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सावरकर की समकक्षता में, राजनीतिक फलक पर न गांधी आते हैं न नेहरू

-भगवान सिंह की कलम से-

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Positive India: Bhagwan Singh:
हम सपनों का सौदागर में हृदय परिवर्तन की संभावनाओं और सीमाओं का उल्लेख कर आए हैं, और यह भी कह आए हैं कि गांधी जी की मूल प्रकृति सट्टेबाजों की थी। उचित श्रम, उचित साहस और शौर्य, प्रतिदान के बिना जो लोग कुछ भी पाना चाहते हैं, या जो लोग देना कम और पाना अधिक चाहते हैं, आनन-फानन में पाना चाहते हैं, वे अनैतिक, अपराधी या जुआड़ी होते हैं। इनमें प्रकृति भेद नहीं होता, परिस्थिति भेद होता। मनुष्य प्रकृति से अनैतिक होता है; ज्ञान और अनुभव से सीखता है कि अनैतिकता अनुत्पादक और आत्मविनाशी होती है और इसमें लिप्त रहने वाले अपने समाज के और स्वयं अपने शत्रु होते हैंं। यदि इसका सीमित लाभ किन्हीं परिस्थितियोंं में मिल भी जाए तो तो भी यह सभी के लिए अकल्याणकारी होती है। इस बोध के उदय, विस्तार और निर्वाह के अनुपात में ही कोई व्यक्ति बुद्धिमान और तुलनात्मक रूप में दूसरों से ऊपर होता है। भारतीय मनीषा पर हमें जिन कारणों से गर्व होता है उनसे से एक है कि यह अकेला देश है जिसमें प्रकृति-लब्ध षड्विकारों की कल्पना की गई और अंतःप्रकृति पर विजय, (आत्मविजय) के अनुपात में मनुष्य की महिमा को आंका जाता रहा। परंतु इसी के साथ यह बौध भी जुड़ा है कि न तो हम अंतःप्रकृति को पूरी तरह जान सकते हैं न बाह्यप्रकृति को, न अंतःप्रकृति पर पूर्ण विजय संभव है, न बाह्य प्रकृति पर। विजय के लिए एक सीमा से अधिक दवाव डाला जाए तो वह उग्र होकर बदला लेती है और हमारा सारा ज्ञान और सारे औजार धरे के धरे रह जाते हैं। इस बोध का ही परिणाम है कि गीता युक्त आहार-विहार और कर्म में युक्त चेष्टा की हिमायत करता है। बौद्ध मत मध्यमार्ग (मज्झिम मग्ग) का समर्थन करता है। मद्ध्यमा प्रतिपदा। किसी भी क्षेत्र में अतिवाद से बचने की शिक्षा देता है – अति सर्वत्र वर्जयेत्। भारत का अकेला एक मत है जो अहिंसा, सत्य, और अस्तेय को उस परराकाष्ठा पर पहुंचा देता है जिसमें इसका पालन संभव नहीं पर पालन करने के प्रयास में पालन करने वाले का जीवन असंभव हो जाता है, रास्ता चलना दूभर हो जाता है। यहां तक कि और इसलिए अपने आदर्श रूप में अव्यवहार्य रहा है, जैन मत कहा जाता है। यह मात्र संयोग है कि गांधी जैन संस्कारों में पले थे और हिंदुत्व की रूढ़ियों से मुक्त नहीं हो पाए थे। उनके सारे फैसले अव्यावहारिक, अविचारित और अतिवादी थे। यथार्थ को समझने की जगह, आत्मबल से यथार्थ को बदलने के विश्वास से इस सीमा तक ग्रस्त थे कि इसमें न ज्ञान बाधक बनता था, न अनुभव, न दूसरों का परामर्श। उनके अधिकांश निर्णय एक झटके में लिए गए थेऔर दूसरों के संदेह के बाद भी वह उन पर अड़े रहे थे जिसके कारण भी मैंने उनकी तुलना ब्लैंक कार्ड चलने वाले जुआड़ी से की थी।

