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आडवाणी बीज हैं , नरेंद्र मोदी उस का फल

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India: Dayanand Pandey:
अपना-अपना भ्रम तोड़ कर एक बात लोगों को अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी वह बीज हैं जिस के फल हैं , नरेंद्र मोदी। वृक्ष , शाखाएं , फूल और फल नष्ट हो जाएं , ख़त्म हो जाएं तो फिर हो जाएंगे। लेकिन अगर बीज ही ख़त्म हो जाए तो कुछ नहीं होगा। कभी नहीं होगा। लेकिन देख रहा हूं कि लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न क्या मिला , कई सारे पके-अधपके फोड़े फूट गए हैं। इन फोड़ों का बदबूदार मवाद , ऐसे बह रहा है जैसे नाबदान में सीवर का पानी। इन को बहने दीजिए और जानिए कि लालकृष्ण आडवाणी न होते तो भाजपा का यह वृक्ष भी आज की तारीख़ में इतना घना , इतना फलदार नहीं ही होता।

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आप कहेंगे कि फिर अटल बिहारी वाजपेयी क्या हैं ? क्या थे ?

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एक निर्मम सच यह भी है कि लालकृष्ण आडवाणी की मेहनत से ही अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। अटल बिहारी वाजपेयी के अध्यक्ष रहते भाजपा लोकसभा में दो सीट पर सिमट कर रह गई थी। भाजपा जब भी फूली-फली , लालकृष्ण आडवाणी के भाजपा अध्यक्ष रहते ही। आप कह सकते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी , भाजपा के नेहरु थे। गांधी नेहरु के बीज थे। सरदार पटेल आदि को फांद कर नेहरु प्रधानमंत्री बने थे। गांधी कहते थे कि हमारे बीच नेहरु ही एक अंगरेज है। तो कट्टर लोगों के बीच भाजपा में अटल एक उदार चेहरा थे। अलग बात है एक समय लोग अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा का धर्मेंद्र कहते थे। जैसे धर्मेंद्र , फिल्मों में प्रेम , हास्य , स्टंट सब कुछ कर लेते थे , अटल बिहारी वाजपेयी भी भाजपा में , भाजपा के लिए सभी कुछ कर लेते थे। अटल बिहारी वाजपेयी कट्टर नहीं , उदार चेहरा थे भाजपा के। जब कि लालकृष्ण आडवाणी भाजपा का कट्टर चेहरा। अटल बिहारी वाजपेयी ने वह सब कुछ नहीं देखा , भोगा जो लालकृष्ण आडवाणी ने देखा भुगता। पाकिस्तान बंटवारे के बाद कराची में मुस्लिम सांप्रदायिकता का सामना अटल बिहारी वाजपेयी ने नहीं किया था। नहीं भुगता था। भुगता था , लालकृष्ण आडवाणी ने। सिंधी हो कर भी लालकृष्ण आडवाणी को सिंध छोड़ना पड़ा था , अटल बिहारी वाजपेयी को नहीं। तो लालकृष्ण आडवाणी कट्टर नहीं होते तो कौन होता भला ! धूमिल की कविता पंक्ति है :

लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुँह में लगाम है।

तो लालकृष्ण आडवाणी की स्थिति वही थी , जो लगाम वाले घोड़े की होती है। मुस्लिम सांप्रदायिकता का स्वाद आडवाणी ने चखा था , अटल ने नहीं। ख़ैर , बात भाजपा , आडवाणी , मोदी और भारत रत्न की।

अभी आडवाणी को भारत रत्न घोषित होने तक के पहले तक आडवाणी-मोदी के संबंधों पर तंज करने वालों का सुर क्या था , अब क्या हो गया है , देखने लायक़ है। आनंददायक है। बहुत आनंददायक। अभी तक मोदी विरोध के बुखार में तप रहे लोग , आडवाणी से गहरी सहानुभूति रखने वाले लोग कैसे तो पके फोड़े की तरह फूट कर मवाद के सीवर का नाला बन कर बदबू मारते हुए बहने लगे हैं , देखना बहुत दिलचस्प है।

अच्छा अगर सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा आडवाणी ने नहीं निकाली होती तो क्या देश की राजनीति का मंज़र यही होता ? आडवाणी की रथयात्रा अयोध्या भले नहीं पहुंची पर इस रथयात्रा ने आडवाणी को जननायक बना दिया था। इतना कि लोग आडवाणी के रथ के पहियों पर लगी धूल माथे पर लगाते थे। आडवाणी की आरती होती थी जगह-जगह।

अच्छा अगर गोधरा न होता और समूचा सेक्यूलर गैंग गोधरा पर सांस खींच कर बैठ न गया होता , ऐसे जैसे कुछ हुआ ही न हो। तो क्या राजनीति का यही दृश्य होता ?

