की ध्वनि उच्चारित करने से शिवजी प्रसन्न होते हैं ।

लेकिन नारद की भूमिका मार्गदर्शन के साथ समाप्त हो जाती है । आगे उमा का संकल्प है कि,

तजउँ न नारद कर उपदेसू । आप कहइँ सत बार महेसू
जनम कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु नत रहउँ कुँआरी

सद्गुरु की तलाश में अगर साधक भटकेगा और तब तक साधना नहीं शुरू करेगा तो भटकता ही रह जायेगा । गुरुओं के नाम पर गुरुघंटालों की कमी नहीं है । वेषभूषा से रावण भी भगवा पहन कर ही सीता को हरने आया था फिर यह तो घोर कलियुग है । हर जगह करोड़पति संत बैठे हुए हैं भक्तों की भावनाओं का दोहन करने के लिये ,

तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही

सद्गुरु तो आपके आस पास ही कहीं होगा , आपमें पात्रता देखेगा तो प्रकट हो जायेगा । जो ज्ञान को प्राप्त हो जाता है या भक्ति में सविकल्प समाधि को उपलब्ध हो जाता है वह बहुत सरल और सामान्य जीवन गुज़ारता है या फिर कंदराओं में विलीन हो जाता हैं । वैसे माया ज्ञानी पुरुष को भी पकड़ लेती है । उसके विस्तार में जायेंगे तो लेख बहुत लंबा हो जायेगा ।

सद्गुरु की तलाश में मत भटकिये और अगर सद्गुरु मिल जाये तो वह अवसर चूकने का नहीं है । रज्जब को दादू ने जब पुकारा तब वह मौर पहन कर दूल्हा बने हुए थे पर सब कुछ छोड़ कर दादू के साथ हो लिये ।

साधक को गुरु मिलता जरूर है पर बह क्षण सौदेबाजी का नहीं होता कि क्या दाँव पर लगा है ।

सीस दिये जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान !

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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