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वह यह तो जानते थे कि मनुष्य तो क्या हिंस्र जानवरों तक का हृदय परिवर्तन संभव है । परंतु ऐसा सद्भावना से नहीं युक्ति से किया जाता है। विरोधी के मन में भय पैदा करके, उसकी सुरक्षा और हित की चिंता करते हुए उसे अपने वश में किया जाता है। अपने अनाड़ीपन में वह जिस संभावना की तलाश कर रहे थे उसके लिए शक्ति और साधन होते हुए भी ठीक उल्टा तरीका अपना रहे थे। इस बात को दुहराना पड़ रहा है कि वह सोचते थे कि दूसरे को खुश करके, उसके अनुसार अपने को ढाल कर, उसकी सभी इच्छाएं पूरी करके उसे अपने वश में किया जा सकता है। यह उल्टा तरीका है जिससे अपनों को भी अपना दुश्मन बनाया जाता है। जो दोस्त बन सकता है उसे अपना मालिक बनाया जाता है और वह आदत डाली जाती है जिसमें हम ज्यों ज्यों उसकी मांग पूरी करते जाते हैं, मांग बढ़ती चली जाती है। यहां तक कि इससे अपना पुलकाया (पैंपर्ड) पुत्र तक अंततः अपना शत्रु बन जाया करता है। आश्चर्य है कि धार्मिक संस्कारों में पले गांधी धर्म संकट पैदा होने पर जैन मुनियों और दूसरे संस्कारी लोगों से अपनी शंका का समाधान किया करते थे परंतु राजनीति मामले में उल्टे परिणाम देखकर भी वह अधिक अनुभव भी और ज्ञानी लोगों का सुझाव नहीं मानते थे।परिस्थितियों के अंतर को ना समझ पाने के कारण, वह यह मान बैठे थे कि दक्षिण अफ्रीका में जो कुछ हुआ के अधिक नेतृत्व के कारण संभव हुआऔर यदि अफ्रीका में हिंदू-मुस्लिम प्रशासन के अन्याय के विरुद्ध एक जुट हो सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं? ऐसा नहीं कर पाया इसलिए भारत के वरिष्ठ और अनुभवी हिंदू नेता भी उन्हें दुराग्रही और पिछड़े दिमाग के लगते थे। उनकी वर्जना, संदेह और असहमति की इसी कारण उपेक्षा करते हुए अकेले दम पर यह करिश्मा कर दिखाना चाहते थे। यहां तक न तो उनके आचरण में न कोई पाखंड नहीं था। सच तो यह है कि उनके अति विश्वास और उनकी अफ्रीकी सफलता का ऐसा दबदबा दूसरे हिंदू नेताओं पर भी था कि उनमें से अधिकांश उन्हें लोकोत्तर पुरुष मानने लगे थे। मालवीय जी अकेले अपवाद थे पर राजनीतिक महत्वाकांक्षा से मुक्त, सच्चा कर्मयोगी होने के कारण उन्होंने गांधी को समझाने का प्रयत्न तो किया, रुकावट पैदा करने से परहेज करते रहे। स्वयं गांधी के मन में यह भ्म पैदा हो गया था कि वह चमत्कारी हैं, इसलिए जन साधारण में फैल रहे इस विश्वास का उन्होंने कभी कथित या लिखित रूप में निराकरण नहीं किया। इसलिए इस चरण तक उनकी नासमझी की आलोचना की जा सकती है, परंतु उनकी नीयत में, सर्वोपरि बने रहने की लालसा को छोड़कर दूसरी कोई कमी नहीं तलाशी जा सकती।