सेक्यूलर गैंग ऐसे ख़ामोश रहा गोया रेल के डब्बों में बंद कर के गोधरा में कारसेवक नहीं , इंसान नहीं लकड़ी जला दी गई हो। फिर गोधरा नरसंहार की प्रतिक्रिया में पूरे गुजरात में जिस तरह दंगे-फसाद हुए , उस पर जो एकतरफा हाय-तौबा हुई , वह भी नहीं हुआ होता तो क्या यही-यही हाल-हवाल होता ? नरेंद्र मोदी को जिस तरह मुख्यमंत्री के तौर पर अपराधी घोषित कर पूरे देश में माहौल बिगाड़ा नहीं गया होता तो क्या नरेंद्र मोदी , आज की तारीख़ में प्रधानमंत्री भी होते ?

मेरा स्पष्ट मानना है कि नहीं होते। बात पानी की तरह साफ है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की भयानक आंधी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया।

जिस तरह तीस्ता सीतलवाड़ जैसे एन जी ओ धारी खड़े कर , दुनिया भर के एकतरफा आरोप लगा कर मोदी को खलनायक बना कर पेश किया , कांग्रेस और सोनिया गांधी ने वह अभूतपूर्व था। सी बी आई सहित तमाम जांच एजेंसियों ने नरेंद्र मोदी को घेर लिया। बारह-बारह घंटे की पूछताछ होती थी तब मोदी से। नियमित। सोनिया गांधी ने ख़ून का सौदागर बताया नरेंद्र मोदी को। पूरी दुनिया में बताया गया कि नरेंद्र मोदी से ज़्यादा घृणित मुख्यमंत्री और व्यक्ति कोई है ही नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी की भी उदारता जागी और उन्हों ने ने भी मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ा दिया गोवा में। लेकिन आडवाणी ढाल की तरह खड़े हो गए , मोदी के पक्ष में। लंबी प्रक्रिया के बाद सभी कानूनी मामलों और जांचों से भी सुप्रीमकोर्ट से क्लीनचिट मिल गई मोदी को। कि तभी प्रयाग के महाकुंभ के धर्म संसद में विश्वहिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम प्रस्तावित कर दिया। भाजपा ने इस प्रस्ताव पर अमल किया। आडवाणी अपना चेहरा उदार बनाने की गरज से जिन्ना को सेक्यूलर होने का सर्टिफिकेट दे कर फंस चुके थे। मोदी के मुखर विरोधी भी बन बैठे। लेकिन देश की जनता ने भी तमाम राजनीतिक दलों के मुस्लिम तुष्टिकरण से आजिज आ कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर बहुमत दे कर चुन लिया। अब मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने से आजिज मोदी वार्ड के तमाम मरीज , लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी में अपनी दवा खोजने लगे। आडवाणी , जोशी की सहानुभूति में बेक़रार रहने लगे। कभी राफेल , कभी नोटबंदी , कभी जी एस टी , कभी नए संसद भवन , कभी राम मंदिर में दुःख-दर्द खोजते रहे। दुष्यंत के एक शेर में जो कहें :

सिर से सीने में कभी पेट से पाँव में कभी

इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है।

यह दर्द ख़त्म ही नहीं होता। लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न अब नया दर्द है। लेकिन बात फिर वहीं आ कर ठहर जाती है कि लालकृष्ण आडवाणी बीज हैं और नरेंद्र मोदी उस के फल। नरेंद्र मोदी नाम का यह फल भारतीय राजनीति के सारे सेटिल्ड पाठ्यक्रम रद्द कर नित नए पाठ्यक्रम बनाता रहता है। रद्द करता रहता है। जाने क्यों लोग इस बात से बुरी तरह बेख़बर हैं। मुसलसल बेख़बर हैं। उलटे लोग अवसाद में आते रहते हैं। पागल होते रहते हैं। याद कीजिए पिछली बार नीतीश कुमार को फिर से एन डी ए में लाने के पहले बिहार के तत्कालीन राज्यपाल रामनाथ कोविद को राष्ट्रपति पद के लिए नामित किया था। नीतीश गए रामनाथ कोविद को बधाई देने और पलट कर इस्तीफ़ा दे कर वापस एन डी ए में। अब की बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पुरी ठाकुर को भारत रत्न का ऐलान कर नीतीश कुमार को अपने पाले में कर के इंडिया गठबंधन के ट्यूब की छूछी खोल दी। सारी हवा निकल गई।

