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वैजयन्ती
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मैंने वैजयन्ती को कभी वैजयन्ती कहकर नहीं पुकारा, गहरे स्नेह से हमेशा ‘मधु’ ही कहा। मेरे मन पर वैजयन्ती की ‘मधुमती’ वाली छवि अमिट है!
‘मधुमती’ किशोरावस्था में मेरे लिए कोमल भावनाओं का आलम्बन बन गई थी। अपने लिए जैसी एक प्रेमिका की कल्पना मैंने की थी, ‘मधु’ उस पर ठीक-ठीक खरी उतरती थी। बड़ी निर्दोष आँखें, देह में ग्रामबालिकाओं-सी स्वाभाविक उत्फुल्लता और चन्द्रमा जैसा गोल चेहरा। धरती पर उगने वाले फूलों में कोई भी वैसा नहीं- जैसा कि वह आकाश-कुसुम है- पूर्णिमा के चन्द्रमा का धवल-पुष्प, जिसे दुलार से हथेलियों में समो लेने का मन करता हो, और ‘मधु’ ठीक-ठीक उस पूरे चाँद जैसी थी!
मैंने उसे पहले-पहल बिमल रॉय की ‘देवदास’ में देखा था। देव और पारो के आत्मगौरव की होड़ के बीच उस एक ‘चन्द्रमुखी’ के निश्छल प्रेम ने तब मेरी चेतना को ग्रस लिया था। वह चन्द्रमुखी ही तो थी- चन्द्रमा के जैसे मुखमण्डल वाली! जब वह नशे में चूर देवदास का मन बहलाने के लिए नाच दिखाने का उद्यम करती तो मेरे रुलाई फूट पड़ती। नितिन बोस की ‘कठपुतली’ में उसको देखकर तो जैसे मैं उस पर रीझ ही गया- “बोल री कठपुतली डोरी कौन संग बाँधी, सच बतला तू नाचे किसके लिए?” ‘नागिन’ की माला पर भी बहुत अनुरक्त हुआ। ‘नया दौर’ की रजनी के साथ एक सरल-ग्रामबालिका का उसका मिथ बलवती हुआ, जो ‘मधुमती’ में चरम पर जा पहुँचा था।
‘मधुमती’ में दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले कथासूत्र से भी परे, दिलीप कुमार के अभिनय में निहित अवसाद और मधु के व्यक्तित्व में निहित निर्दोष उत्फुल्लता, और उनका निष्ठावान प्रणय, भावना की इतनी तीव्रता से व्यक्त हुआ था कि एक बार उसके मोह में पड़ने के बाद उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं था! और तब, मैंने मन ही मन उसके प्रति प्रेम की शपथ ली, उसे अपनी कल्पनाओं की प्रणयिनी कहकर पुकारा, अख़बारों से उसकी तस्वीरें काटकर अपने सजल कैशोर्य का अलबम सजाया और पेंसिल की नोक से हमेशा उसकी ठोढ़ी पर तीन बिंदु टाँक दिए! मैं वैजयन्ती की कल्पना उसी रूप में किया करता था!
दिलीप कुमार और वैजयन्ती माला : मैं सिनेमा के इस सजीले जोड़े को ख़ूब आशीष देना चाहता था और अपने मन से इस माया को कभी दूर नहीं करना चाहता था। कुछ साल पहले ‘नया दौर’ रंगीन फ़िल्म के रूप में फिर रिलीज़ हुई थी। नैयर की ढोलक से अनुप्राणित उसके टप्पेदार गीतों की खनक उससे जैसे और बढ़ गई। तब भी ‘मधुमती’ के ‘जुल्मी संग आँख लड़ी’ की ओर मैं बार-बार लौटकर जाता रहा। इस एक गीत ने मुझे बेध दिया था, क्योंकि उसमें ‘मधु’ के होने का बिम्ब बहुत स्पष्ट रूप से व्यक्त हुआ था- “बातों बातों में रोग बढ़ा जाये, हमारा जिया तड़पे किसी के लिये शाम से, मेरा पागलपना तो कोई देखो, पुकारूँ मैं चंदा को साजन के नाम से!”
काफ़ी समय बाद मैं इस बात को समझ पाया कि लता की आवाज़ ने हमारी कल्पनाओं में जिस प्रेयसी के विग्रह को सजाया था- उसका ठीक-ठीक रूप मधु के नैन-नक़्शों में उभरकर सामने आया था। कि वह लता के स्वर का एक स्त्री के रूप में सटीक संस्करण बन गई थी और ‘मधुमती’ के बाद लता और वैजयन्ती को अलग कर पाना असम्भव हो गया था। ‘मधु’ के लिए दिलीप कुमार की तरह किसी पुरानी हवेली की छत से नीचे गिरकर मर जाना और कोहरों के साथ एकमेक हो जाना जायज़ था!
दिलीप और वैयजन्ती तब एक-दूसरे के प्रेम में पड़ गए थे। दिलीप इससे पहले कामिनी कौशल और मधुबाला से इश्क़ फ़रमा चुके थे और वैजयन्ती को आगे जाकर राज कपूर से मोहब्बत करनी थी, लेकिन पचास के दशक के उत्तरार्ध में दिलीप और वैजयन्ती से ज़्यादा सजीला जोड़ा हिन्दुस्तान में कोई दूसरा ना था और यह स्वाभाविक ही था कि वे एक-दूसरे की ओर आकृष्ट हो जाते। बाद उसके बहुत बहुत साल बीते! और तब एक दिन मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ!
साल 2012 आ पहुँचा था। सन् 1958 की ‘मधुमती’ 54 साल पुरानी कहानी हो चुकी थी। दिलीप बुढ़ा गए थे, वैजयन्ती जराजीर्ण हो गई थीं। दिलीप कुमार पर किसी ने किताब लिखी। किताब का विमोचन हुआ। बूढ़े और थके हुए दिलीप कुमार स्टेज पर आए और खोए हुए से एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। एक-एक कर सितारे आते रहे और महान ‘त्रासद-नायक’ का अभिवादन करते रहे। सबसे आख़िर में वैजयन्ती आई, और दिलीप को एक गुलदस्ता भेंट किया। दिलीप ने आँखें उठाकर देखा, जैसे कि पहचान ही ना पाए हों। जैसे पिछले जन्म की किसी स्मृति को ताक रहे हों।
उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरे घुटने अब काँपने लगे हैं!
‘मधुमती’ में दिलीप कुमार वैजयन्ती माला को दो बार खोकर तीसरी बार पा लेते हैं। लेकिन उस शाम मुझे लगा, जैसे आनंद बाबू ने अपनी ‘मधु’ को इस बार हमेशा के लिए खो दिया है!
वह मर्माहत कर देने वाला क्षण था और इसीलिए मैंने तय किया कि यथार्थ से अधिक मुझे गल्प के भीतर रहना है और सत्य से अधिक माया को पोसना है, क्योंकि मैं ‘मधु’ को खो नहीं सकता था! और मैंने उसे अभी तक खोया नहीं है!
मुझे नहीं मालूम, मद्रास में रहने वाली अठासी साल की वेटरन एक्ट्रेस, गोल्फ़र, पोलिटिशियन और क्लासिकल डांसर वैजयन्ती माला- जिन्हें कल ही पद्मविभूषण सम्मान मिला है- कौन हैं? मैं क्यूँ कर जानने लगा? सजल और आकुल अंतर से मुझे केवल- जैसे पिछले जन्मों में जिया हुआ- 1958 का साल याद है और ‘मधुमती’ याद है। और कुछ भी नहीं। और कुछ भी नहीं। और कुछ भी नहीं…
साभार:सुशोभित (ये लेखक के अपने विचार हैं)