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उनकी दुर्बलताएं पाखंड बन कर पहली बार इस महान प्रयोग की विफलता के बाद विफलता को स्वीकारने में झिझक और सही सिद्ध करते हुए आगे जारी रखने की कोशिश के साथ प्रकट हुईं। इसका प्रधान कारण उनकी कायरता थी। हम यह नहीं मानते कि इस बार मोपलों ने हिंदुओं पर वे सारे अत्याचार किए थे जो उनसे कराए गए थे। हमारे पास जानकारी की कमी है पर जितनी जानकारी है उसमें टीपू द्वारा मालाबार विजय और धार्मिक उत्पात के समय से ही, जो ही उसके पतन का कारण बना था, सांप्रदायिक उपद्रव होते रहते थे। ‘’तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी गोपालन नायर ने अपनी पुस्तक में सांप्रदायिक संघर्ष की 50 से अधिक ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है, जब मालाबार के मुसलमानों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे।’’ पर इस आंदोलन के साथ मुसलमानों का गुस्सा ब्रिटिश राज के विरोध में भड़का था। इसमें हिंदुओं का कितना योगदान था, था भी या नहीं, यह हमें नहीं मालूम। गांधी के मौनव्रत और अज्ञानता के हथकंडे इसके बाद आरंभ होते है।

घटनाक्रम यह था कि खिलाफत के आवेश में मोपलों ने अनेक अंग्रेज अधिकारियों की कर दी, कार्यालयों पर अधिकार कर लिया। प्रशासन लुंज पुंज हो गया। प्रभावित क्षेत्र में बाहर से सैनिक सहायता को बाधित करने के लिए उन्होंने सूचना और यातायात के साधनों को बाधित कर दिया और एक खलीफा की जगहदो दो खलीफा नियुक्त कर दिए।

इसने आगे चलकर क्या मोड़ लिया और उसमें ब्रिटिश खुफिया तंत्र और कूटनीति की क्या भूमिका थी इस पर हम आगे विचार करेंगे। यहां केवल इतना ही कि गांधी यह जानते थे कि सावरकर और अंडमान भेजे जाने वाले दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों का अपराध क्या था। उनमें से किसी ने किसी अंग्रेज की हत्या नहीं की थी, हत्या करने वालों का समर्थन किया था। मलाबार में अंग्रेज अधिकारियों की हत्या जिस आंदोलन के कारण हुई थी, उसमें अग्रणी भूमिका उनकी थी और उन्हें अपना भविष्य दिखाई देने लगा था। इस नियति से बचने के लिए उन्होंने तीन तरीके अपनाए:

उपद्रव की सूचना मिलने पर उनको तत्काल मालाबार का रास्ता अपनाना चाहिए था। वह उससे बचते हुए बंगाल का भ्रमण करने लगे। यह हर एक तरह का पलायन था।

हम यह नहीं मान सकते कि गांधी को जिन भी सूत्रों से इस उपद्रव की सूचना मिली थी उसमें आरंभिक घटनाओं का जिक्र न रहा हो । गांधी सिलचर यात्रा में रेल के डिब्बे से लिखे गए, 9 दिन बाद प्रकाशित होने वाले अपने लेख में इससे पूरी तरह अनभिज्ञता प्रकट करते हैं जिसका तात्विक निर्वचन है, ‘हुजूर हमारा इरादा आपके विरोध का था ही नहीं। हमें माफ करो।

गांधी ने इसको छिपाने के लिए इसे सांप्रदायिक रंगत देते हुए कहा, उपद्रव तो एक मस्जिद को हिंदुओं द्वारा घेर लिए जाने से उत्तेजित मुस्लिम भीड़ के प्रत्याक्रमण से आरंभ हुआ। इसका खिलाफत से कोई संबंध नहीं। इसका संदेश तो मालाबार में पहुंचा ही नहीं था। मोपलों की तो आदत है बात बेबात मार काट पर उतर आना। या उनके खून में है। इसे हिंदुओं को समझना चाहिए था और उन्हें किसी तरह उत्तेजित नहीं करना चाहिए था।

इसके साथ साथ गांधी की सफलता और गांधी का पाखंड, कांग्रेस की गांधी पर निर्भरता और कांग्रेस का पाखंड। इस टुच्चेपन की तुलना सावरकर के गौरवशाली जीवन से करते हुए सावरकर को तुच्छ बना कर पेश करने की राजनीति पर तो हम इस पुस्तक की विषय सीमा में शायद छूूट भी न पा सकें पर यह दर्ज होना जरूरी है कि सावरकर की समकक्षता में, राजनीतिक फलक पर न गांधी आते हैं न नेहरू।

साभार:भगवान सिंह-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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