अच्छा तो क्या कर्पुरी ठाकुर के साथ ही लाकृष्ण आडवाणी को भी भारत रत्न देने का ऐलान नहीं किया जा सकता था ? किया जा सकता था। पहले भी एक साथ दो लोगों को भारत रत्न का ऐलान हुआ है। पर अगर तभी हो जाता तो यह निर्मल आनंद कैसे मिल पाता मोदी वार्ड के सदस्यों को। सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी को राजनीति में अपने विरोधियों को निरंतर जुलाब देने की कुलति लग गई है। कर्पुरी ठाकुर को भारत रत्न दे कर नीतीश कुमार को अपना अल्शेसिसियन बना कर जातीय जनगणना को पलीता लगाया। अब लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न दे कर , गुरु दक्षिणा दी है। अयोध्या में राम मंदिर बन जाने की गुरु दक्षिणा। नहीं देने को तो जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न दिया था , तभी लालकृष्ण आडवाणी को भी भारत रत्न दे देना था।

भारत रत्न ही क्यों लालकृष्ण आडवाणी अगर ज़्यादा उछल-कूद न किए होते तो राष्ट्रपति भी बने होते और भारत रत्न भी। नहीं बने तो इस लिए भी कि आडवाणी , अटल से तमाम दोस्ती के बावजूद फिंगरिंग से बाज नहीं आते थे। आदत से लाचार थे। कई बार उन्हें लगता रहता था कि सारी मेहनत उन्हों ने की। भाजपा की राजनीतिक ज़मीन को उपजाऊ उन्हों ने बनाया , फ़सल अटल काट रहे हैं। तो रह-रह कर टीस उठती रहती थी। शायद आडवाणी की यह टीस देख कर ही गोविंदाचार्य एक समय कह बैठे थे कि अटल जी तो मुखौटा हैं। और खेत हो गए।

याद कीजिए अटल जी का गोवा में वह भाषण जिस में उन्हों ने गरजते हुए कहा था , न टायर्ड , न रिटायर्ड , आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान ! तब आडवाणी ही नहीं , पूरी भाजपा को सांप सूंघ गया था। तो मोदी के साथ भी आडवाणी की फिंगरिंग लगातार जारी रही। यशवंत सिनहा , शत्रुघन सिनहा तक बाग़ी हुए तो आडवाणी की ही शह पर। सुषमा स्वराज , उमा भारती , शिवराज सिंह चौहान आदि तब समय रहते ही बाग़ी सुर बदल कर नमो-नमो पर आ गए थे। तो आडवाणी भी अगर समय की नज़ाकत देखते हुए अपने प्रिय शिष्य के साथ बेसुरे न हुए होते तो भारत रत्न ही नहीं , राष्ट्रपति भी हुए होते। अगर अभी नहीं तो मरणोपरांत भी निश्चित ही भारत रत्न होते लालकृष्ण आडवाणी। अच्छा हुआ कि जीते-जी भारत रत्न हो गए। अब वह लांछित नहीं , सम्मानित मृत्यु को प्राप्त करेंगे। लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न दे कर नरेंद्र मोदी ने भी अपने दिल का भार हल्का किया है। अपना चेहरा साफ़ किया है। बीज को प्रणाम कर के ही , अपने मूल को आदर दे कर ही कोई फल , फल बने रह सकता है। नहीं सड़ कर बदबू मारने लगता है। यह कृतज्ञता भाव काश कि हर शिष्य में हो ! हुआ करे ! ग़ालिब लिख ही गए हैं :

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई

मेरे दुख की दवा करे कोई

शरअ’ ओ आईन पर मदार सही

ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई

क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से

अब किसे रहनुमा करे कोई

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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