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हाय गज्जब एक तारा टूटा

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
गूगल बता रहा है कि आज शाम को उल्कापात होने वाला है। यूँ तो सालों भर आकाश में उल्काएं आती रहती हैं पर पूस माघ में इनकी संख्या बढ़ जाती है। यह डरावना बिल्कुल भी नहीं है। विज्ञान की भाषा में कहें तो ये ब्रह्माण्ड में घूमते पिंडों के टुकड़े हैं जो पृथ्वी के वायुमण्डल में आते ही घर्षण से जल उठते हैं।

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लोक में इन्हें टूटा तारा कहते हैं और गंवई रीत है कि टूटता तारा दिखने पर उनसे कुछ मांग लिया जाता है। कहते हैं, टूटते तारे से मांगी गई इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। कितना अजीब है न? जो पिंड स्वयं जल रहा हो वह किसी को क्या देगा?
पर इसको तनिक दूसरी तरह देखिये! पिछले करोड़ों अरबों वर्ष से ब्रह्मांड में भटकते एक पिंड की यात्रा पूरी हो रही है। जलना उसकी यात्रा की पूर्णता है, मुक्ति है। पूर्णता का भाव जिसमें भी आ जाय, फिर वह भोक्ता नहीं रहता, दाता हो जाता है। मृत्युशैया पर पड़े किसी व्यक्ति के अंतिम क्षणों में उससे आशीर्वाद लेने की परम्परा इसी भाव के कारण बनी है। उसकी यात्रा पूर्ण हो रही है तो वह कुछ भी दे सकता है। यही नहीं, तीर्थ से लौटे बुजुर्ग, युद्ध से विजयी लौटा सैनिक, सागर से मिल रही नदी… सभी दाता हैं।

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फिर भी! किसी जलते पिण्ड या मरते व्यक्ति से कुछ मांगने का कोई मतलब भी है? क्या सचमुच कुछ मिलता है? ऐसा दावा सामान्यतः कोई नहीं कर सकता। फिर मांगना क्यों? पर कई बार किसी से कुछ मांगने का कारण हमारी लालसा नहीं होती, बल्कि दूसरों को दाता हो सकने का सन्तोष दिलाने के लिए भी, यूँ ही कुछ मांग लेते हैं। मरते व्यक्ति से दीर्घायु होने का आशीष लेना ऐसा ही है। कम से कम उसके मुख पर तो सन्तोष पसर ही जाता है। यह भी कुछ कम तो नहीं…

कई बार अपनी कोई इच्छा, जिसे हम संकोच वश किसी के सामने नहीं कह पाते, वह टूटते तारे ही कह लेते हैं। इससे अपने मन को तो बल मिलता ही है। सोचिये न, क्लास की पिछली बेंच पर बैठने वाले लड़के के मन में क्लास टॉपर लड़की के लिए प्रेम उपज जाय तो किससे कहेगा वह? या किसी ट्वेल्थ फेल लड़के में आईपीएस बनने के ख्वाब पलें तो किससे कहेगा वह? जिन्दगी फ़िल्म नहीं होती, वास्तविक जिंदगी में सच्चे दोस्त भी ऐसी इच्छाओं का मजाक ही उड़ाते हैं। ऐसी इच्छाएं निर्भय हो कर किसी टूटते तारे को ही बताईं जा सकती हैं।

अपनी पूर्णता की ओर बढ़ रहे व्यक्ति से भय या लज्जा नहीं होती। हम उसे सबकुछ बहुत सहजता से कह लेते हैं। जो बात पिता से कहते समय भय होता है, वही बात बच्चे दादा से बहुत सहजता से कह लेते हैं।

जब किसी बच्चे को कोई नई जानकारी मिलती है तो वह उस जानकारी के बल पर दूसरों की थाह लेने लगता है। वह दूसरों से पूछता फिरता है- “तनिक बताओ न, चेकोस्लोवाकिया की राजधानी कहाँ है?” और यदि सामने वाला नहीं बता पाए तो वह चिढ़ाता रहता है। ज्ञान उसके पास भी आया है, पर पूर्णता नहीं आयी। बर्तन अभी नब्बे फीसदी खाली है। अब यह खाली बर्तन यह शोर कर के दूसरों को परेशान ही करेगा। पर वही नई जानकारी किसी वृद्ध के पास पहुँचे, ज्ञानी के पास पहुँचे तो वे दूसरों को अज्ञानी सिद्ध कर के जलील नहीं करेंगे। वे बताएंगे भी तो इतने सहज भाव से बताएंगे कि ज्ञान लेने वाले का सर न झुके। किन्तु यह भाव पूर्णता की ओर अग्रसर पर ही आ पाता है।

खैर! आज अगर कोई टूटता तारा दिख गया तो मांगेंगे, “राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का यज्ञ निर्विघ्न पूरा हो…” अभी के लिए यही आवश्यक है।

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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