Positive India: Sushobhit:
नीतीश कुमार एक पहेली हैं। लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो एक विचारधारा पर आजीवन अडिग रहते हों। घोर अवसरवादिता के चश्मे से दुनिया देखने वालों को तो वे एकदम सीधे-सरल लगेंगे और तुरंत समझ आएँगे। उन्होंने इतनी बार अपनी निष्ठाएँ बदली हैं कि वे स्वयं ही गिनती भूल चुके होंगे। फिलहाल वे एनडीए के पार्टनर हैं और सत्ताधीश के पैर छूने का यत्न करके उन्होंने ‘भक्तिवत्सल जीवों’ के हृदयों को भिगो दिया है। नीतीश ने न केवल समर्थन, बल्कि सम्मान भी देकर सत्ताधीश के समर्थकों का दिल जीत लिया। वो ‘बेचारे’ नहीं जानते कि नीतीश पैर छूते-छूते टाँग खींचने के खेल में माहिर हैं!
पिछले साल यही जून का महीना था, जब ‘इंडिया’ गठजोड़ की पहली बैठक हुई थी और उसकी अध्यक्षता नीतीश कुमार ने की थी। ‘इंडिया’ वाले अगर उन्हें एनडीए में फिट किए गए अपने मोहरे की तरह देखना चाहें तो उन्हें इस कल्पना से संकोच नहीं करना चाहिए। वैसे भी आशिक़ के दिल और नीतीश के पाले का क्या भरोसा, कब बदल जाए।
नीतीश समाजवादी-धड़े से निकले हैं। खाँटी ‘लोहियाइट’ रहे हैं। सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर, विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ कंधा मिलाकर चले हैं। लालू, राम विलास, फ़र्नांडिस आदि युवा-तुर्कों में रहे हैं। लेकिन पलटी मारने में शुरू से ही उस्ताद हैं। 1994 में लालू यादव से अलग रास्ता अपनाते हुए उन्होंने समता पार्टी बनाई, जिसने 1996 के आम चुनावों में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी बनने का पथ प्रशस्त किया। फिर भाजपानीत अटल-सरकार के साथ 1998-99 में केंद्र में रेल चलाई। 2005 में जदयू-भाजपा गठजोड़ से बिहार के मुख्यमंत्री बन बैठे तो बीच के कुछ महीनों को छोड़ तब से डिगे नहीं हैं।
ये ‘बीच के कुछ महीने’ कौन-से थे, यह मालूम करना भी दिलचस्प है। 2013 में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भाजपा ने घोषित किया तो नीतीश विरोधस्वरूप एनडीए से अलग हो गए। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर नीतीश ने एक बार फिर विरोध जताते हुए बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। फिर 2015 में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध ‘महागठबंधन’ का नेतृत्व करते हुए बिहार में ऐतिहासिक जीत दर्ज की। तब लालू यादव ने उनका ‘राजतिलक’ किया था। लालू भी तब जान नहीं पाए थे कि नीतीश ‘तिलक’ करने वाले का अँगूठा पकड़ते-पकड़ते पोंचा पकड़ लेते हैं!
नीतीश के मन में यह दुविधा हमेशा रही है कि राष्ट्रीय राजनीति में तक़दीर आज़माएँ या पटना की अपनी गद्दी पर ही डटे रहें। उन्होंने पटना को बचाए रखने का निर्णय हर बार लिया है, अलबत्ता अगर ‘इंडिया’ गठबंधन से नहीं टूटते तो आज प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते थे। आश्चर्यजनक रूप से 2024 के चुनावों में बिहार में तेजस्वी यादव इतना आगे नहीं आ पाए, जितने कि नीतीश आए। जबकि चुनाव-पूर्व राजद की एक लहर-सी बताई गई थी। इससे पता चलता है कि नीतीश का वोट-बेस अभी भी क़ायम है। महादलित, पसमांदा मुसलमान, नॉन-यादव ओबीसी, कुर्मी-कोयरी उनसे जुड़े हैं।
नीतीश दिशासूचक यंत्र हैं! हवा का रुख़ किस तरफ़ बह रहा है, यह जानना है तो नीतीश की ‘गृह-दशा’ देख लीजिए। लालू यादव ने रामविलास पासवान को उनकी राजनैतिक अवसरवादिता के लिए ‘मौसम-विज्ञानी’ बताया था। नीतीश पासवान से भी आगे की चीज़ हैं! वो मौसम नहीं, ‘क्लाइमेट’ के उस्ताद हैं। 26 मई 2014 को जब नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, तब मुख्यमंत्री पद त्यागकर ‘एक महान नैतिक आदर्श’ स्थापित करके अगले साल बिहार में मोदी को हराने वाले नीतीश को सेकुलर खेमा कितने स्नेह, कितनी आशाओं से देख रहा था, क्या बताऊँ? ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’ तभी का नारा था।
उसके बाद से वो चार बार पलटी मार चुके हैं और दो-दो पारियाँ बीजेपी और आरजेडी के साथ खेल चुके हैं। क्रिकेट की भाषा में तब से चार इनिंग्स का एक पूरा टेस्ट मैच खेल चुके हैं। केंद्र की राजनीति में 25 साल बाद लौटे हैं। आज उनके दिल में क्या है, वो ही जानें। लेकिन वो वहाँ पर कितने दिन रहेंगे, इस बात को लेकर कोई भी सुनिश्चित नहीं हो सकता। नीतीश के साथ गठबंधन में होना तेल-सने हाथों से मछली पकड़ने की तरह है!
वरिष्ठ सम्पादक श्री श्रवण गर्ग- जो पत्रकारिता में मेरे गुरु हैं और अपने कटाक्ष के लिए जाने जाते हैं- ने हाल ही में बहुत ही ज़ोरदार बात कही। उन्होंने कहा, जब पटना में मोदी का रोड-शो हुआ था, तब नीतीश बुझे हुए दिख रहे थे। रोड-शो में नीतीश के हाथ में भाजपा का निशान कमल का फूल थमा दिया गया था। अब तस्वीर बदली हुई है। अब नीतीश ने मोदी के हाथों में जदयू का चिह्न (तीर) थमा दिया है। इसे आप ‘उड़ता तीर’ भी कह सकते हैं। आप मान सकते हैं कि अब मोदी जी को पूरे समय नीतीश का यह तीर लेकर घूमना पड़ेगा!
Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer)